Wednesday, December 10, 2008

कुछ तो कोरा रहे .....

लिख लेते कविता
अगर हाथ में हरी, लाल, पीली पन्नी रहती
लेकिन मिला भी तो सफ़ेद कागज़
कैसे चलाऊँ उसपर कलम?
काली सियाही उसे भद्दा कर देगी

सफ़ेद कागज़ की यही समस्या है
लालच तो देता है
लेकिन डरता भी है

वैसे तो कहता है कुछ लिख दो
लेकिन डरता है इस बात से कि;
चली जायेगी उसकी सफेदी
मौत हो जायेगी उसके सफेदपन की
क्योंकि इस समय की कविता
हमेशा कालापन देती है
और सफ़ेद कागज़ को
इस कालेपन का भय सताता है

फिर सोचता हूँ;
कुछ तो सफ़ेद रहे
कुछ तो कोरा रहे
कागज़ ही सही

Monday, December 1, 2008

स्साले सारी मोमबत्तियां खरीद ले गए..........

लोडशेडिंग हो गई. दूकान पर कैंडल नहीं मिली.
स्साले सारी मोमबत्तियां खरीद ले गए. कह रहे थे आतंकवाद से जंग लडेंगे.
आतंकवाद से जंग!
माय फुट.

Monday, November 17, 2008

उनकी आँख पत्थर की है

शाम से आँख में नमी सी
हैओस की बूँदें आँख में बैठ गयी होंगी
नहीं-नहीं ये आँख की नमी है

क्या कह रहे हो?
अभी आँखें नम होती हैं!
किसकी?

अच्छा, उनकी?
फिर ठीक है
उनकी आँख पत्थर की है
शायद इसीलिए नम हो जाते होगी
....................................................................

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
क्या बुनने की तरकीब सीखनी है?
चादर?

तुम नहीं सीख पाओगे
जुलाहे से ऐसा मत कहो
तुम्हारे पाँव तो हमेशा चादर से बाहर रहते हैं
पहले पावों को चादर के भीतर रखना सीखो
.........................................................................

Friday, October 3, 2008

आदमी, तरक्की और जिंदगी.



कविता नहीं आपको सच्ची घटना सुनाता हूँ.
किस्सा नहीं आपको ये हकीकत बताता हूँ.

कल सरे-बाज़ार जिंदगी से मुलाकात हुई थी.
बेचारी....... पूरी तरह से लुटी-टूटी हुई थी.
शरीर पर लिए घूम रही गहरे घाव थी,
तेज़ धूप - पसीने से तरबतर--
ढूंढ़ती फ़िर रही वो एक छाँव थी.

मैंने पूछा-
किसे तलाशती हो?
लगता है जैसे कुछ मदद मांगती हो?
किसने किया ये हाल तुम्हारा, लूटे आभूषण सारे?
सत्य, साहस, ईमान, विश्वास, त्याग जैसे रतन तुम्हारे?
कराहकर वो बोली---
जबसे मेरे पति आदमी ने पैसे को अपना ससुर बनाया है
उसकी बेटी तरक्की से दूजा ब्याह रचाया है
तब से मेरा ये हाल हुआ जाता है...
मेरी सौत कि हर ख्वाहिश पर मेरा एक-एक गहना बिका जाता है

असत्य के लिए सत्य को बेचा गया
स्वार्थ के लिए साहस को
बेईमानी के लिए ईमान को बेचा गया
धोखे के लिए विश्वास को
लोभ के लिए त्याग को बेचा गया


कितने युग? कितने जन्म?
कितने जीवन? कितनी साँसे?


अब और नहीं सह सकती, हार मानती हूँ मैं
थक चुकी-- अब तो केवल मौत मांगती हूँ मैं.

मित्रो,
सच्चाई यंहा ख़त्म होती है
आगे कविता शुरू होती है.
लेकिन कविता की कुछ सीमा होती है
कविता की सीमा होती है वाह-वाह
कविता की सीमा होती है आह-आह
कविता की सीमा होती है तालियाँ
कविता की सीमा होती है गालिया
कविता की जो सीमा ना होती
तो शायद...
जिंदगी की ये हालत ना होती.

मित्रो,
इस घटना को भूल ना जाना
कुछ गुन सको तो गुनते जाना.
कुछ कर सको तो करना
ना कर सको तो ना करना
पर इतना जरुर करना
उस आदमी की तरह
अपनी जिंदगी से बेवफाई मत करना.
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कई दिनों से समय नहीं मिलने के कारण आ नहीं पाया था. पर ब्लॉग्गिंग के एक साल पूरे होने की खुशी और उत्साह को रोक नहीं पाया और आप सबके के लिए फ़िर हाजिर हुआ हूँ.

Saturday, August 30, 2008

आख़िर एक इंसान हूँ मैं


इथियोपिया के विख्यात कवि ओसोलन मोसावा की कविता.


रेत की नदी में चलते-चलते
दुखने लगे हैं पाँव
दूर है गाँव


कहाँ से लायें ऐसी नज़र
जो दिखाए
एक पेड़
बिना पत्तों वाला ही सही

कहाँ से लायें ऐसे कान
जो सुनाएं
एक गीत
बिना भाव वाला ही सही


कहाँ से लायें एक जुबान
जो करे
एक शिकायत
भले ही उसका जवाब न मिले


कहाँ से लायें ऐसी आंत
जिसे भूख न लगे
जो सिकुड़ी रहे
खाना न मांगे

सोचता हूँ
तो समझ में आता है
ऐसी नज़र, ऐसी आंत, ऐसा कान और ऐसी जुबान
कहीं नहीं मिलेगी
आख़िर एक इंसान हूँ मैं
....................................................................................................................
भावानुवाद: बालकिशन
चित्र : ट्रेवलएडवेंचर.कॉम से साभार

Saturday, August 23, 2008

हिंडोला

श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पुनीत पावन पर्व की पवित्र परम्परा का पालन करते हुए आपके समक्ष मेरे द्वारा सजाया गया हिंडोला (झांकी) प्रस्तुत कर रहा हूँ.

प्रथम पूज्य श्री गणेश की जय

जय बजरंगी जय हनुमान


बम-बम भोले. जय शिव शंकर
सबका मालिक एक है


यशोदा का नन्द लाला सारे जग का दुलारा है

सांवली सूरत है मोहिनी मूरत है.



मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो.

मैया मोरी मैंने ही माखन खायो

गुपचुप आवे है आवे माखन चुरावे है


मुरली बजाके मन हर्षावे है.

नटखट नन्द गोपाल.



गोपियों संग रास रचावे हैं.


राधे-राधे कृष्णा-कृष्णा

कृष्णा-कृष्णा राधे-राधे

आप सभी को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की ढेरों शुभकामनाएं

Monday, August 18, 2008

छुटके से ब्लागर रे....... तेरा दरद ना जाने कोय

ब्लोगर मीट ख़तम होने के बाद पता चलता है कि ब्लोगर मीट हो गयी। मेरी यह बात हाल ही में कोलकाता हुई मीट के सन्दर्भ में है. प्रत्यक्षा जी के साथ मुलाकात करने के बाद शिव ने फ़ोन करके बताया कि इस तरह की ब्लोगर मीट हुई है. उलाहना देने के अलावा और क्या कर सकते थे. एक बात और समझ में आयी कि छोटे ब्लोगर के साथ बड़े ब्लोगर ऐसा ही करते हैं. एक तरफ़ तो कमेन्ट नहीं देते और दूसरी तरफ़ बताते भी नहीं कि ऐसी कोई मीट होने वाली है. अब तो इस बात पर सोचना पड़ रहा है कि शिव को भी फ़ोन करके बताने की कोई ज़रूरत नहीं थी. मीट की रिपोर्ट पढ़ कर ही पता चल जाता. प्रियंकर भाई से तो ज्यादा शिकायत भी नहीं कर सकता. और असल धोखा तो गुरूजी (अजदक जी) ने दिया. अपन को कोई ख़बर ही नही मिली. वरना अपन भी प्रत्यक्षा जी के स्वागत में पलकें बिछा देते और अपनी एक अदद फोटो छपवा लेते.

हर समाज का अपना एक अलिखित ही सही लेकिन नियम ज़रूर होता है। ऐसे में ब्लाग समाज का भी एक नियम हो तो हर ब्लोगर को बड़ी सुविधा होगी. मैं तो कहूँगा कि अगर कोई ब्लोगर अपना शहर छोड़कर दूसरे शहर जाए तो फट से उस शहर के ब्लोगर को सूचित कर दे. ऐसे में ब्लोगर मीट में उस शहर के ब्लोगरों के रहने की संभावना बढ़ जायेगी. मेरा कहना है कि इस पुण्य कार्य के लिए ब्लोगवाणी और चिट्ठाजगत पर एक ब्लोगर यात्रा बोर्ड रहे जिसपर इस तरह की सूचनाएं हर हफ्ते प्रकाशित होती रहें. मैंने देखा है कि कुछ बड़े चिट्ठाकार जब किसी दूसरे शहर जाते हैं तो अपने ब्लॉग पर सूचना देते हैं. ऐसे ही कार्यक्रम अगर फीड अग्रीगेटर की साईट पर उपलब्ध हो जाए तो मुझ जैसे चिट्ठाकार के लिए बड़ी सुविधा हो जायेगी. कारण केवल इतना सा है कि ब्लोगर मीट के फोटो में हमारा चेहरा भी दिखायी देगा.

अगर ऐसा होगा तो हमें भी भविष्य में जेंटलमैन(?) की उपाधि मिल सकती है.

Sunday, August 10, 2008

प्रेमचंद के फटे जूते


आज परसाई जी की पुण्य तिथि है. उनको श्रद्धांजलि देते हुए उनके द्वरा लिखा ये व्यंग्य प्रस्तुत कर रहा हूँ.
आप इसे पढ़े.
परसाई जी और उनकी रचनाओं के बारे में और अधिक जानने के लिए आप यंहा, यंहा और यंहा जरुर पढ़े.
प्रेमचंद के फटे जूते
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प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं. सर पर किसी मोटे कपडे की टोपी, कुरता और धोती पहिने हैं. कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूंछे चहरे को भरा-भरा बतलाती है.
पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं. लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है. तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं.
दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है, जिसमे से अंगुली बाहर निकल आई है.
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है. सोचता हूँ- फोटो खिंचाने की अगर ये पोशाक है, तो पहनने की कैसे होगीं? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होगी - इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है. यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है.
मैं चहरे की तरफ़ देखता हूँ. क्या तुम्हे मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हे इसका जरा भी अहसास नहीं है? जरा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अंगुली ढक सकती है? मगर फ़िर भी तुम्हारे चहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब 'रेडी-प्लीज' कहा होगा, तब परम्परा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएं के तल में कंही पड़ी मुसकान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही 'क्लिक' करके फोटोग्राफर ने 'थैंक यू' कह दिया होगा. विचित्र है ये अधूरी मुसकान. यह मुसकान नहीं है, इसमे उपहास है, व्यंग्य है!
यह कैसा आदमी है, जो ख़ुद तो फटे जूते पहिने फोटो खिंचवा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है.फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहिन लेते या न खिंचाते. फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था! शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम 'अच्छा चल भई' कहकर बैठ गए होगे. मगर यह कितनी बड़ी 'ट्रेजडी' है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो. मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आंखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है.
तुम फोटो का महत्व नहीं समझते. समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते मांग लेते. लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं और मांगे की मोटर से बरात निकालते हैं. फोटो खिंचाने के लिए बीबी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही माँगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते. लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिंचाते है जिससे फोटो में खुशबू आ जाए. गंदे से गंदे आदमी की फोटो भी खुसबू देती है.
टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे! जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है. अब तो अच्छे जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती है. तुम भी जूते और टोपी के अनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे. यह विडम्बना मुझे इतनी तीव्रता से कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ. तुम महान कथाकार, उपन्यास सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में तुम्हारा जूता फटा हुआ है.
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है. यों ऊपर से अच्छा दिखता है. अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है. अंगूठा जमीन से घिसता है और पैनी गिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है.
पूरा तला गिर जायेगा, पूरा पंजा छिल जायेगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी. तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है. मेरी अंगुली ढकी है पर पंजा नीचे घिस रहा है. तुम परदे का महत्व नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहें है.
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहिने हो! मैं ऐसे नहीं पहिन सकता. फोटो तो जिंदगी भर इस तरह नहीं खिंचाऊं, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दें.
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुसकान मेरे हौसले पस्त कर देती है. क्या मतलब है इसका? कौन सी मुसकान है ये?
-- क्या होरी का गोदान हो गया?
-- क्या पूस की रात में सूअर हलकू का खेत चर गए?
-- क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डाक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?
नहीं मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया.
वही मुसकान मालूम होती है.
मैं तुम्हारा जूता फ़िर देखता हूँ. कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिया के तगादे से बचने के लिए मील-दो-मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं, घिस जाता है.
कुम्भनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था. उसे बड़ा पछतावा हुआ. उसने कहा-
'आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरी नाम'
और ऐसे बुलाकर देनेवालों के लिए कहा गया था- 'जिनके देखे दुःख उपजत है, तिनकों करबो परै सलाम!'चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं है. तुम्हारा जूता कैसे फट गया.
मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज को ठीकर मारते रहे हो. कोई चीज जो परत-दर-परत जमाती गई है, उसे शायद तमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया. कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आजमाया.
तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे. टीलों से समझौता भी तो हो जाता है. सभी नदिया पहाड़ थोड़े ही फोड़ती है, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है.
तुम समझौता कर नहीं सके. क्या तुम्हारी भी वही कमजोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही 'नेम-धरम' वाली कमजोरी? 'नेम-धरम' उसकी भी जंजीर थी. मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद 'नेम-धरम' तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी.
तुम्हारी यह पाँव की अंगुली मुझे संकेत करती सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अंगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूँ. तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझाता हूँ और यह व्यंग्य-मुसकान भी समझाता हूँ.
तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो. उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं. तुम कह रहे हो - मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो. तुम चलोगे कैसे?मैं समझता हूँ. मैं तुम्हारे फटे जुते की बात समझाता हूँ, अंगुली का इशारा समझता हूँ, तुम्हारी व्यंग्य-मुसकान समझता हूँ.
-------------------------------------- हरिशंकर परसाई

Friday, August 8, 2008

समीर भाई क्या ये आपके बचपन की तस्वीर है ?

इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा ( ख़बरदार! नक़ल ना कहें) यंहा से मिली है।
मुझे मिला है ताज - साल के सर्वश्रेष्ठ ब्लागेर का, बधाई दीजिये।

आज माफ़ कर दीजिये कमेन्ट नहीं कर पाऊंगा बहुत काम है।

बोलो बोलो टिपण्णी करोगे या नहीं?

आज किस बिषय पर लिखूँ बड़ी चिंता का विषय है ये?

टिपियाने की तैयारियां चल रही है भाइयों.

पसंद दे देना लेकिन इसपर टिप्पणी मत करना.

मैं हूँ आत्ममुग्ध ब्लॉगर. हजामत करके छोडूंगा.

समीर भाई क्या ये आपके बचपन की तस्वीर है?

और अंत में कुछ इसी तरह के विचार बहुत से ब्लोगर्स की तस्वीरें देख कर आते हैं। क्या उन्हें पोस्ट के माध्यम से व्यक्त कर सकता हूँ? आप की राय के बाद ही इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर सकूँगा।
आपकी अमूल्य राय की प्रतीक्षा में-
आपका
बालकिशन.









Tuesday, August 5, 2008

मुझे मत जलाओ!

दो बड़ी दर्दनाक और दुखद घटनाएँ घटी थी इस देश में एक नीलम हत्या काण्ड. नीलम एक घर की बहु थी और उसे उसके ससुराल वालों ने दहेज़ की लिए जला कर मारदिया था. दूसरी रूप कँवर हत्या काण्ड. शायद इसी से कुछ मिलती जुलती. नतीजा सिर्फ़ एक ही - स्त्री को जला दिया गया. उस समय और उसके बाद फर्क तो जरुर आया है स्त्रियों की जिंदगी में. लेकिन फ़िर भी यदा कदा इस प्रकार की घटनाएँ हमारे समाज में घटती ही रहती है. उस दौर में मैंने एक कविता लिखी थी आज वो ही पेश कर रहा हूँ.

मुझे मत जलाओ!

एक दिन कि बात है शान्ति की खोज में भटकता
मैं भूतों डेरे से गुजर रहा था
सहसा मैंने सुनी एक अबला की चित्कार
करुण स्वर में पुकार रही थी वो बारम्बार
मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ!

मैं दौड़ कर पंहुचा उस पार
कुछ समझा कुछ समझ नही पाया
करुण से भी करुण स्वर में
सुनी मैंने करुना की पुकार
मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ!

देखा उधर तो देखता ही रहगया एक बार
एक चिता थी जल रही
दूसरी को वे कर रहे थे जबरदस्ती तैयार
मैंने क्रोध से पूछा
ये तो मर गया पर ये किसलिए तैयार
एक बोला- यह उसकी पत्नी है
इसलिए इसे जलने का अधिकार
और ये जलने को तैयार
कुछ देर बाद ये जल जायेगी
फ़िर अमर....... कहलाएगी.

दूसरा बोला- जी कर भी क्या करेगी
कभी चुडैल, कभी डायन तो
कभी कुलभक्षानी के पहनेगी अलंकार
इसलिए जलना ही इसकी मुक्ति का आधार
और ये जलने को तैयार

तीसरा बोला- जलना तो इसकी किस्मत है
कभी दहेज़ के लिए जलेगी,
कभी सतीत्व की गरिमा पाकर
करेगी इस संसार पर उपकार
इसलिए ये जलने को तैयार.

क्रोध हवा हुआ भय मन में समाया
आत्मा काँप उठी बदन थरथराया
कुछ सोच ना सका, कुछ कह ना सका ,कुछ कर ना सका
एक कीडे की भांति रेंगता घर लौट आया.

अब तो शायद हर रोज सुनता हूँ ये चित्कार, ये पुकार
और सिर्फ़ सोचता भर हूँ कि
कंही कुछ खो सा गया है. कंही कुछ खो सा गया है. कंही कुछ खो सा गया है.

बालकिशन
१९८८

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अंत में गौरव से निवेदन है कि पिछली बातों को भुला दे. मैं भी चेष्टा करूँगा कि किसी की
कविता की पैरोडी करने से पहले हो सकेगा तो उनसे पूछ जरुर लूँ.

Thursday, July 31, 2008

खोज

पूरा जुलाई कविता करते हुए ही बीत गया. आपलोगों ने जिस प्यार और अपनेपन से हौसलाफजाई की उसकेलिए जितने भी धन्यवाद दूँ कम है. इसी प्यार और अपनेपन के कारण ही एक और कविता पेश कर रहा हूँ.
आशा ही नहीं पूर्ण विश्वाश है कि इस कविता को भी आपसबका वो ही प्यार मिलेगा.

बालकिशन की डायरी भाग - २
खोज

समय की शिला पर अंकित चिन्हों को नज़रंदाज कर
आगे बढ़ते चले जाते है हम.
कुछ दूर जाने पर वे धुंधले होते है
और अंत में कंही जाकर खो जाते है.
अज्ञानता में हम यही कहते नज़र आते है
कि इनकी जरुरत नहीं थी हमें
इनका मिटना ही बेहतर है
इसलिए ये मिट गए हैं.
पर हम ये नहीं समझ पातें है कि
ये मिट नहीं गए है, सिर्फ़ खोये भर है.
हम इन्हे फ़िर खोज लेंगे, फ़िर बना लेंगे.
लेकिन,
कौन खोजेगा उन्हें?
क्या तुम खोजोगे?
या फ़िर तुम खोजोगे?
नहीं कोई नहीं खोज सकता अकेले उन्हें
तुम सबको हम सबके साथ मिलकर खोजना होगा
उन्ही चिन्हों को, हमारे अपने चिन्हों को,
हमारे अपनों के चिन्हों को,
हमारे आदर्शों को.

बालकिशन
१३-११-१९८८

Wednesday, July 30, 2008

बालकिशन की डायरी भाग-१ सन १९८८

आज यूँही एक काफ़ी पुरानी डायरी पढ़ते हुए इन दो कविताओं पर नज़र टिक गई और फ़िर कई बार पढ़ डाला.
अहसास ये हुआ कि ये कवितायें आज भी कितनी प्रासंगिक है. आप भी पढ़ें.

(१)

ये क्या हो रहा है अपने वतन में
हिंसा का बाज़ार गर्म है
जाने किसका भय छाया है जन में
सच पर झूठ का परदा डालते हैं
आज हर कोई माहिर है इस फन में
ये क्या हो रहा है अपने वतन में

भाईचारे को हमने भुला दिया
इर्ष्या ने आज घर किया हमारे मन में
रौंद डाला इंसानियत को हमने
घाव किए मानवता के तन में
ये क्या हो रहा है अपने वतन में

सूरज की रौशनी काली पड़ गई
घिर गया भारत अंधड़ और तूफानों में
छेड़ डाला सीना इसका हमने
फर्क मिलाता नहीं राक्षस और इंसानों में
ये क्या हो रहा है अपने वतन में

बालकिशन
०१-०७-१९८८

(२)

जिंदगी में क्या है हमारी है आज
जिंदगी कंहा है हमारी आज.
कंही दहेज़ का दानव
कंही आतंकवाद का तांडव
जिंदगी हमारी आज कितनी सिमटी हुई है.
स्वार्थ हिंसा और झूठ में लिपटी हुई है.

कंही पर है बेरोजगारी
कंही पर गरीबी और भुखमरी.
जिंदगी में अब तो एक आग है हर तरफ़ हमारी
हर पहलु से इसके लपटें उठती हुई है
कंहा गाँधी कंहा शास्त्री
के आदर्श खो गए है आज.
भ्रष्टाचार और अन्धविश्वाश के काँटों से घायल
जिंदगी बेबस,बेदम और लाचार हो सिकुडी हुई है आज.

कंहा गया वो भाईचारा
कंहा गया ईमान हमारा
जिसकी कल्पना भी न उन्होंने की थी
उसी मोड़ पर खड़ी है जिंदगी हमारी आज.
क्या करे हम क्या ना करें
कंहा जाएँ हम कंहा ना जाएँ
आवो मिलकर पुननिर्माण करे उसका हम
हमारे ही हाथों जो बिगड़ी हुई है आज.

बालकिशन
२५-०३-१९८८

Monday, July 28, 2008

या फिर यहाँ केवल तुम्हारा शरीर रहता है?

वे बता रहे थे कि तुम्हें नौकरी नहीं मिली
इसलिए तुम आतंकवादी बन गए
लेकिन एक बात मेरी भी सुनो
उन्हें भी तो नौकरी नहीं मिली थी
जिन्हें तुमने मार डाला

तुम नहीं देख सके?
कि उन्हें भी नौकरी नहीं मिली थी
इसीलिए तो वे फल का ठेला लगाये खड़े थे
पचास रूपये कमाते और अपने बच्चों का पेट भरते
उनका पचास रुपया कमाना तुम्हें बर्दाश्त नहीं हुआ?

चलो, माना कि तुम्हारे पास काम नहीं है
लेकिन जरा यह भी तो सोचो कि;
इस मुल्क में न जाने कितनों के पास काम नहीं है
तो क्या सबके सब तुम्हारे जैसे आतंकवादी बन जाएँ?
नहीं, एक बार सोचना मेरी इस बात पर
और हाँ, कोई जवाब सूझे तो ज़रूर बताना

बम फोड़कर नौकरी तलाश रहे हो क्या?
तुम्हारे बम फोड़ने से जितने का नुकशान होता है
उस पूंजी से शायद हजारों को नौकरी मिलती
सुन रहे हो?
या फिर यह कहने की तैयारी कर रहे हो कि;
गाजा, कश्मीर और चेचेन्या में तुम्हें सताया जा रहा था
इसलिए तुमने बम फोड़ डाले

मैं कैसे मान लूँ कि;
तुम्हें वहां सताया गया
तुम तो यहाँ रहते हो, भारत में
या फिर यहाँ केवल तुम्हारा शरीर रहता है?

Friday, July 25, 2008

एक आहट रोज आए

आहट की आवाज़ सुनी
जैसे कह कह रहा हो;
मैं आ गया हूँ
आ गया हूँ तुम्हें डराने
तुम्हें एहसास दिलाने कि;
तुम अकेले नहीं हो
अकेले नहीं हो तुम
मैं भी तो हूँ
बस, आया था यही बताने

हाँ, आहट ही तो है
एक आहट सुख की
और एक आहट दुःख की
एक उसके उसके आने की
और एक उसके जाने की
एक उसे पाने की
एक सब लुट जाने की

आहटों की राह ताके
आहटों में मन है झांके
आहटों के साथ जीना
औ उन्ही के साथ मरना
आहटों का साथ हैं
आहटों का हाथ है

क्या पता क्या ले के आए
क्या पता क्या ले के जाए
फिर भी आँखें खोजती हैं
एक आहट जो सताए
साथ लाये ज़िंदगी या
साथ लेकर मौत आए
किंतु दिल बोला है करता
एक आहट रोज आए


बाल किशन
२५-०७-२००८
प्रातः ९:३१

Thursday, July 24, 2008

लगता है जैसे उम्र बढ़ती जा रही है

कल सबेरे
एक कविता लिख दी थी मैंने
तुम्हारी लिपस्टिक से
उसे लिखकर
दीवार पर चिपका दिया था
धूल से सनी दीवार ने
कागज़ को गन्दा कर दिया
लेकिन
मुझे चिंता उस कागज़ की नहीं
मुझे चिंता थी उन शब्दों की
जो
मैंने तुम्हारी लिपस्टिक से लिक्खे थे
मुझे चिंता थी
लिपस्टिक के उस रंग की
जो आसमानी नीला था
शाम को कागज़ पर हाथ फेरा
कागज़ गीला था
शायद तुम्हारे आंसुओं की बूँदें
कागज़ को गीला कर गई
और मेरी भावना
पीली पड़ने लगी
आंसुओं से धुली रात
गीली पड़ने लगी

क्या करूं?
और क्या है करने के लिए?
दोपहर तक जीता हूँ
मुई शाम आ जाती है
लगता है जैसे कह रही हो;
'चलो, तैयार हो जाओ
मरने के लिए'

दिल है
इसलिए यादें भी हैं
और इन्ही यादों ने
मौत का सामान
इकठ्ठा कर रक्खा है
बस रोज जीता हूँ
कविता लिखता हूँ
तुम्हारी लिपस्टिक से
लेकिन ये दीवार है कि;
हटती ही नहीं
लगता है जैसे उम्र बढ़ती जा रही है
जरा भी घटती नहीं

बाल किशन
२४-०८-२००८
प्रातः: ९:२१

Wednesday, July 23, 2008

अंतरात्मा की आवाज़

मैंने कहा;
"एक रोटी और नहीं खा सकूंगा"
वे बोलीं; "अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनो
और खा लो"
मैंने कहा "खाना तो पेट की आवाज़ पर निर्भर है"
वे बोलीं; "लेकिन वहां तो सब अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर खा रहे हैं
मैंने कहा; "उनकी अंतरात्मा पेट में बसती होगी
वे बोलीं; "काश कि तुम्हारी भी वहीँ बसती"

क्या करें
पेट तो बड़ा हो गया है
लेकिन वो तो उम्र का तकाजा है
हमारी इतनी कूबत कहाँ कि;
अंतरात्मा को वहां बसा दूँ
भगवान ने बड़ा जुलुम किया
हमारी भी अंतरात्मा ट्रांसफरेबल बनाते
ताकि हमें भी उसकी आवाज़ आती
और हम एक नहीं बल्कि दो रोटी ज्यादा खा पाते


बाल किशन
२३-०८-२००७
प्रातः ९:१९

Tuesday, July 22, 2008

तुम ऐसा लिखना जो सबकी समझ में आए

-तुम ऐसा लिखना जो सबकी समझ में आए.
-लेकिन मैं लिख नहीं सकता.
-तुम बोल तो सकते हो न?
-मैं बोलने की कोशिश की थी. लेकिन आवाज़ पेट से निकली.
-मुन्नू कह रहा था कि सबकुछ पापी पेट की वजह से है.
-पापी तो आंतें होती हैं. पेट तो बिल्कुल सीधा होता है.
-वो देखो तुम्हारे कुरते की कंधे पर नेवला चढ़ गया है.
-तुम चिंता मत करो. वो आस्तीन के सांपो को काट खायेगा.
-कहाँ जा रहे हो?
-चाकलेट खरीदने.
-चाकलेट मीठा होता है?
-नहीं, अब मिठास जाती रही.
-मूवी देखते-देखते सो गए?
-मैं सोते हुए जाग रहा हूँ.
-मूवी में समंदर है न.
-समंदर सूख चुका है. कल ग्लोबल वार्मिंग से एक धमाका हुआ था. इसलिए सूख गया.
-और मछलियाँ कहाँ गईं?
-मैंने उन्हें उड़ते हुए देखा.
-कमीज पहनी थी, मछलियों ने?
-कुरता पहन रखा था. लेकिन कुरते में बटन नहीं था.
-और टिटहरी कहाँ गई?
-टिटहरी उसी सूखे समंदर में समा गई.
-आज पालक की सब्जी खाई थी मैंने.
-तुम्हारी आवाज़ में हरियाली दिख रही है.
-लेकिन इस हरियाली में भी अमरुद पककर पीला हो गया है.
-अमरूद तो हरा ही अच्छा होता है न.
-अब तो आम हरे होते हैं.
-मैंने अपने किताब में एक आम छिपाकर रखा था. डब्लू खा गया.
-खाने की बातें अब आम हो गई हैं.
-हाँ, सच कहा तुमने. कल ही अखबार में देखा था.
-गावस्कर की स्ट्रेट ड्राइव देखी तुमने?
-कल तो उन्हें मैंने बीयर पीते देखा था.
-स्ट्रेट ड्राइव की खुशी मना रहे थे.
-और पापा?
-वे चूल्हे पर बैठे हाथ ताप रहे थे.
-चूल्हा बुझ गया होगा.
-हाथ बुझ गया. पाँव में उन्होंने एक अंगूठी पहन रखी थी.
-एक अंगूठी मेरी नाक में पहना दो न.
-तुम्हारी नाक बिल्कुल तोते के जैसी है.
-और तोता काला पड़ गया.
-काला तो घोड़ा था. बिक गया.
-हाँ, कल मैंने अखबार में पढा.
-अब तो अखबार भी बिकने लग गए.
-खरीदने का अरमान चाहिए. सब बिकता है.
-वो विज्ञापन देखा?
-हाँ, उसमें उस लड़की को देखा जो रो रही थी.
-वो तो लड़की की आँखें रो रही थीं.
-हाँ, रोते हुए लड़की प्यारी लग रही थी.
-मुझे वो पसंद है.
-और मैं?
-तुम तो बेहद पसंद हो.
-और मेरी चूडियाँ जो मैंने कान में पहन रखी हैं?
-चूडियाँ पसंद नहीं. मुझे बिंदी पसंद है.
-जो मैंने अपने गले पर लगा रखी है?
-नहीं जो तुमने अपने कानों में दाल रखी है.
-कालेज जाते हुए मैंने रास्ते पर घास देखी.
-हाँ मैंने भी देखी. तुमने उस घास में तिलचट्टे को देखा?
-हाँ, देखा. तिलचट्टा उछलकर मेरी जेब में बैठा.
-लेकिन तुम वो लिखना जो सबकी समझ में आए.
-लेकिन मुझे लिखना नहीं आता.
-बोलना तो आता है न.
-हाँ, लेकिन मेरी आवाज़ गले में अटक गई है.


- बालकिशन
२२.०७.२००८
प्रातः ९:३०

Saturday, July 12, 2008

अनामिका जी की कविता - चुटपुटिया बटन

मेरा भाई मुझे समझाकर कहता था - "जानती है पूनम -
तारे हैं चुटपुटिया बटन
रात के अंगरखे में टंके हुए!"
मेरी तरफ़ 'प्रेस' बटन को
चुटपुटिया बटन कहा जाता था,
क्योंकि 'चुट' से केवल एक बार 'पुट' बजकर
एक-दूसरे में समां जाते थे वे.

वे तभी तक होते थे काम के
जब तक उनका साथी
चारों खूंटों से बराबर
उनके बिल्कुल सामने रहे टंका हुआ!

ऊँच-नीच के दर्शन में उनका कोई विश्वास नहीं था!
बराबरी के वे कायल थे!
फँसते थे, न फँसाते थे - चुपचाप सट जाते थे.

मेरी तरफ़ प्रेस-बटन को चुटपुटिया बटन कहा जाता था,
लेकिन मेरी तरफ़ के लोग ख़ुद भी थे
चुटपुटिया बटन
'चुट' से 'पुट' बजकर सट जाने वाले.

इस शहर में लेकिन 'चुटपुटिया' नज़र ही नहीं आते-
सतपुतिया झिगुनी की तरह यहाँ एक सिरे से गायब हैं
चुटपुटिया जन और बटन

ब्लाऊज में भी दर्जी देते हैं टांक यहाँ वहां हुक ही हुक,
हर हुक के आगे विराजमान होता है फंदा
फंदे में फँसे हुए आपस में कितना सटेंगे-
कितना भी कीजिये जतन
'चुट' से 'पुट' नहीं बजेंगे

अनामिका जी के काव्य-संग्रह दूब-धान से साभार

Wednesday, June 18, 2008

पचासवीं पोस्ट कुछ ख़ास होनी चाहिए...इसलिए पुकारो मैराडोना को.

बहुत दिनों से महान अंतर्राष्ट्रीय कवियों की एक भी कविता पोस्ट नहीं की. आज इच्छा हुई कि एक कविता किसी महान कवि की पेश करूं. मेरी कवितायें पढ़कर आप सब ने जिस साहस और धैर्य का परिचय दिया है, उसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ.

ये कविता क्यूबा के महान कवि उजेल पास्त्रो की है. अपने बिस्तर पर लेटे इस महान कवि ने हाल में ये कविता कलमबद्ध की. आप भी पढ़िए.

ईख के खेत में नहीं उपजती है,
ये मंहगाई
न ही निकलती है
कानों तक पहनी गई टोपी के ऊपर से
किसी ने इसे नही देखा
नहीं देखा
कि ये मंहगाई उछल आई हो
सिगार के धुंए से बनने वाले छल्ले से

ये तो देन है उनकी
उस दयाहीन साम्राज्यवाद की
दुनियाँ को जिसने कर लिया है अगवा
जिसने मंहगा कर दिया बड़ा-पाव
जिसने आव देखा न ताव
बढ़ा दिया क्रूड आयल का भाव
डूब गई जिसकी वजह से
गरीबों की नाव

एक बार करो प्रण
एक बार चलो रण
पुकारो मैराडोना को
लूट लो चांदी-सोना को
एक बार कहो कि हो जाए नाश
टूट जाए साम्राज्यवाद का बाहुपाश
रहो चाहे दूर या रहो पास

जिसे है जरूरत
ढूढे मुहूरत
जाए काशी या जाए सूरत
जाए हवाना या फिर मकवाना
एक बार दे वचन कि;
कि प्राथमिकता है
इस साम्राज्यवाद को मिटाना
नहीं बच सकेगा
इसका ठिकाना
कोई उसे जाने
या हो अनजाना

पुनश्च:

कभी सोचा नहीं था कि चिट्ठाकारिता में इतना टिकूंगा कि पचास पोस्ट लिख डालूँगा. लेकिन जैसा कि कहा गया है, सत्य कभी-कभी कल्पना से ज्यादा आश्चर्यचकित कर देने वाला होता है.

ये मेरी पचासवीं पोस्ट है.

Saturday, June 14, 2008

पेश है लाइव मुशायरे.

एक तो बालकिशन ने सबको शायर बना दिया और सब है की उसी के पीछे पड़े है.
बहुत नाइंसाफी हो रही है ये. बालकिशन ने क्या कहा और क्या नही कहा वो बाद की बात है पर मुशायरों की बाढ़ आ गई है ब्लाग जगत मे.
खैर आप सब को क्या आप तो इन मुशायरे का आनंद उठाइए.
ये मुशायरा चल रहा है मिश्रा जी की और रोशन जी की कल की पोस्ट पर.
दृश्य एक :- .मिश्रा जी की पोस्ट से.
काकेश said...
देखिये जी आप ये मीर ग़ालिब करते करते हमारे केडीक़े साहब को क्यों भूल गये.चंद शेर मार कर भेजे हैं.

ये शेर चचा ग़ालिब ने भी मार लिये थे ओरिजनली केडीक़े साहब के हैं.

ये ना थी हमारी किस्मत,जरा ऐतबार होता
हम पोस्ट लिखते रहते, उन्हे इंतजार होता

कहते ना खुद को ग़ालिब ना मीर ही बुलाते
ज़ो तीर ही चलाते तो जिगर के पार होता

जो डायरी थी वो भी, अब मिल गयी है उनको
हम को मिल जो जाती तो बेड़ा-पार होता

अब मीर साहब वाले शेर देखें.

जो तू ही पोस्ट लिख कर बेज़ार होगा
तो हमको कुछ भी कहना दुश्वार होगा

कैसे लिखते है डेली डेली, सुबह वह पोस्ट
कहते हैं लोग हमसे, कोई व्यौपार होगा

दिन में भी जो ठेलते हैं कई कई पोस्ट
समझो कि वो तो कोई बीमार होगा.

June 13, 2008 9:32 PM
Ghost Buster said...
कुछ लोग कलम से शेर लिखते हैं तो कुछ गोली से शेर मारते हैं. आपने कलम से शेर को ढेर किया.

June 13, 2008 10:46 PM
anitakumar said...
हा हा शिव भाई मजा आ गया आप की पोस्ट का भी और काकेश जी की टिप्पणी का भी, इसे पढ़ मै तो असली शेर भी भूल रही हूँ अब तो ये काकेश जी के शेर घूमेगें दिमाग में।

June 14, 2008 12:12 AM
Lavanyam - Antarman said...
मीर ना हुए अमीर,
चचा गालिब की रुह
हुई पशेमाँ ..
क्या कलजुग आयो है!!
- लावण्या

June 14, 2008 12:52 AM
कमलेश 'बैरागी' said...
मीर के थे तीर और गालिब का भी था इक कमान
नाम लेकर इन्ही का चलती है कितनी ही दुकान

क्यों नहीं ये सोचते जो मीर-गालिब थे तो क्या
लिख दिया 'कमलेश' ने भी एक मोटा सा दीवान

मीर-गालिब ब्लॉग पर लिखते गजल की पोस्ट जो
गर न मिलती टिपण्णी तो लुट गया होता जहान

ये समझ लो ब्लागिंग में भी कितने गालिब-मीर हैं
सब मिले तो उठ गया है, ब्लॉग का ऊंचा मचान

है सदा 'रोशन' तुम्हीं से बुद्धि का दीपक यहाँ
और ऐसे दीपकों से जगमगाता है मकान

कह दिया 'कमलेश' ने भी बात जो मन में रही
और कहकर दे गया अपना भी छोटा सा निशान

---कमलेश 'बैरागी'

June 14, 2008 10:44 AM
काकेश said...
कमलेश जी को केडीके का सलाम

आपकी दोस्ती की खातिर कुछ फ़रमा रहा हूँ.

जिन्दगी से दो चार होइये साहब
मुई ब्लॉगिग में टैम ना खोइये साहब

टिप्पणी मिलती हैं उनको,तो ख़फा क्यों हैं
अपनी ग़जलों में यूं ना रोइये साहब

क्यूँ सुबौ सुबौ उठके पोस्ट करते हैं ज़नाब
चादर में मँह घुसाकर खूब सोइये साहब

पुरानी दोस्ती ऐसे न खोइए साहब
इज़ारबंद से बाहर न होइए साहब

June 14, 2008 11:41 AM
काकेश said...
शेर मुंआ मुँह से फिसल गया.ऐसे पढ़ें

क्यूँ सुबौ सुबौ उठके पोस्ट करते हैं ज़नाब
चादर में मुँह घुसाकर खूब सोइये साहब

एक और बोनस

क्या बदल लेंगे दुनिया लिख के ब्लॉग-पोस्ट
यह सोच के अपने होश ना खोइये साहब

June 14, 2008 11:47 AM
कमलेश 'बैरागी' said...
जनाब केडीके साहब को इस नाचीज का आदाब. चाँद अश-आर हैं. आपकी खिदमत में पेश कर रहा हूँ..

अब गजल की वाट लगने दीजिये
कुछ जरा मुझको भी कहने दीजिये

जो भी था सो कह दिया है आपने
जो बचा है उसको रहने दीजिये

क्यों भला रोकें जो गिरता है यहाँ
गजल के 'अस्तर' को ढहने दीजिये

मुंह ढके चादर में तो ही ठीक है
औ हवा ऊपर से बहने दीजिये

कह दिया 'कमलेश' ने भी दिल की बात
और गहे फिर से तो गहने दीजिये

June 14, 2008 12:05 PM
बाल किशन said...
बहुत जबरदस्त मुशायरा जम रहा है.
जमाये रहिये जी.
हम भी एक आध शेर लेकर थोडी देर में हाजिर होते हैं.

June 14, 2008 12:30 PM
नीरज गोस्वामी said...
मुशायरे में मेरा नंबर कब आएगा...ये लोग थमे तो कुछ हम भी कहें...अर्ज़ किया है...भाई बाल किशन हमें यूँ पीछे मत घसीटो यार....अमां एक आध तो शेर तो कहने दो...बड़ी दूर से आए हैं मियां...ये क्या माईक ही उठा के ले गए जनाब...अब शेर पढ़ें या चिल्लाएं? इन बाल किशन जी को समझाओ यार...कमलेश और काकेश भाई को कुछ नहीं कहते हमारे पीछे पड़े हैं..
नीरज

June 14, 2008 1:07 PM
कमलेश 'बैरागी' said...
अमां बाल किशन..मियां ये क्या कर रिये हो?..जनाब नीरज साहब को मुशायरे में कुछ पेश करने का मौका दो...म्येने सुना था एक ज़माना था जब दाग़ साहब से शाइर लोग जलते थे...म्येने तो सुना है कि जनाब असद साहब से भी शाइर लोग जलते थे...क्या कहा? असद कौन? लाहौलबिलाकुव्वत...चचा असद का नाम नहीं मालूम? कैसे नामाकूल इंसान हो तुम?...हाँ तो मैं कह रिया था कि असद उर्फ़ गालिब से भी लोग जलते थे...एक बार एक शाइर ने उनके शेर सुनकर कह दिया;

कलाम-ए-मीर समझे औ जुबान-ए-मीरजा समझे
मगर इनका कहा ये आप समझें, या ख़ुदा समझे

और आप तो ऐसे नामाकूल शाइर से भी आगे निकल गए...माईक लेकर ही भाग लिए..उर्दू शायरी में कला दिना कहेंगे हम इसे..जनाब नीरज साहब, हम आपके लिए नया माईक लेकर आते हैं.

June 14, 2008 1:18 PM
काकेश said...
ज़नाब आप ने कहा तो हम ग़ौर फ़रमा रहे हैं.आप भे फ़रमायें.

जो बचा है उस्को रहने दे रहे हैं
अंडे हुए थे 'रोशन',अपन से रहे हैं

कश्ती कहां से निकली,कहां पहुंच रही है
ये सोचते नहीं अपन तो बस खे रहे हैं

चांद निकलता था तब,अब चांद निकल गयी है
सर के बाल रो रोकर, दुआ दे रहे हैं

जो लिखते थे व्यंग्य,अब ग़जल लिख रहे हैं
वो जल रहे हैं फिर भी, मजे ले रहे हैं.

June 14, 2008 1:34 PM
रंजना said...
वाह वाह वाह,क्या बात है.जबरदस्त मुशायरा है.
कृपया चलने दीजिये,
हम दर्शक दीर्घा मे कृतार्थ हो रहे हैं
कहीं से तीर कहीं से गोले आ रहे हैं..

June 14, 2008 1:50 PM
कमलेश 'बैरागी' said...
जनाब नीरज साहब और जनाब केडीके साहब...गौर फरमाईये...जनाब बाल किशन...कान इधर दीजिये... अरे क्या करते हैं...कान उखाड़ कर नहीं देना है..मेरा मतलब सुनिए..

बड़ी कोशिश की गजल में व्यंग कर दूँ
लिख के कुछ व्यंग उनको दंग कर दूँ

जो लिखी ऐसी गजल भौचक्के हैं वो
मैंने ये सोचा उन्हें भी तंग कर दूँ

दिख रही हैं सडियल सी घर की दीवारें
आज सोचा उनको मैं ही रंग कर दूँ

और ख़ास तौर पर ये शेर सुनिए...अर्ज किया है..

वो थे, मैं था, और था 'रोशन' समा ये
दिल में आया आज ही मैं जंग कर दूँ.


दृश्य दो :- रोशन जी की पोस्ट से

कहां से आ गई दुनिया कहां, मगर देखो
कहां-कहां से अभी भी कारवां गुजरता है।
—————-
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी, हम दूर से भान लेते हैं।

Shiv Kumar Mishra on June 13th, 2008 at 5:36 am

राजेश जी,
ये शेर लिखने से अच्छा होता कि आप पोस्ट ही लिख देते. पोस्ट पढ़कर शायद आपकी बात समझ में आ जाती. शेर पढ़कर तो नहीं आई.

आपका फैन on June 13th, 2008 at 5:44 am

शेर तो सही लिखो यार।

आपके लिये दो लाइना

शेरो का अब बन्द करो लूज मोशन
कुछ तो ढंग का लिखो राजेश रोशन

Rajesh Roshan on June 13th, 2008 at 5:52 am

@आपका फैन

क्या मैंने जो शेर लिखा है, वो ग़लत है. जवाब मैं दे देता ह. नही है लेकिन फ़िर भी गलती बताने वाले को मेरे तरफ़ से पार्टी.

एक बात और बड़ा अच्छा शेर लिखा है, क्या तुक बंदी है. मोशन और रोशन. बेहतरीन. लेकिन अपनी इस उर्जा को आप किसी अच्छे जगह लगाते तो दाद देने वाले कई लोग होते. इन छोटी छोटी बातो से मैं नाहक परेशां नही होता आपका फैन जी

Dr.Anurag Arya on June 13th, 2008 at 9:01 am

सुबह से तीसरी पोस्ट है आज ….मीर ओर ग़ालिब पर …..उम्मीद है रात तक चौथी ना हो जाये..

समीर लाल on June 13th, 2008 at 9:43 am

सब मीर मीर कह रहे हैं तो वही देखने आया था. यहाँ तो मेरे लिखा है, मीर कहाँ.

Ghost Buster on June 13th, 2008 at 11:53 am

बधाई हो राजेश जी, हर तरफ़ आप का चर्चा है जहाँ से सुनिए.

Gyan Dutt Pandey on June 13th, 2008 at 12:02 pm

वाह! मीर भी “मेरे” हैं। और हम तो मीर तो हो न सके, हो गये - अनुभवी!
शिव कहते हैं, पोस्ट लिख देते। मेरा विचार है - कमेण्ट लिख देते!

neeraj on June 14th, 2008 at 2:01 am

समीर जी
मीर खोपोली में है…आप को तो मालूम ही है और फ़िर भी पूछ रहे हैं… देखिये न ये सब लोग हमें कहाँ कहाँ ढूंढ रहे हैं….राजेश जी और शिव जी ने हमें कितना मशहूर कर दिया है…धन्यवाद बंधुओ हमें गुमनामी के अंधेरे से बाहर निकलने के लिए.
नीरज

balkishan on June 14th, 2008 at 2:43 am

गालिब said.
मैं एक दिन क्या अनुपस्थित हुआ सब ने मेरा और मरी शायरी का मजाक उड़ना शुरू कर दिया.
अब नहीं करूँगा कभी ब्लाग्बजी.
आप सब से नाराज हो गया हूँ.

Thursday, June 12, 2008

रोज पूछता है मेरा बच्चा ये सवाल मुझको

फ़िर वही किस्से मंदिरों-मस्जिद के हवाओं में है
लगता है ये पुराना सा साल मुझको

खामोश जबां के ही सर बचते हैं यंहा सर कटने से पहले
ना जाने क्यूं ना आया ये ख्याल मुझको

आज फ़िर खाली हाथ चले आए आज फ़िर मेरा खिलौना नही लाये
रोज पूछता है मेरा बच्चा ये सवाल मुझको.

ना डर ना फरेब ना घात हो जंहा पे
ले चल मेरे यारा उस जँहा मे मुझको.

हर तरफ़ झूठ बेईमानी मक्कारी इस कदर है छाई
लगती है ये जिंदगी अब तो बवाल मुझको.

=====================================

नोट:
मैं शेर या गजल लिखने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, जानता हूँ की नहीं लिख सकता. सिर्फ़ अपने विचारों को शब्दों का जामा पहनाने भर की कोशिश है.

Friday, June 6, 2008

क्या ये चेहरा तुम्हारा है?


कभी कभी
या......
जब कभी
आईने के सामने खड़ा होता हूँ
देखने को चेहरा अपना
मुझे नहीं दिखता चेहरा अपना.
मुझे दिखते है कई चेहरे.
एक दूसरे मे गड़मगड़ चेहरे,
एक दूसरे पर हँसते चेहरे,
कुछ वीभत्स चेहरे,
कुछ विद्रूप चेहरे,
हर चेहरा हँसता मुझपर
जैसे कहता हो मुझसे......
खोज सको तो खोज लो
हम सब मे चेहरा अपना.
हर चेहरा दिखलाकर.....
आइना भी जैसे पूछता हो मुझसे
क्या ये चेहरा तुम्हारा है?
क्या ये चेहरा तुम्हारा है?
तुम भी सवाल करते हो....
क्यों देखते हो आईना तुम?
पर क्या करूँ
मुझे अपना चेहरा पहचानना है
ताकि मैं जवाब दे सकूं
जब भी आईना पूछे मुझसे
क्या ये चेहरा तुम्हारा है?
क्या ये चेहरा तुम्हारा है?

Thursday, June 5, 2008

क्यूं?


रे दुःख तू इतना हैरान परेशान क्यूं है
मेरे दिल के होते ढुढता दूसरा मकान क्यूं है

किसने तोडे मन्दिर किसने तोडी मस्जिदें
जो ऊपर बैठा देखता सब वो खुदा क्यूं है

सालता तो उसको भी होगा मेरा चुप रहना
उसकी बेवफाई मेरी चुप्पी का सबब क्यूं है

ख़बर आती है जब भी किसी के दीवाना होने की
निगाहें उठ जाती सबकी जाने उनकी तरफ क्यूं है

जो खंजर हुआ पैबस्त है सीने मे मेरे
उस पे निशां हाथ के मेरे दोस्तों के क्यूं है

हँसी की बात करती दुनिया सारी तू आंसू की
नाचीज तुझे ये शौक अजीब सा जाने क्यूं है

Wednesday, June 4, 2008

मेरे ब्लाग पर कैसे आई पोस्ट?

कल की पोस्ट मे लिखा था आपलोगों को बताऊंगा राज इस पोस्ट जवाब का.
ये करतूत है इन महाशय की.


रिश्ते मे मेरे भतीजे हैं. मुझसे ही ब्लॉग बनाने और हिन्दी टाइप करने सम्बन्धी जानकारी ली. और मेरे ब्लॉग पर ही हाथ साफ कर लिया.
जब कभी मे घर से ब्लोग्बाजी करता हूँ ये कुर्सी डालकर बगल में बैठ जाते हैं और बड़े ध्यान से सब देखते हैं और इसी तरह मेरा लाग इन आईडी और पासवर्ड मालूम कर लिया और फ़िर अपने ब्लॉग पर पहली पोस्ट देने से पहले एक प्रयोग मेरे ब्लॉग पर कर लिया.

इससे समस्या को सुलझाने मे आप सब ने भी मेरी मदद की.संजीत जी की बात मानकर हार्ड डिस्क फॉर्मेट करने की तयारी हो चुकी थी पर तभी सागर जी और कुश के कमेन्ट से ध्यान दूसरी तरफ गया.
और खोज-बीन करने से जो नतीजा निकला वो आप सबके सामने है.
===============================================

लीजिये नीरज जी का ये शेर पढिये.
======================
"अब के सावन मे ये शरारत मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़कर सारे शहर मे बरसात हुई."

Tuesday, June 3, 2008

जावेद अख्तर साहब की कलम से - १

कौन सा शे'र सुनाऊं मैं तुम्हे, सोचता हूँ
नया मुब्हम है बहुत और पुराना मुश्किल (उलझा हुआ)
==================================

ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए

==================================

हमको उठना तो मुहं अंधेरे था
लेकिन इक ख्वाब हमको घेरे था

==================================

सब का खुशी से फासला एक कदम है
हर घर मे बस एक ही कमरा कम है

===================================

इस शहर में जीने के अंदाज निराले हैं
होठों पर लतीफे हैं आवाज में छाले हैं

===================================

सब हवाएं ले गया मेरे समंदर की कोई
और मुझको एक कश्ती बादबानी दे गया

ये तीन शेर बहुत ही खास और मेरे दिल के करीब हैं.
===================================

आज की दुनिया मे जीने का करीना समझो (तरीका)
जो मिले प्यार से उन लोगों को जीना समझो (सीढ़ी)
==================================

वह शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे
अजीब बात हुई उसे भुलाने में

=================================

अपनी वजहें-बरबादी सुनिए तो मजे की है
जिंदगी से यूं खेले जैसे दूसरे की है

==================================


अगली पोस्ट मे खुलेगा रहस्य मेरे ब्लॉग पर पोस्ट कैसे आई.

Sunday, June 1, 2008

क्या हम इनसे कुछ सीख सकते हैं?

ये सच्ची घटना है कुछ बच्चों के बारे में जिन्हें हम मानसिक रूप से विकलांग कहते है.
हेदाराबाद मे ये एक खेल का मैदान था.
National Institute of mental Health ने एक दौड़ प्रतियोगिता आयोजित की थी.

आठ बच्चे दौड़ प्रतियोगिता मे भाग लेने के लिए ट्रेक पर खड़े थे.

* Ready! * Steady! * Bang!!!

जैसे ही बंदूक गरजी आठों ने दौड़ना शुरू किया.
मुश्किल से दस या पन्द्रह कदम दौड़ते ही एक छोटी बच्ची फिसली और गिर पड़ी. पाँव और हाथ छिल गए और वो दर्द से रोने लगी.
जब दुसरे सात बच्चों ने ये देखा और उसका रोने सुना वे रुक गए, एक पल को थमे और पीछे मुड़ गए और फ़िर दौड़ के उस छोटी बच्ची के पास पंहुचे.
फ़िर जो हुआ वो चमत्कार नहीं था पर..........
एक थोडी बड़ी लड़की ने उसे उठाया, सहलाया और एक पप्पी दी. फ़िर पूछा; "अब दर्द कुछ कम हुआ ना."
दो बच्चों ने उस छोटी बच्ची को मजबूती से पकड़ा, सातों ने एक दुसरे का हाथ पकड़कर एक साथ कदम बढ़ाते दौड़ना शुरू किया और एक साथ ही विजय रेखा पार की.

सारे ऑफिसर अवाक थे! दर्शको की तालियों की गुंज से मैदान भर गया.
कई आंखों मे आंसू थे.
शायद भगवान की भी आँखे भींगी थी.

क्या हम कुछ सीख सकते हैं इनसे.

समानता?
मानवता?
एकजुटता?

=====================================================
आभार
एस. के. मिश्रा जी (अपने ब्लॉग वाले नहीं) का.
जिन्होंने मेल द्वारा मुझे इस सच्ची घटना की जानकारी दी.

Saturday, May 31, 2008

ब्लागवाणी /चिट्ठाजगत - कृपया इस रहस्य को सुलझाए.

कल यानी दिनांक ३०-०५-०८ को सुबह नौ बजे के बाद से रात तकरीबन १० बजे के बीच मै नाहीं कंप्युटर पर बैठ सका और नाहीं कुछ लिख सका और नाहीं टिपण्णी कर सका. कहने का मतलब ये कि मैंने अपने ब्लॉग पर
log -in ही नही किया. फ़िर ये पोस्ट जवाब कैसे आई.

नहीं समझ पा रहा हूँ.

कोई इस रहस्य को सुलझा दे.

खैर.

पता चले या ना चले. उस गुमनाम मित्र के लिए मेरी तरफ़ से संदेश.

Friday, May 30, 2008

जवाब

जवाब एक ही है की 'हमको नही मालूम'

तुमको क्या मालूम

दुश्मन तो खुले-आम करते है दुश्मनी की बातें
दोस्त मगर कब क्या कर गुजरे तुमको क्या मालूम.

अगर पोंछने वाला कोई हो साथी तो
आंसुओं का मज़ा क्या है तुमको क्या मालूम.

अरे नादान सूरज चाँद सितारों की बातें करता है
आसमान मे कब बादल छा जाय तुमको क्या मालूम.

गैरों पे करम अपनों मे सितम करवा दे
ये कमबख्त इश्क क्या-क्या करवा दे तुमको क्या मालूम.

वो और होंगे खंजरो-नश्तर चाहिए कत्ल करने के लिए जिनको
तेरी आंखो ने कितनों को मार डाला तुमको क्या मालूम.

जन्नत खरीद ले तू सारी या खुदाई सारी
एक बच्चे की खुशी मे होता खुदा खुश तुमको क्या मालूम.

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बताएं:-
१) पान क्यों सड़ा?
२) घोडा क्यों अड़ा?
३) पाठ क्यों भुला?

(जवाब सिर्फ़ एक ही है.)

Thursday, May 29, 2008

एक रहस्य - एक सपना

रात........ आसमान से सुनहरी धूप के रथ पर सवार एक श्वेत, सुंदर परी मेरे घर के पास वाले कुएं की मुंडेर पर उतरी. मुझे आवाज दे देकर उसने जगाया और कभी मेरे बालों को सहलाती हुई कभी गुदगुदाती हुई हाथ पकड़कर मेरा नीले, तारों भरे आकाश मे उड़ने लगी.

जंगल, नदी, नाले, पर्वत, खेत सब पार करते हुए हम दोनों आकाश मे उड़ते फिरने लगे...........उसके साथ से मुझे असीम शान्ति और सुख मिल रहा था. रिम-झिम बारिश की बूंदों मे भीगते हम दोनों उड़ते रहे......उड़ते रहे...... फ़िर बादलों मे बने एक सुंदर,विशालकाय भव्य महल में हम उतरे. उस महल मे हम दोनों के अलावा कोई नही था. पर स्याह काली रात का अंधकार और काले बादलों से घिरा वो महल मुझे भीतर से डराने लगा तभी वो श्वेत, सुंदर परी मेरा हाथ अपने हाथो मे लेते हुए बोली डरो मत राजा ये मेरा ही महल है. पर यंहा मुझे क्रूर राक्षस ने बंदी बनाकर रखा है. रात मे जब वो सोता है तो मैं बाहर की दुनिया मे जाती हूँ. और एक दोस्त बनाती हूँ. शायद कोई दोस्त मुझे इस राक्षस से बचा सके........ वो सुबकने लगी ...... और फ़िर मेरा हाथ पकड़े-पकड़े ही बोली क्या तुम मुझे बचाओगे राजा? मैंने कहा मैं तुम्हे जरुर बचाऊँगा इस राक्षस से, मैं उसे मार डालूँगा पर ये सब बातें सिर्फ़ उसके मोह मे मेरे मुंह से निकल रही थी और कंही एक डरावना सा ख्याल भी मन मे अ रहा था कि वो राक्षस अभी आजाये तो मुझे निश्चय ही मार डालेगा. हम इसी तरह से बातें कर ही रहे थे कि यकायक जोरदार गर्ज़न सुनाई दी जैसे पहाड़ कि ऊँची चोटी से किसी ने बड़ी चट्टान धकेल दी हो, सुंदर परी घबरा गई, वो बोली तुम्हे जाना होगा मेरे राजा, क्रूर राक्षस के जागने का समय हो गया है वो तुम्हे मार डालेगा. इतना कहकर उसने मेरा हाथ पकड़ा और आसमान की ऊँचाइयों पर ले गई और बोली अलविदा मेरे राजा.......फ़िर मिलेंगे.......वो रो रही थी.............

मैं चीखा नहीं........नहीं.... ....तुम नहीं जा सकती इस तरह मझधार मे मुझे छोड़कर...... मैं इतने ऊंचाई से नीचे कैसे जाऊंगा, घर कैसे पहुंचूंगा, माँ राह तकेगी......पर वो नहीं मानी. उसने कहा नहीं राजा मुझे जाना ही होगा हो सका तो फ़िर मिलूंगी और उसने धीरे से मेरा हाथ छोड़ा और फ़िर आकाश की गहराइयों मे खो गई......... उस घड़ी लगा जैसे जिंदगी ने मेरा हाथ छोड़ दिया है......मैं ऊंचाई से गिरने लगा. लगा कि जैसे सब ख़त्म...... अब नहीं बच सकूँगा. मैंने सभालने की कोशिश की और फ़िर धीरे... धीरे..... संभलने लगा और ....... और...... फ़िर जैस जमीन पर चलता था वैसे ही आकाश मे चलने लगा. मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. उस घड़ी सुंदर परी का गम दिमाग से जाता रहा, मैं फ़िर आकाश की उन्चाईया छूने लगा.

बादलों ने मोटी मोटी जल की बूंदों से धरती को भिन्गोना शुरू कर दिया था. मुझे इतने ऊंचाई पर जाकर बादलों के साथ खेलकर असीम आनंद मिल रहा था सारे के सारे तारे मेरे इर्द-गिर्द थे मैं कभी तारों के बीच......... तो कभी बादलों के बीच....... आनंद अपनी चरम सीमा पर था. फ़िर मैंने सोचा की ऊपर से धरती कैसी दिखती है जाकर देखूं.
मैं थोड़ा नीचे आया तो ये क्या......... जल की जो बूंदे आकाश से गिर रही थी वो धरती पर पड़ते ही विशाल अंगारों का रूप धारण कर ले रही थी ...... आसमान के तारे भी आग का गोला बन बन कर धरती पर गिर रहे थे..... .... समूची धरती एक विशाल अग्नि कुंड बन चुकी थी......... इन अग्नि कुंड मे सब कुछ जल कर राख हो रहा था......चारों तरफ़ सिर्फ़ और सिर्फ़ आग थी.........

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मेरी पिछली पोस्ट पर ब्लोगर बंधुओं द्वारा की गई टिप्पणियों मे समस्या के हल खोजने के बजाय मुझे सांत्वना और समझौते के स्वर ही ज्यादा सुने दिए. ये शिकायत नहीं है. खैर प्रस्तुत समय के लिए मैंने इस सांत्वना मे ही समस्या का हल पाया है.
आप सबका धन्यवाद.

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वो देखो गम के ठीक पीछे खुशी खड़ी हमारा इंतज़ार कर रही है.

Tuesday, May 27, 2008

एक बहस की शुरुआत फ़िर से -- कृपया करें.

बहुत हो-हल्ला हो रहा है आजकल. ब्लॉग ये है, ब्लॉग वो है, ये होना चहिये, वो होना चाहिए, वो नहीं होना चाहिए . ब्लोगियर को ये लिखना चहिये, ये नहीं लिखना चाहिए आदि-आदि. कई एक तो एक-आध दिन परेशान भी दिखते हैं कि अपने ब्लॉग जगत मे ये क्या हो रहा है. कल-परसों शिवजी हो रहे थे आज समीर भाई परेशान दिख रहे हैं. कुश भी चिंतित है. और भी कई महानुभाव चिंतित हैं.

इन सब के मूल मे क्या होता है? दरअसल हो क्या रहा है कि गाहे-बगाहे कुछ एक विवाद किस्म के मसले खड़े होते हैं या यूं कहिये खड़े किए जाते हैं. उनपर पोस्ट लिखी जाती है अब चूँकि विवादास्पद पोस्ट पढी भी ज्यादा जाती है और कमेंट्स भी ज्यादा मिलते हैं तो लोग इनकी तरफ़ आकर्षित भी ज्यादा होते हैं. पर खतरनाक बात ये है कि इन पोस्ट और इन पर आने वाली टिप्पणियों मे जिस भाषा का इस्तेमाल होता है वो बहुतो को गले नहीं उतरती और उतरनी भी नहीं चाहिए. आख़िर हम सब जुड़े हैं कुछ कारणों से कोई अभिव्यक्ति की बात कर रहा है, कोई सृजन की बात कर रहा है, कोई मस्ती की बात कर रहा है. तो फ़िर ये अभद्रता कंहा से आगई. आप किसी से सहमत नहीं हैं तो विरोध प्रदर्शन के कई रास्ते है पर अभद्रता या फ़िर गुंडई तो कतई नही.

विवाद हो बहस भी हो खूब जम कर हो पर जिस स्तर पर हम उतर आते है वो गंदगी का पर्याय बन जाता है. आप पिछले छ महीने साल भर के ब्लोग्गिंग को ध्यान से देंखे तो पता चलेगा का कि इन विवाद की जड़ें सिर्फ़ आठ-दस ब्लोगों से ही निकलती है. और इनको बढावा देने मे कुछ तथाकथित बड़े ब्लोगियारों का हाथ होता है. जो ४-५ दिनों के अंतराल मे ही इस बिषवृक्ष को इतना बढ़ा देतें है कि कईयों का दम घुटने लगता है.

इस बीमारी से ब्लॉग जगत को बचाने के लिए हम सब को प्रयत्न करना होगा. जो जितना पुराना है, जितना वरिष्ठ है उसकी जिम्मेदारी उतनी ही अधिक होगी. सिर्फ़ एक - दो पोस्ट लिख कर अपनी पीडा व्यक्त कर आप अपने कर्तव्य की इतिश्री नही कर सकते. और नाही कोई तटस्थ रहकर कर सकता है क्योंकि :-

"जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध."

हमे बहुत सी बातों के बारे मे सोचना होगा जैसे:-

और क्या किया जाय कि इस तरह की बातों की पुनरावृति ना हो?
जो ब्लोगियर इस तरह की हरकतें करे उसके खिलाफ क्या कदम उठाएं जायं?
कैसे हम यंहा के वातावरण को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं?
आने वाले समय को हम क्या मुंह दिखायेंगे?


इन्ही सब बातों पर चर्चा के लिए मैंने ये शुरुआत करने की कोशिश की है इस अर्ज़ के साथ कि हर ब्लोगियर इस विषय को आगे बढ़ने के लिए अपने विचार एक पोस्ट के माध्यम से जरुर सब के सामने रखें.
आख़िर जब हम लोग घटिया विवाद के बिषवृक्ष को बढ़ने मे मददगार हो सकते है तो फ़िर ये तो हमारे अपने ब्लॉग जगत का मामला है. क्योंकि ये ब्लॉग जगत हम सबका है. इसे स्वच्छ और साफ रखना हम सबका कर्तव्य हो जाता है.


मुस्कुराते रहिये.

Sunday, May 25, 2008

"असफल साहित्यकारों का जमावड़ा -हिन्दी ब्लागिंग"

अपनी (अ) साहित्यिक जरूरतों और कुछ बेकार सी व्यस्तता के कारण कई दिनों या शायद कई महीनों बाद ब्लॉग पर वापस आना हुआ. बीच-बीच में कुछ कविता वगैरह ठेल दिया करता था. लेकिन आज राहत के साथ आए. राहत फतह अली खान के साथ नहीं. वो तो बेचारे तीन-चार दिन पहले ही पाकिस्तान वापस लौट चुके हैं. राहत से मेरा मतलब टाइम निकाल के. खैर, आते ही जिस बात ने मेरी नज़र अपनी तरफ़ खींच ली (जी हाँ, लगा जैसे रस्सी बांधकर खीच ली), वो थी साहित्यकार बनाम ब्लॉगर. बहुतों ने हाथ साफ कर लिया है. कई तो पूरी तरह से नहा भी चुके हैं. बोधि भाई, अजदक जी, प्रत्यक्षा जी, headmaster saab मसिजीवी, शिवजी और अभय जी और कई है जिन्होंने अपने घी होने के धर्म का सफलतापूर्वक निर्वाह किया और पिघल-पिघल आग में जा घुसे.काकेश जी, समीर भाई,ज्ञान भइया , दी ग्रेट पंगेबाज,नंदिनी जी , गौरव जी वगैरह ने भी इस मंहगाई के जमाने में टिपण्णी रुपी घी झोंक दिया.

वैसे इतने दिनों गायब रहकर मैंने ब्लागर्स की कुछ विशिष्ट प्रजातियों पर गहन शोध किए हैं और चाहता हूँ की नतीजा आपतक पहुँचा दूँ. और क्यों न पहुँचाऊँ? कौन सा सेंसर बोर्ड आदे आएगा इस काम में? आपको बता दूँ कि मेरे शोधानुसार कुल चार तरह के साहित्यकार और ब्लॉगर होते हैं.

एक तो वे साहित्यकार जो पाठकों या टिप्पणियों के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त होतें हैं. उनके पास ये पाठक और उनकी टिप्पणियां खुदबखुद पहुँच जाती है. और अगर ना भी पंहुचे तो उनकी अनुपस्थिति से बगैर प्रभावित हुए वे अपना लेखन जारी रखतें है. इस प्रजाति के साहित्यकार लगभग विलुप्त हो चुके है. और इनकी संख्या नगण्य हैं.

दूसरे प्रकार के वे ब्लोगर होते है जिन्हें पाठकों (और उपधियायों) और उनकी टिप्पणियों की कोई कमी नहीं महसूस होती है. इसके पीछे कारण ये बताया जाता है की ये स्वयं भी बहुत बड़े पाठक होते है और अपने ब्लॉगर भाइयों को कभी भी टिप्पणियों की कमी महसूस नहीं होने देते. इस प्रजाति के ब्लोगर बड़े निर्दोष प्रकार के होते है और बड़े ही निर्विकार भाव से अपनी टिपण्णी का खजाना लुटाते रहतें हैं. इनका मूल-मंत्र "सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय" होता है. खाकसार की गिनती भी चंद महीनों पहले तक इसी प्रजाति के ब्लोगरों मैं होती थी. और अब वो उसी रुतबे को वापिस हासिल करने को बेताब और कर्मरत है.

तीसरे प्रकार के वे साहित्यकार कम ब्लॉगर होते हैं जो किसी भी क्षेत्र मे कोई झंडा नहीं गाड़ सके हैं. इस प्रजाति के साहित्यकार/ब्लॉगर अपनी प्रजाति को लेकर दुविधा और संशय मे रहते हैं कि वे अपने आप को साहित्यकार माने या फ़िर एक ब्लॉगर. और यही दुविधा इनकी असफलता का कारण बनती है. ब्लागिंग ग्रह पर यह प्रजाति प्रचुर मात्रा मैं पाई जाती है. इनका लिखा भी बहुधा लोगों को समझ नहीं आता है. ये एक अलग विचार का मुद्दा बन सकता है कि इनका लिखा पाठको को न समझ मे आना इनकी कमी है या फ़िर पाठकों की. इस प्रजाति के प्रभाव के कारण ही ब्लागिंग ग्रह से बाहर के प्राणी यह कहने की हिमाकत करतें है कि "असफल साहित्यकारों का जमावड़ा -हिन्दी ब्लागिंग"

ब्लागरों कि चौथी प्रजाति बड़ी ही अजीब किस्म कि होती है. इन्हे ना साहित्यकार से कोई सरोकार है ना ब्लॉगर से. ये "स्वान्त सुखाय" लिखते है. जब मन हुआ कुछ लिख दिया और जब मन हुआ टिपिया दिया. इन्हे अपनी प्रजाति को लेकर कोई संदेह नही हैं. और ये शुरू से जानते हैं कि ये कंही भी कोई झंडा नहीं गाड़ सकते. नाचीज के अन्दर वर्तमान मे इसी प्रजाति के गुण मौजूद हैं और किसी तरह से इस प्रभाव से मुक्त होकर अपनी आप को सफल साहित्यकार या सफल ब्लॉगर बनाने की जुगाड़ मे है. इस सन्दर्भ मे सभी प्रजातियों के सुझावों का स्वागत हैं.

DISCLAIMER:-

किसी भी प्रकार के विवाद से बचने के लिए यंहा उदाहरणार्थ साहित्यकारों एवं ब्लागरों के नाम नही दिए गए हैं.
सभी प्रकार की प्रजातियों से अनुरोध हैं की शोध के परिणामों के अनुसार अपना मूल्यांकन कर लें. शोध पर आपकी टिप्पणियों का स्वागत हैं. टिप्पणियों मे अगर अपनी प्रजाति को स्पेसिफाई कर सकें तो आगामी शोधों के लिए ये एक अमूल्य धरोहर साबित होगी.

Tuesday, May 20, 2008

'उनकी' एक कविता

जिन्होंने भी परसाई जी का उपन्यास, रानी नागफनी की कहानी पढा है, उन्हें वह कवि जरूर याद होंगे जो कुँवर अस्तभान को कविता सुनाकर उनका मनोरंजन करना चाहते हैं. उन्ही कवि की एक कविता पढ़िए...

कल तक मैं समंदर था
स्थिर था
धरती को डुबोये था
एक दिन इच्छा हुई;
मैं आकाश में उड़ जाऊं
एक गौरैया की तरह

कभी सोचता;
'काश, कि मैं हिमालय पर बहता'
तो हिमालय को ख़ुद में डुबो लेता
किंतु हाय; ऐसा हो न सका

लेकिन ये कौन है
जिसने मुझे हिमालय से अलग कर रक्खा है?
ये कौन है
जो मुझे रोकता है आकाश में उड़ने से?
ये कौन है
जो मुझे रोकता है गौरैया बनने से

ये नीली व्हेल
ये शार्क
ये छोटी छोटी मछलियाँ
मेरी किस्मत में क्या यही हैं?
क्या मैं कभी हिमालय को नहीं डुबो सकूंगा?
कोई मुझे क्यों नहीं बताता?

जिसने भी मुझे रोक रक्खा है
उससे मेरी विनती है;
एक बार तो मौका दो
हिमालय को ख़ुद के अन्दर डुबोने का
गौरैया बनकर उड़ने का

एक बार मौका दो
कि मैं भी कश्मीर में बह जाऊं
वहाँ से हिमाचल होते हुए
दिल्ली तक पहुँच जाऊं

Tuesday, March 25, 2008

आपका नाम भी मूक-वधिर रजिस्टर में लिख दूँ?

पिछले महीने डॉक्टर ने मेरा ब्लॉग देखा और मुझे मूक-वधिर घोषित कर दिया. मैंने सोचा इन्होने मेरा कोई टेस्ट वेस्ट तो किया है नहीं तो फिर मेरा नाम मूक और वधिर रजिस्टर में क्यों डाला? शायद मेरी सोच भांप गए. बोले; "एक हिन्दी ब्लॉग के मालिक हो. उसके बावजूद गाजा में इसराईली दखलंदाजी की खिलाफत करते हुए पोस्ट नहीं लिखी तुमने. अब तुम्ही बताओ, तुम्हें और क्या कहूं मैं?"

मैंने सोचा इसराईली नीतियों के ख़िलाफ़ बोल देता तो मूक वधिर रजिस्टर में नाम तो नहीं जाता. फिर सोचा, लेकिन बोलने वालों की कमी है क्या? नेहरू, नासिर, टीटो ने क्या किया? बेचारे बोलते ही तो थे. यासिर अराफात भारत आते थे तो इंदिरा जी बोलती थीं. इंदिरा जी बाहर जाती थीं तो गुट निरपेक्ष सम्मेलनों में बोलती ही तो थीं. जुलियस न्येयेरेरे जी बोलते ही तो थे. लालू जी अराफात जी के अन्तिम संस्कार में गए थे. बोले ही तो थे. तो भइया, बोलने के लिए कुछ हैसियत भी तो चाहिए. हम अगर अंतराष्ट्रीय मुद्दों पर बोलेंगे तो प्रधानमंत्री किस मुद्दे पर बोलेंगे? विदेश मंत्री किस मुद्दे पर बोलेंगे? जेएनयू में खेलने विचरने वाले किस मुद्दे पर बोलेंगे? और हम तो जी अपने गली-मुहल्ले में होने वाले झगडों पर बोलेंगे. अपनी पहुँच उतनी ही है.

कल डॉक्टर साहब मिल गए. वही जिन्होंने मेरा नाम मूक वधिर रजिस्टर में दर्ज कर दिया था. मैंने उनसे पूछा; "क्या डॉक्टर साहब, आपने विरोध किया की नहीं?"

बोले; "हाँ हाँ, बिल्कुल किया. इसराईल को गालियाँ दी. और देखना हम लोग इसराईल की क्या हालत करते हैं."

मैंने कहा; "वो तो पिछले महीने की बात है. मैं तो इस महीने की बात कर रहा हूँ. मैं तो ये जानना चाहता था कि आपने चीन का विरोध किया कि नहीं? मैंने सुना है तिब्बत में बड़ी तबाही मचा रहे हैं चीन वाले."

मेरी बात सुनकर बोले; "अच्छा, अच्छा, चीन की बात कर रहे हो. लेकिन मेरा तो मानना है कि तिब्बत पहले से ही चीन का हिस्सा है."

"लेकिन इतिहास में तो लिखा गया है कि तिब्बत पर चीन ने हमला कर उसपर कब्जा कर लिया था. इसी वजह से दलाई लामा बेचारे भारत आए थे"; मैंने उनसे कहा.

मेरी बात सुनकर कुछ देर सोचते रहे. फिर बोले; "तो इसमें कौन सी नई बात है? अमेरिका ने इराक पर हमला नहीं किया क्या?"

उनकी बात सुनकर लगा जैसे अभी कहने वाले हैं कि 'अगर अमेरिका ने इराक पर हमला नहीं किया होता तो चीन तिब्बत को अपने कब्जे में नहीं लेता. लेकिन आख़िर ठहरे डॉक्टर. इतना जरूर मालूम है कि पहले चीन ने तिब्बत पर हमला कर उसे अपने कब्जे में लिया था.'

मैंने उनकी तरफ़ देखा. लगा कि एक बार पूछ लूँ कि आपका नाम उसी रजिस्टर में लिख दूँ?

Sunday, February 24, 2008

जवानी ओ दीवानी तू जिन्दाबाद.

३५-४० के आस-पास की उम्र भी एक खतरनाक पड़ाव हैं. उम्र के इस पड़ाव पर बहुत कुछ अधूरा सा लगता है. ये भी महसूस होता है कि बहुत कुछ पीछे छुटता जा रहा है. दिमाग अपने आप को अभी भी अपने आप को बुजुर्गों की श्रेणी मे मान लेने के लिए तैयार नहीं हैं. जो कि शायद सही भी है. लेकिन शरीर भी युवाओं का साथ देने से कतराने लगता है. ऊपर से अगर स्लिपडिस्क और स्पोंडेलाइसिस जैसी बीमारियों से दोस्ती हो जाय तो क्रियाकलापों मे जो लिमिटेशंश आजाती है वो आपकी मनःस्थिति को भी प्रभावित करती हैं. लेकिन कभी कभी कुछ ऐसे वाकयात हो जाते है जो बहुत सी दुविधा दूर करने मे मददगार साबित होतें है.

आज सुबह की ही बात है फैक्ट्री आते समय जब ऑटो-रिक्शा मे बैठा तो मेरे पहले से ४ लड़के-लड़कियां बैठे थे. उम्र सबकी लगभग १८ से २३ साल. तकरीबन १० मिनट का सफर था उस ऑटो मे हम सबका. उस दरमियान मेरा ध्यान अनायास ही उनकी बात- चित पर चला गया. मैंने जो कुछ सुना, महसूस किया वो कुछ इस प्रकार था.

बात-बात पर जोरदार हँसी जैसे सब कुछ उनके हंसने के लिए ही बना है या हो रहा है. जोर-जोर से बातें कर रहे थे सब जैसे उनके अलावा आस-पास कोई नहीं हो. सब के सब आपस मे ही खोये हुए, अपने चारो तरफ़ फैली दुनिया से बिल्कुल अनजान और बेखबर. मैंने अचानक एक बार उनकी तरफ़ उत्सुकतावश नज़र घुमा कर देखा तो अचानक ऑटो मे मरघट सी शान्ति छा गई. मुझे भी अपराध-बोध होने लगा कि क्यों मैंने इस ढंग से देखा उन्हें. फ़िर १-२ मिनट बाद सब कुछ पूर्ववत् चलने लगा. उनके इस अपार उर्जा के स्रोत के प्रति जो उन्हें इस कदर जीवंत रखती है, मुझे जिज्ञासा होने लगी.

इन १०-१२ मिनटों के दौरान हर विषय पर बातें की उन्होंने क्रिकेट, फिल्में, अपनी पढ़ाई के विषय आदि-आदि. लेकिन वो जोर-जोर से हँसना और ऊँची आवाज के साथ सब कुछ चलता रहा. कोई भी इस प्रकार उन लोगों को देखे तो ये सोच सकता है कि ये बड़े अभद्र बच्चे है. कोई उनकी प्रगतिशीलता पर सवाल खड़े कर सकता था कोई उनको पतनशील बता सकता था.

पर उनकी ये हरकतें मुझे १०-१५ साल पीछे ले गई. अचानक लगने लगा जैसे मैं भी उन चारों मे से ही हूँ. अपने समय की बहुत सी बातें याद आ गई. कैसे सब दोस्त यार मिलकर इसी तरह मस्ती करते थे. बिना मतलब के घंटों रास्तों पर घूमना, बात-बात पर खिलखिलाकर हँसना. स्कूल, कॉलेज के समय की गई बदमाशियां, शरारतें सब आंखो के सामने नाचने लगी.

सहसा ही रहस्य से परदा उठने लगा वही उर्जा मैं अपने आप मे भी महसूस करने लगा. लगा की सारी दुनिया को मुट्ठी मे बंद कर सकता हूँ. हौसला इस कदर बढ़ा हुआ लगता था की उस घड़ी दुनिया मे मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं है. ये उर्जा, ये हौसला प्रकृति का एक नायब तोहफा है युवाओं को, जवानों को और उनकी जवानी को.

मुझे राजेश खन्ना साहब की फ़िल्म का ये गाना याद आने लगा जो उन्होंने जूनियर महमूद के साथ गाया था.

" तेरे ही तो सर पे मुहब्बत का ताज है
जवानी ओ दीवानी तू जिन्दाबाद."

Saturday, February 23, 2008

समाज विकास (अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन) की सूचना के निहितार्थ.

समर्थन के लिए सभी ब्लोगर बंधुओं को धन्यवाद.
मेरी कल की पोस्ट "घूस देकर सब मैनेज करते हैं मारवाड़ी " पर अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन द्वारा जो कुछ कहा गया उसके जवाब मे कुछ कहना चाहूँगा. पहले आप सब उनकी ये टिपण्णी देखें.

समाज विकास said...
सम्मेलन द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ती:

पश्चिम बंगाल के भूमि सुधार मंत्री श्री अब्दूल रज्जाक मौल्ला की कथित टिप्पणी के विषय में अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष श्री सीताराम शर्मा ने मंत्री श्री मौल्ला से मालदह में फोन पर बातचीत कर अपना असंतोष एवं प्रतिवाद ज्ञापित किया। श्री मौल्ला ने उन्हें स्पष्ट किया कि उनकी कथित टिप्पणी को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है। श्री मौल्ला ने अपने वक्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि उन्होंने यह कहा था मारवाड़ी समुदाय मुख्यतः व्यवसाय में है अपने व्यवसाय को अच्छा ‘‘मैनेज’’ करना जानते हैं। श्री मौल्ला ने कहा इस ‘‘मैनेज’’ ‘शब्द को मीडिया द्वारा गलत रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। श्री मौल्ला ने श्री शर्मा से कहा कि वे मारवाड़ी समाज सहित सभी समाज की इज्जत करते हैं एवं जातिगत तथा साम्प्रदायिक आधारित टिप्पणी में विश्वास नहीं करते । उन्होंने कहा कि मेरा अभिप्राय मारवाड़ी समाज की भावना को ठेस पहुँचाना कतई नहीं था।

अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन, मंत्री महोदय के स्पष्टीकरण पर संतोष व्यक्त करते हुए ऐसे संवेदनशील विषय पर मंत्रियों द्वारा टिप्पणी में संयम एवं सावधानी बरतने की अपील करती है। सम्मेलन मारवाड़ी समाज से भी मंत्री महोदय के स्पष्टीकरण एवं ठेस नहीं पहुंचाने के वक्तव्य को सही भावना के साथ लेने की अपील करता है।

-शम्भु चौधरी (सहयोगी संपादक, समाज विकास),
दिनांक : 22.02.2008

सम्मेलन को कोटी-कोटी धन्यवाद.लेकिन एक बात आप सबकी नज़र मे लाना चाहता हूँ कि रज्जाक साहब इस मामले मे सफ़ेद झूठ बोल रहे है. उनके कथित भाषण की सीडी "प्रभात खबर - कोलकत्ता कार्यालय" मे उपलब्ध है. आप अवलोकन कर सकते हैं.
दूसरी बात जब से उनका ये बयान आया है एक-एक वाम पंथी नेता ये कहकर अपना पल्ला झाड़ रहे है कि उनके इस बयान से पार्टी का कोई लेना देना नहीं है. कल तो मुख्यमंत्री माननीय बुद्धदेव जी ने माफ़ी भी मांगी है.

मेरे इस स्पष्टीकरण का मकसद केवल इतना है कि " जब किसी की अस्मिता और अस्तित्व का सवाल हो इतनी उदारता अच्छी नही होती"
बाकी आप लोग सब गुणी और प्रतिष्टित व्यक्ति है. आप ज्यादा समझतें है.

Friday, February 22, 2008

घूस देकर सब मैनेज करते हैं मारवाड़ी

"जारा मारवाड़ी, तारा सब किछु पोयसा दिए मैनेज कोरे निच्चे, ऐरा मैनेज मास्टर. बांगालीरा किछु कोरते पारचे ना.
ओरा कोनो काज कोरते गेले 10 परसेंट मनी रेखे दाय. पोयसा दिए जे कोनो काज कोरिये नाय."
अर्थात
"जो मारवाड़ी हैं, वो सब कुछ पैसे देकर मैनेज कर लेते हैं. ये लोग मैनेज मास्टर हैं. बंगाली लोग कुछ नहीं कर पाते हैं. वो लोग कोई भी काम शुरू करते समय 10 परसेंट मनी रख देते हैं. पैसे देकर कोई भी काम करवा लेते हैं."

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अंतरराष्ट्रीय भाषा दिवस की पूर्व संध्या पर भाषा चेतना समिति के कार्यक्रम मे भाषण देते समय बंगाल के भूमि व भूमि सुधार मंत्री माननीय अब्दुल रज्जाक मोल्ला ने ये वक्तव्य दिया है. इस बयान के प्रकाश मे कई सवाल खड़े होते है. जिनका जवाब अगर माननीय मंत्री महोदय दे तो उनकी इस मारवाड़ी पर अपार कृपा होगी. सिर्फ़ और सिर्फ़ मारवाड़ीयों पर ये इल्जाम लगाने से पहले उन्होंने अपनी या अपनी जात ( यानी कि नेताओं की जात) के गिरेबान में झांक कर देखने कि कोशिश की है कि उनकी बदनीयती और दुष्कर्मों से देश के और खास कर बंगाल के क्या हालात है. सारे देश ने देखा नंदीग्राम मे हर पार्टी के नेताओं की करतूत. मासूम जनता की लाश पर इन्होने घिनौनी राजनीति की. बड़े बड़े उद्योग घरानों को जमीन देने के लिए क्या-क्या किया. टी.वी. पर आए दिन इन नेताओं की काली करतूतों के परदे फाश होते हैं. तहलका से लेकर आज तक सैकड़ों बार दिखाया जा चुका है. पर आप लोगों ने बेशर्मी का ऐसा लबादा ओढ़ रखा कि कोई भी हलचल आपकी चेतना को नही झकझोर सकती.

महोदय, घूस देकर मारवाड़ी ने तो जघन्य अपराध कर ही दिया है. लेकिन क्या आप ये बताने का या सोचने का कष्ट करेंगे कि घूस अगर मारवाड़ी ने दी है तो वो ली किसने? क्या किसी बंगाली या किसी मुसलमान या किसी और नान मारवाड़ी ने? और अगर ऐसा है तो क्या वो सही है? और अगर ग़लत है तो आपके श्री-मुख से इस विषय पर क्यों कोई वचनामृत नहीं उड़ेला गया?

जिस बंगाल की सामाजिक सरंचना और सांस्कृतिक धरोहर पर पूरे देश को नाज है वंहा आप महाराष्ट्र के और दक्षिण के अन्य नेताओं की तरह जातिवादी बयान देकर क्या सिद्ध करने मे लगें है? किस मुंह से आप इन नेताओं की आलोचना करते हैं? अपने आप को सर्वहारा वर्ग का नेता और रहनुमा मानते हैं?

घूस को इस देश की हवा, पानी, रोटी और कपड़ा के बाद पांचवी सबसे बड़ी जरुरत क्या मारवाडियों ने बनाया है? नहीं महोदय ये सब आप नेताओं और आपके दुमछल्लों अफसरों की करतूतें हैं. यंहा बच्चे के जन्म के प्रमाण पत्र लेने की बात हो या किसी के मृत्यु के प्रमाण पत्र की बात हो बगैर घूस के कुछ नहीं होता. यंहा अपना हक़ लेने के लिए घूस देनी पड़ती है. यंहा हर सरकारी विभाग का अफसर घूस लेकर ज्यादातर परिस्थितियों मे वही काम करता है जिस काम के लिए उसे नियुक्त किया गया है और जो काम उसे बगैर घूस के ही करना चाहिए. फ़िर चाहे वो कोई भी विभाग हो सेल्स टैक्स, इन्कम टैक्स, कार्पोरेशन, म्यूनिसिपैलिटी,या कोई भी विभाग.

महोदय क्या ये बताने का आप कष्ट करेंगे कि आपकी इस महत्वपूर्ण जानकारी का स्रोत क्या है कि घूस देकर केवल मारवाड़ी ही काम करवातें है? और दूसरो का हक़ मारकर बैठे हैं.

जिस कुकर्म के लिए पूरे देश के लोग जिम्मेदार है, समाज के हर वर्ग कि भागीदारी है वंहा अपने घिनौने राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए सिर्फ़ एक समुदाय के लोगों पर लांछन लगाने को जो निंदनीय कर्म आपने किया है उसके लिए इस देश की जनता आपको कभी माफ़ नहीं करेगी.

Tuesday, February 19, 2008

मनोहर भइया को बधाई दीजिये, वे भी पतित हो लिए

मनोहर भइया मिल गए. मैंने पूछा क्या हाल-चाल है. उन्होंने मुझे देखा और बड़े जोरों की साँस खीची. मैंने सोचा कोई लोचा हो गया लगता है. कुछ तो बात है जो मनोहर भइया सरीखा मानव भी बोलने की जगह साँसे खींच रहा है. अब बताईये, ऐसे विचार क्यों नहीं आयेंगे. अरे जिस आदमी को लोगों ने 'बोलतू' उपनाम दे रखा है, वो अगर बोलने की जगह साँस खींचे तो ये भाव तो मन में आयेंगे ही.

मैंने उनसे फिर वही सवाल किया; "क्या हाल-चाल है?"

बोले; "बहुत ख़राब. बहुत ख़राब, मतलब बहुते ख़राब."

उनकी बात सुनकर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ. मनोहर भइया का हाल भी ख़राब हो सकता है, इस बात पर विश्वास नहीं हुआ. फिर भी मैंने पूछा; "देखिये, हाल ख़राब है तो कोई बात नहीं. कभी-कभी ऐसा हो जाता है. लेकिन ये तो बताईये कि हुआ क्या है."

बोले; "आज शाम की बात है, हम छत पर खड़े होकर चिल्लाते रह गए कि हम पतित हैं. लेकिन कोई हमारी बात मानने के लिए तैयार नहीं है. अब तुम्ही बताओ, ऐसे में हाल ठीक कैसे रह सकता है."

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. कोई मनोहर भइया की बात पर विश्वास क्यों नहीं कर रहा. ऐसा क्यों हुआ. जब मनोहर भइया चिल्लाए तो आस-पास कितने आदमी थे. जितने होंगे, उनमें से कम से कम दो-चार तो इन्हें पतित मानते. वैसे भी आजतक ऐसा नहीं हुआ कि मनोहर भइया ने अपने बारे में जो कुछ कहा, उनके आस-पास के लोगों ने नहीं माना है. रेकॉर्ड है कि उन्होंने जब-जब जो-जो कहा है, लोगों ने माना है.

मुझे याद है, एक दिन उन्होंने कहा कि वे समाजवादी हैं, लोगों ने माना. एक दिन उन्होंने कहा कि लालू-मुलायम वगैरह समाजवादी नहीं रहे, लोगों ने माना. एक दिन उन्होंने कहा कि लालू, मुलायम वगैरह समाजवाद नहीं ला पायेंगे, वो भी लोगों ने माना. फिर एक दिन उन्होंने कहा कि देश में समाजवाद वही लायेंगे, तो भी लोगों ने माना. और तो और, उन्होंने जब ये फैसला किया कि अब ब्लॉग के जरिये ही समाजवाद लायेंगे तो भी लोगों ने उनकी बात मानी. लेकिन ऐसा क्या हुआ कि लोगों ने उनकी इस बात को मानने से इनकार कर दिया कि वे पतित हैं.

ऐसा सोचते हुए मैंने उनसे पूछा; "लेकिन आप पतित कब हुए? और क्यों हुए?"

बोले; "सब हो रहे थे तो हम भी हो लिए. तीन-चार दिन से देख रहा था, पतित होने की होड़ लगी हुई थी. मैंने सोचा कहीं मैं पीछे न हो जाऊं, इसलिए तुरत-फुरत फैसला करके मैं भी पतित हो लिया."

मैंने पूछा; " लेकिन जब आपने अपने पतित होने की घोषणा की, उस समय कितने लोगों ने आपकी इस घोषणा को सुना?"

बोले; "क्या बाल किशन, किस तरह का सवाल है तुम्हारा. अरे भाई समाजवादी हूँ, जाहिर आस-पास पूरी भीड़ होगी. तुम्हें क्या लगा, आस-पास क्या दो-चार लोग थे? ऐसे विचार दिमाग से निकाल दो. कम से कम तीन-चार सौ लोगों की भीड़ थी. भाई, समाजवादी हूँ, मजाक है क्या?"

मुझे अपनी सोच पर अफसोस हुआ. मुझे लगा था सचमुच में दो-चार लोग ही होंगे. फिर मैंने उनसे कहा; "लेकिन ये बात तो वास्तव में ठीक नहीं हुई. इतने सारे लोगों ने आपको पतित नहीं माना, ये तो खतरे की घंटी है मनोहर भइया. कुछ कीजिये कि लोगों को विश्वास हो कि आप पतित हैं."

वे मेरी बात सुनकर सोचते रहे. फिर अचानक यूरेका यूरेका चिल्लाने लगे. मैंने पूछा; "क्या हुआ? कारण समझ में आया क्या?"

बोले; "धत् तेरी. मैं भी रह गया बेवकूफ ही. अभी मुझे समझ में आ गया कि लोग मुझे पतित क्यों नहीं समझ रहे."

मेरी उत्सुकता बढ़ गई. मैं तुरंत जानना चाहता था कि उनकी समझ में क्या आया. मैंने उनसे कहा; "बताईये, बताईये, ऐसा क्यों हुआ?"

बोले; "मैं कल ही कहीं पढ़ रहा था कि अब पतनशीलता का असली मतलब प्रगतिशीलता है. ठीक है, समझ में आ गया कि लोग मुझे पतनशील क्यों नहीं मान रहे. वे सोच रहे हैं कि पतनशील होकर मेरी गिनती तो प्रगतिशील लोगों में होने लगेगी. मैं भी रहा बौड़म का बौड़म. तुम्ही सोचो, कौन समाजवादी को प्रगतिशील देखना चाहेगा."

मैं उनकी बात सुनकर दंग रह गया. ये सोचते हुए कि लोग कैसे-कैसे दो विपरीत शब्दों के एक ही अर्थ साबित कर देते हैं. मैं उनसे ये कहते हुए चला आया कि; "लोग केवल बोलने से नहीं मानेगे. आप एक काम कीजिये. आप अपने ब्लॉग पर एक हलफनामा पोस्ट कर दीजिये कि आप सचमुच पतित हो गए हैं."

Saturday, February 16, 2008

भगवान शिव की तीसरी आँख और मेरी ब्लागिंग पर ख़तरा

आज स्टार न्यूज़ ने सुबह-सुबह ख़बर दी कि भगवान शिव की तीसरी आंख खुल चुकी है. इस बात पर चिंता भी जताई कि प्रलय आने का चांस है. भगवान शिव की तीसरी आँख खुलने को लेकर जब प्रोग्राम शुरू हुआ तो कमेंट्री के साथ-साथ कुछ भीषण दृश्य एक साथ मिलाकर दिखाए गए. इन दृश्यों में कहीं इमारतें गिर रही थी तो कहीं ज्वालामुखी फूट रहे थे. कहीं भूकंप आ रहा था तो कहीं सूनामी. इन दृश्यों को एक साथ मिक्स करके भयावह टेलीविजन प्रोग्राम तैयार किया गया था.

देखकर हम तो डर गए. सबसे पहला ख़याल जो दिमाग में आया वह ये था कि; 'तब तो ब्लॉग भी नहीं लिख पायेंगे क्योंकि प्रलय आने से ब्लॉग भी प्रलय का शिकार हो जायेगा.' जब प्रोग्राम कुछ मिनट चला तो पता चला कि ये भगवान की आंख नहीं बल्कि अन्तरिक्ष में करोड़ों कोस दूर किसी तारे के पैदा होने से जो तस्वीर उभरी है उसकी बात हो रही है. असल में तस्वीर में जो चित्र उभरा वह आँख के आकार का था और बीच में नेबूला हेलिक्स तारा देखा जा सकता था. स्पेस स्टेशन पर रखे गए कैमरे ने यह तस्वीर उतारी थी. ये भी पता चला कि ऐसा होता ही रहता है, मतलब तारे-सितारे बनते रहते हैं. ये कोई ने बात नहीं है. सुनकर थोड़ी राहत मिली. मन में लाऊडली खुश हो लिए. सबसे ज्यादा खुशी इस बात की थी कि; 'चिंता न करो, ब्लॉग लेखन चलेगा.'
प्रलय नहीं आएगी, जब इस बात से कन्फर्म हो लिए तो फिर बिना डरे हुए पूरा प्रोग्राम देखा. देखकर संतोष हुआ कि; 'चलो बहुत दिनों से कोई हारर फ़िल्म नहीं देखी थी सो आज देख ली. टेलीविजन पर बैकग्राऊंड से आती हुई डरावनी आवाज़ के प्रभाव को कम करने के लिए परदे पर एक न्यूज़ एंकर भी थी जो अपनी मीठी आवाज़ से परदे की पीछे से आ रही डरावनी आवाज़ के असर को कम कर रही थी. इस न्यूज़ एंकर की कृपा से डर कभी-कभी हँसी में कनवर्ट हो जा रहा था. कुल मिलाकर आनंद आया. आज की सुबह मनोरंजन के लिहाज से अच्छी रही.
इसी बात पर एक ताज़ी कविता पढिये. सूचना दी जाती है कि कविता मैंने ही लिखी है. ये किसी इंटरनेशनल कवि की कविता का अनुवाद नहीं है.

बदलते समय की निशानी तो देखो
बदलते समय की कहानी तो देखो
कि करतूत से अपनी कर दे चकित जो
ये इंसा की ताज़ी रवानी तो देखो

जला दे बुझा दे, बुझा कर जला दे
हो दीपक या बत्ती या दारू की भट्टी
मगर क्या करेंगे चला ही गया है
शरम का इन आंखों से पानी तो देखो

वही खुश जो ख़ुद को समझते हैं राजा
कभी न जगेंगे कि देखें किसी को
कि राखों पर हमरी मनाते हैं खुशियाँ
ये कैसी है इनकी शैतानी तो देखो

बस. और तुकबंदी नहीं कर पा रहा हूँ, इसलिए कविता यहीं ख़त्म.

Friday, February 15, 2008

पप्पू यादव जी, ऊंची अदालतों में जाईयेगा तो नारे ऊंचे लोगों से लिखवाईयेगा

जेल का फाटक टूटेगा, पप्पू यादव छूटेगा. ये नारा तो लगा लेकिन जैसे आजतक बाकी के नारे काम नहीं कर सके वैसे ही इस नारे ने भी काम नहीं किया. फाटक नहीं टूटा. टूटे तो यादव जी. सुना कल रो रहे थे. बोले; "जज साहेब, हम आपका फैसला भगवान् का फैसला मानते हैं लेकिन एक बात बताय देते हैं जो आपको भी नहीं मालूम, और ऊ बात इतनी सी है कि हम निर्दोष हूँ."

जज साहब भी यादव जी की नजर में भगवान् बन गए. कम से कम इस फैसले की वजह से. जज साहब ने भी भगवान् का फ़र्ज़ निभाते हुए कह डाला; "हम भी आपकी बात समझते हैं लेकिन सुबूत वगैरह आपके ख़िलाफ़ जाते है. कम से कम मेरी नजरों में तो ऐसा ही है. यही सुबूत लेकर आप ऊंचे कोर्ट में जाईयेगा. हो सकता है वहाँ के भगवान् आपकी बात मान लें."

जायेंगे. ऊचे कोर्ट में भी जायेंगे ही. ऊंची कोर्ट बनी ही इसीलिए है कि यादव जी टाइप लोग वहाँ जा सकें. ऊंची अदालतें हैं तो ऊंचे वकील भी हैं. वही लोग कुछ करेंगे. तब तक यादव जी के पास टाइम है. लेकिन मेरी उनको एक सलाह है. इस बार नारा लिखने के लिए भी ऊंचे लोगों को चुने. ये पार्टी के छुटभैये कार्यकर्त्ता, जी हाँ कार्यकर्ता भी छुटभैये होते हैं, केवल नेता ही नहीं, नारा लिखेंगे तो फाटक का टूटना ज़रा मुश्किल है. सामाजिक न्याय दिलाने वाले नेता हैं तो बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी हैं. उनमें से किसी को पकड़ें, शायद नारा काम कर जाए.

इसी बात पर मेरी एक कविता सुन लीजिये, सॉरी पढ़ लीजिये. इंटरनेशनल कवियों की कवितायें कब तक ठेलूँगा? इस तरह से तो मेरे अन्दर के कवि की लेखनी पर गर्दा जम जायेगा.

कितने अच्छे दिन थे, कसकर जब हुकूमत हाथ में
वे फिरा करते थे लेकर गुंडे चमचे साथ में
घूमा फिर चक्का समय का, हाथ खाली हो गया
जो बना फिरता था नेता अब मवाली हो गया

मिल गई उनको सजा लेकिन कहें; 'निर्दोष हैं'
जिनको कहते लालू यादव, 'आजके ये बोस हैं'
जिनकी करतूतों से डर कर लोग सारे त्रस्त थे
कल उन्हें देखा सभी ने, रोने में वे व्यस्त थे

देखिये कैसा चला चक्कर समय का आज है
मिल गई उनको सजा हाथों में जिनके राज है
पर अदालत का ये निर्णय पूरा माना जायेगा
उच्च न्यायालय भी इनको जब सजा दिलवाएगा

अरे वाह..भइया शिव कुमार जी, देख लीजिये. तुकबंदी हम भी कर सकता हूं.पचीस ग्राम ही सही....:-)

Thursday, February 14, 2008

कुछ उनकी, कुछ हमारी और कुछ क्रांति की...

क्या कहा, बड़े दिन के बाद आया. अरे भइया आया, यही क्या कम है. ओह, सॉरी सॉरी, आप अपने आने की बात कर रहे हैं. मैंने सोचा मेरे आने की. कोई बात नहीं. अब आए हैं तो एक ठू (थू नहीं) टिपण्णी भी दे दीजिये. अरे चिंता नहीं न करें, हम काल आपके ब्लागवा पर जाकर उतार आयेंगे. नहीं नहीं, ऐसा मत सोचिये, भड़ास नहीं, मैं टिपण्णी की बात कर रहा हूँ.

अब देखिये न, टिपण्णी की जरूरत तो आजकल उन्हें भी महसूस हो रही है. क्या? आपको मेरे कहने पर भरोसा नहीं है? इसका मतलब आपने हाल ही में उनकी तमाम पोस्ट नहीं देखी. होता है जी, होता है. ऐसा ही होता है. एक समय आता है जब उनको भी ख़ुद के ऊपर डाऊट हो जाता है और वे भी भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं. लेकिन भीड़ में पहुंचकर चिल्लाते भी हैं कि हे टुच्चों, मुझे अपना हिस्सा समझने की भूल मत करना. देख नहीं रहे, मेरी कमीज का रंग तुम लोगों से पूरी तरह से अलग है. दो-चार बार चिल्लायेंगे. लेकिन ज्यादा चिल्लाने पर भीड़ कमीज फाड़ डालेगी है. बस, थोड़े दिनों का बदलाव अपनी जगह पहुँच जायेगा. एक-दो महीने के बाद फिर से दोहराएंगे.

कन्फ्यूजन से उबरना, मतलब सोच का अंत. इसलिए, कन्फ्यूजन बना रहे, यही मूल है सारी बातों का. ब्लागिंग का भी. विचारधारा का भी. कहते हैं कन्फ्यूसियस के रास्ते पर चलते हैं, नहीं तो जीवन में पर्याप्त मात्रा में कन्फ्यूजन नहीं रहेगा.

इसी बात पर ये कविता पढिये. निकारागुआ के महान कवि स्टीवेन ह्वाईट की कविता है.

किसे कहें क्रांति?
उसे, जो तुम ले आए
या फिर उसे,
जो तुम नहीं ला सके

किसे कहें क्रांति?
उसे, जो तुम्हारी सोच में कैद है
या फिर उसे,
जो तुम्हारी करतूतों में दिखती है

किसे कहें क्रांति?
उसे, जिसको तुम कहते हो
या फिर उसे,
जो हमने समझी है

समय मिले तो सोचना
कर सको, तो फैसला करना और;
क्रांति ले आना
हम उसकी रक्षा करेंगे

Wednesday, January 30, 2008

धन्यवाद है.......

मेरी पिछली पोस्ट में मैंने सूडान की महान कवियित्री, शियामा आली की एक कविता पोस्ट की. कविता बहुत सारे साथियों को अच्छी लगी. इसी कड़ी में प्रस्तुत है इराक की मशहूर कवियित्री नजीक अल-मलाईका की एक कविता.


धन्यवाद है उन्हें
इसलिए कि;
उन्होंने कबीले बनाए
लेकिन
मर्दों के कबीले नहीं बनाए

धन्यवाद उनको भी
इसलिए कि;
उन्होंने कभी जिद नहीं की
कभी जिद नहीं की
कि;
अपना कबीला बनायें

धन्यवाद उस सोच को
उस सोच को
जिसने कबीले स्वीकार किए
लेकिन;
अलग-अलग नहीं

मेरा धन्यवाद है
उस मानवता को भी
जो बनी तो है दोनों से
लेकिन जिसने सीख दी
कि;
अपने जैसों को मान दिया
तो बहुत बड़ी बात नहीं
बात तो तब बने
जब उन्हें भी मान दें
जो अपने जैसे नहीं

Monday, January 28, 2008

सूडान की महान कवियित्री शियामा आली की एक कविता.


प्रस्तुत है सूडान की महान कवियित्री शियामा आली की एक कविता.

तुम मानव हो, हम भी हैं
तुम्हारे अन्दर खून है
और हमारे अन्दर भी
तो क्यों बहाते हो इसे

हवा की रफ़्तार तेज है
इसमें प्यार बहाकर देखो
हो सकता है;
उसमें धूल के कण मिल जाएँ
लेकिन प्यार बहेगा जरूर

और जब यही प्यार
मिलेगा किसी से
तो जरूर बताएगा कि;
हमारे अन्दर
धूल मिल सकती है
लेकिन इसमें
खून नहीं मिला
इसलिए;
हमें अपने पास रखो

Saturday, January 12, 2008

मनोहर भैया का निन्दारस

मनोहर भैया दुखी टाइप दिख रहे थे. मुझे देखते ही बोले; "हिन्दी ब्लागिंग की दुनिया जैसे गंदी दुनिया कहीं नहीं है. कैसे-कैसे लोग रहते हैं इसमें."

मैंने कहा; "मनोहर भैया, हिन्दी ब्लागिंग की दुनियाँ तो उसी दुनियाँ में है, जिसमें हम और आप रहते हैं. वैसे अब तो आप भी इसी दुनियाँ का हिस्सा हैं. काहे नाराज़ हैं इतना?"

बोले; "नाराज नहीं होंगे तो और क्या होंगे? पुरस्कार की घोषणा हो गई. क्या ज़रूरत थी ऐसे फालतू पुरस्कारों की? इन पुरस्कारों से क्या मिलने वाला?"

मैंने कहा; "भैया, पुरस्कारों का चलन तो सब जगह है. तो फिर ब्लागिंग में भी हो ही सकता है. और फिर आप इतने परेशान क्यों हैं?"

मनोहर भैया ने मुझे नाराज नजरों से देखा. लगा जैसे मुझसे समर्थन की आशा लगाए बैठे थे और न मिलने पर नाराज हो लिए. फिर बोले; "हम समाजवादी हैं. हमारा जीवन-दर्शन ही नाराजगी पर टिका है. हम नाराज नहीं होंगे तो और कौन होगा?"
"लेकिन भैया, हर बात पर तो नाराज नहीं हुआ जा सकता न. किसी को पुरस्कार मिला तो उसे और अच्छा लिखने की प्रेरणा मिलेगी"; मैंने उन्हें समझाते हुए कहा.

मेरी बात सुनकर और बमक गए. बोले; "सृजनात्मक कार्य नहीं होता इस ब्लागिंग के जरिये. केवल पुरस्कारों से क्या होने वाला?"

मुझे उनकी बात अजीब लगी. मैंने कहा; "मनोहर भैया, अब तो आपका भी ब्लॉग है. आप बतायें, आपने कितनी पोस्ट लिखी जिनमें सृजनात्मक कार्य दिखाई देता है. आपने ख़ुद अभी तक सात पोस्ट लिखी है. उसमें से तीन पोस्ट केवल ब्लागिंग और ब्लॉगर को गरियाने के लिए लिखी. बाकी दो में ब्लागरों के लेख को कचरा बताया. एक में पुरस्कारों की निंदा कर डाली. आपकी नज़र में क्या निंदा ही सृजनात्मक कार्य है?"

मेरी बात सुनकर भड़क गए. बोले; "मैंने तो केवल आईना दिखाया है. जो देखे उसका भी भला और जो न देखे उसका भी. लेकिन मेरी बात सुन लो तुम. इसी तरह्स ऐ चलता रहा तो हिन्दी ब्लागिंग का कोई भविष्य नहीं है. मुझे क्या, जब तक ब्लागिंग के जरिये समाजवाद लाने की आशा मन में रहेगी, ब्लागिंग करता रहूँगा. जिस दिन आशा नहीं रहेगी, और कोई नया रास्ता देखूँगा."

इतना कहकर मनोहर भैया चले गए. जिस तैश के साथ गए, लगा जैसे कभी वापस नहीं लौटेंगे. लेकिन हैं तो समाजवादी, इसलिए मुझे पूरी आशा है कि मनोहर भैया फिर से एक पोस्ट लिखेंगे. शरीर में निंदारस जो उत्पन्न करना है. डाक्टर ने बता रखा है कि शरीर में निन्दारस की कमी हुई तो भोजन नहीं पचेगा.