Monday, December 24, 2007

गुजरात चुनावों का रिजल्ट और सतीश कुमार का सपना

सी सी टीवी का स्टूडियो. टाई और शूट पहने दो एंकर. दोनों के सामने लैपटॉप. दोनों 'आर्यावर्ते, जम्बू द्वीपे भारतवर्षे' होने वाले चुनावों के विशेषज्ञ. एक का नाम प्रमोद मालपुआ और दूसरे का नाम अज्ञान विकास. इन दोनों को चैनल ने जिम्मेदारी दी है कि 'गुजरात चुनावों के आनेवाले परिणामों की व्याख्या करें और कार्यक्रम के दौरान हर दस मिनट पर साल २००२ के दंगों का जिक्र करना न भूलें. इन्हें गुजराती जानकारी देने के लिए इनके वरिष्ठ सहयोगी सतीश कुमार को गुजरात में चार महीने से पोस्ट (ब्लॉग वाला पोस्ट नहीं) किया जा चुका है. सतीश कुमार ने पिछले चार महीनों में गुजरात, मोदी, सड़क, हिंदुत्व, आडवानी, विकास वगैरह पर अपना शोध पूरा कर लिया है. इन्हें प्रोफेसर बंदूकवाला ने ख़ुद इस शोध के लिए डिग्री इन्ही के टीवी कैमरे के सामने सौंपी है.

आठ बज चुके हैं. चुनाव परिणामों पर आधारित(?) कार्यक्रम शुरू होने वाला है. सबसे पहले प्रमोद मालपुआ टीवी पर दिखाई देते हैं. दिखते ही अपने मुखार-विन्दुओं से शुरू हो जाते हैं; "नमस्कार, मैं हूँ प्रमोद मालपुआ और मेरे साथ हैं हमारे सहयोगी अज्ञान विकास. जैसा कि आप जानते हैं, आज गुजरात चुनाओं के परिणाम आने वाले हैं. हम इन परिणामों को आपके सामने लाने की कसम खा चुके हैं. अज्ञान क्या लगता है आपको, गुजरात में आज क्या होगा?"

अज्ञान विकास को अब टीवी पर देखा जा सकता है. वे भी शुरू हो जाते हैं; "प्रमोद जी, देखने वाली बात है कि किस तरह से गुजरात में कहीं न कहीं एक तरह का भय का माहौल है. मोदी ने पिछले सालों में हिंदुत्व के मुद्दे को जिस तरह से आगे बढाया है, उससे गुजरात की जनता अब पस्त हो गई है. वैसे भी आपने देखा ही होगा, हमने अपने एग्जिट पोल में बताया ही है कि बीजेपी को अगर बहुमत मिलेगा भी, तो बहुत कम मार्जिन से."

"बिल्कुल, अज्ञान आप ठीक कह रहे हैं. मोदी ने जो कुछ भी किया है, उसका जवाब गुजरात की जनता इस चुनाव में उन्हें देगी. आप तो जानते ही हैं, मैं तो दुष्यंत कुमार को हमेशा कोट करता हूँ. उन्होंने लिखा है; हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए...."; प्रमोद मालपुआ जी ने कहा.

"प्रमोद जी, यहाँ देखने वाली बात ये भी है कि मोदी से ख़ुद उनकी पार्टी वाले भी डरे हुए हैं. उनकी अपनी पार्टी के नेता नहीं चाहते कि वे जीतें. उनकी पार्टी के प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने ख़ुद उनकी कितनी आलोचना की है, हम सभी देख चुके हैं. और तो और, पूरा देश त्रस्त है मोदी से" ; अज्ञान विकास ने मालपुआ जी से कहा.

तब तक सतीश कुमार टीवी स्क्रीन पर दिखाई देते हैं. उन्हें देखते ही प्रमोद मालपुआ जी ने कहा; "और हमारे संवाददाता सतीश कुमार अब हमारे सम्पर्क में हैं. आईये उनसे पूछते हैं कि शुरुआती रुझान किसकी तरफ़ हैं. सतीश क्या हाल है वहाँ. शुरुआती रुझानों से क्या लगता है आपको?"

"प्रमोद जी, जैसा कि आप जानते हैं, मैंने पूरे गुजरात पर हाल ही में एक समग्र पी एचडी की है. अपने अध्ययन और खोज से मैंने पता लगा लिया है कि इस बार मोदी का जीतना मुश्किल है. हमारे एग्जिट पोल के नतीजे हालांकि बताते हैं कि मोदी के जीतने का चांस है, लेकिन मुझे लगता है कि उनका जीतना मुश्किल है. फिर हमारी पार्टी ने इस बार के चुनावों में पूरी मेहनत की है. कल मेरी बात कुछ सट्टेबाजों से हुई है. इन सट्टेबाजों का मानना भी यही है कि हमारी पार्टी जीत जायेगी"; सतीश कुमार ने बताया.

सतीश कुमार अभी बात कर ही रहे थे कि उनका सम्पर्क काट दिया गया. अज्ञान विकास ने सम्पर्क टूटने को लेकर कहना शुरू किया; "सतीश भावावेश में कुछ ज्यादा ही बोल गए. असल में वे गुजरात में विरोधी पार्टी को अपनी पार्टी कह बैठे, जो उन्हें दर्शकों से नहीं कहना चाहिए था. हमने इसीलिए उनका कनेक्शन काट दिया. आपलोग भूल जाइये कि उन्होंने ऐसा कुछ कहा है. हम उन्हें जब याद दिला देंगे कि वे टीवी के संवाददाता हैं, किसी राजनैतिक पार्टी के सदस्य नहीं, तब थोडी देर बाद उनसे फिर से सम्पर्क साध लेंगे."

अब तक शुरुआती रुझान आने शुरू हो चुके हैं. सतीश कुमार को समझा-बुझाकर उनसे फिर ऐ सम्पर्क साधा जा चुका है. उन्हें अब टीवी स्क्रीन पर देखा जा सकता है. उन्हें देखते ही प्रमोद मालपुआ जी ने कहा; "अब सतीश से हमारा सम्पर्क हो गया है. सतीश, ये बताईये, क्या लगता है आपको? शुरुआती रुझानों से क्या किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है?"

"बिल्कुल, प्रमोद जी, जैसा कि मैं कह रहा था, शुरुआती रुझानों से लगता है कि मोदी की विरोधी पार्टी को आशा से ज्यादा सीटें मिलेंगी. अभी तक कुल ६० सीटों के रुझान मिले हैं, जिनमे मोदी को २८ और हमारी पार्टी, ओह सॉरी, उनकी विरोधी पार्टी को २६ सीटों पर बढ़त हासिल है. अन्य को ६ सीटों पर बढ़त हासिल है"; सतीश कुमार ने बताया.

सतीश कुमार की रपट सुनकर स्टूडियो में बैठे दोनों एंकर की खुशी का ठिकाना नहीं है. प्रमोद मालपुआ ने कहना शुरू किया; "जैसा कि हमने बताया, इस बार गुजरात की जनता को न्याय मिलेगा. साथ में हमारी मेहनत को भी न्याय के दर्शन होंगे. एक बार पूरे नतीजे आ जाएँ, तो नतीजों से मिलाने वाले न्याय को हम सब मिल-बाँट कर अपने पास रख लेंगे. अज्ञान, आपका क्या मानना है?"

"बिल्कुल. आपने ठीक कहा. न्याय दिलाने और पाने की का सारा दारोमदार हमारे ऊपर है. और इस बार न्याय होकर रहेगा. चलिए, हमारा सम्पर्क एक बार फिर से सतीश कुमार से हो गया है. सतीश ताजा जानकारी क्या है आपके पास? रुझान क्या कहते हैं?"; अज्ञान विकास ने आवाज लगाई.

"अज्ञान, जैसा कि आप देख सकते हैं. अब पूरे १२० सीटों के रुझान हमारे सामने हैं. और १२० सीटों में से मोदी को केवल ४० सीटों पर बढ़त हासिल है. विरोधी पार्टी को ७६ सीटों पर बढ़त मिली है. जैसा कि आप देख सकते हैं, अब मैं विरोधी पार्टी के कार्यालय के सामने खडा हूँ. कार्यकर्ताओं का उत्साह देखते ही बनता है. यहाँ तो अभी से लड्डू बांटे जा रहे हैं. आप ख़ुद देख सकते हैं, किस तरह से कार्यकर्ताओं ने मेरे मुंह में लड्डू ठूस दिए हैं. मैं और बात नहीं कर पा रहा हूँ. मैं लड्डू खाकर वापस आता हूँ तब बात करता हूँ"; सतीश कुमार ने तुतलाती आवाज में कहा.

इतना कह कर सतीश सामने रखी टेबल पर से पेपरवेट उठाकर खाने लगे. उसे तोड़ने की बार-बार कोशिश करने के बाद भी जब पेपरवेट रुपी लड्डू नहीं टूटा, तो उनकी नींद खुल गई. देखा, सामने स्टूडियो में बैठे सभी निराश होकर स्टूडियो की छत की और देख रहे हैं. उन्हें दुखी देख, सतीश कुमार भी दुखी हो गए. उन्हें पता चल चुका था कि वे सपना देख रहे थे. उधर मोदी की पार्टी जीत रही थी.

Tuesday, December 18, 2007

और चिट्ठाकार अखबार में छप जायेगा

सड़क पर आते-जाते लोकल न्यूज़ चैनल के कैमरे खोजता हूँ. सोचता हूँ, कहीं दिख जाएँ तो सामने जाकर 'कैमेराबंद' हो लूँ और शाम को ख़ुद को टीवी स्क्रीन पर देखूं. लाइफ की एक उपलब्धि हो जायेगी. लेकिन इन टीवी चैनल वालों ने शायद कसम खाई है कि; 'दुनिया के तमाम मुद्दों पर सबका कमेंट ले लेंगे लेकिन बालकिशन का नहीं.' हमारे शहर में आए दिन बंद होता है, रैलियां होती हैं, इन मुद्दों पर कमेंट लेने के लिए टीवीवाले मुहल्ले के राजू भाई के पास जाते हैं. हरीराम चाय वाले से कमेंट लेते हैं' लेकिन आजतक किसी न्यूज़ चैनल वाले ने मुझसे नहीं पूछा कि 'आपकी क्या राय है, बंद होने चाहिए, या नहीं?' अब उन्होंने नहीं पूछा, तो मैंने भी नहीं बताया.

पर जबसे जीवन 'ब्लॉग-धन्य' हुआ है, तब से टीवी पर दिखने की चाहत उतनी नहीं है, जितनी अखबार में छपने की. आए दिन सुनता हूँ, फला अखबार में हिन्दी चिट्ठाकारिता के बारे में लेख छपा है और फला चिट्ठाकार छप गया. लेकिन मजाल है कि मेरे जैसे 'महान' चिट्ठाकार का नाम छपे कहीं. लोगों से जब सुनते थे कि; 'देश में टैलेंट को तरजीह नहीं दी जाती' तो सोचते थे कि 'नहीं ऐसी बात नहीं है. कहीं-कहीं तो जरूर दी जाती है नहीं तो बड़े-बड़े नेताओं का टैलेंट नष्ट हो जाता.' लेकिन अब मुझे अपनी इस सोच पर शंका होने लगी है और उसका कारण भी ठोस है.

कल प्रभात ख़बर में एक ख़बर छपी थी, हिन्दी चिट्ठाकार और चिट्ठाकारिता के बारे में. मैंने ख़बर की हेडलाइन तक पढ़े बिना लेख में अपना नाम खोजना शुरू किया. काफी खोजने के बाद भी नाम नहीं मिला. कुछ मिलने की बात पर निराशा मिली. तुरंत फैसला कर डाला कि; 'आज के बाद एक भी पोस्ट नहीं लिखूंगा. ऐसे ब्लॉग का फायदा ही क्या जो अखबार तक में नाम न छपा सके. लेकिन 'चिट्ठाकार' का गुस्सा बड़ा कोमल होता है. दस मिनट में ही खत्म हो गया. फिर सोचा 'कोई बात नहीं है, वह सुबह कभी तो आएगी जब चाय पीते-पीते अखबार में ख़ुद का नाम देखेंगे और उस अखबार की दस-बीस प्रतियाँ जेरोक्स करके रख लेंगे. भविष्य में पत्नी और ससुराल वालों पर रौब ज़माने के काम आएगी.' ठीक वैसे ही जैसे कोई लोकल नेता सालों पुरानी तस्वीर को संभाल कर रखता है, एक ऐसी तस्वीर जिसमें उसे किसी राष्ट्र स्तर के नेता को माला पहनाते दिखाया जाता है, और काऊंसिलर के चुनाव का टिकट पाने के लिए उसका उपयोग करता है.

लेकिन मन की शंका है कि पीछा नहीं छोड़ती. सोचता हूँ; 'क्या ऐसा हो सकेगा कभी?' फिर सोचता हूँ कि अगर ऐसा नहीं हुआ तब क्या करूंगा. मुझे परसाई जी के उपन्यास रानी नागफनी की कहानी का वो प्रसंग याद आ जाता है, जिसमें अस्तभान अपने मित्र मुफतलाल से पूछता है कि लोग पास होते हैं, इस बात का पता कैसे चलता है? मुफतलाल उसे बताता
है कि 'कुंवर, जिसका नाम अखबार में छपता है, वो पास हो जाता है.' उसकी बात सुनकर अस्तभान कहता है; "मित्र अगर ऐसी बात है, तो मैं अपना ख़ुद का अखबार निकालूँगा और उसमे सबसे पहले अपना नाम छापूंगा. मुझे ही ख़ुद को पास करना पडेगा, ये अखबार वाले मुझे पास नहीं करेंगे."

अस्तभान की बात याद करके मैंने सोचा; 'थोड़े दिन और देख लेता हूँ, अगर छप नहीं सका, तो अखबार में ख़ुद ही एक आर्टकिल लिखूंगा और अपना नाम ख़ुद ही छाप लूंगा.

अब थोड़े दिन और देखने के लिए जरूरी है कि पोस्ट लिखता रहूँ, सो ये पोस्ट लिख डाली.

Tuesday, December 11, 2007

समतल जमीन पर खड़ा, सोचता हूँ...


जब भी देखता हूँ
घर के सामने बैठे टीले को
एक ही विचार आता हैं मन में
जैसे पूछ रहा हो कि;
मुझे ऊंचा समझते हो, लेकिन;
मेरी ऊंचाई
तुमने क्या ख़ुद नापी है?
समझ नहीं आता
क्या जवाब दूँ
कोई जवाब नहीं सूझता
जवाब की शक्ल सवाल ले लेते हैं
क्या कभी
इस टीले के प्रश्न का जवाब दे सकोगे?

जब भी खड़ा होता हूँ
तालाब की सामने वाली
डेढ़ बीघा जमीन पर
व्याकुल मन को लगता है
तालाब भी प्रश्न कर रहा है
'गहराई कितनी है,
क्या तुमने ख़ुद नापी है?'
व्याकुल मन तड़पता है
तालाब के सवाल का
जवाब खोजता है

फिर सोचता हूँ;
टीले की ऊंचाई
और तालाब की गहराई
दोनों ही
किसी और ने तय किए
मैं न तो ऊंचाई नाप सका
न ही गहराई
जीवन बिता दिया
इस समतल जमीन पर
दूसरों को देखो
न सिर्फ़ ऊचाई चढ़े बल्कि;
गहराई भी नापी
हमें तो दूसरों ने ही बताया
कि टीला कितना ऊंचा है
और तालाब कितना गहरा

Monday, December 10, 2007

लिंकित पोस्ट और शंकित मन ; या फ़िर आप बताएं इस पोस्ट को मैं क्या नाम दूँ.

कुछ शीर्षक के बारे में.
लिंकित पोस्ट इसलिए की मैंने इस पोस्ट में बहुत से लिंक देकर लिखने का प्रयास किया है और शंकित मन इसलिए कि मन मे एक संदेह है कि ये पोस्ट आपको पसंद भी आएगी या नहीं. खैर जो भी हो आप लोगों से निवेदन है पोस्ट पढने के बाद टिपण्णी के साथ-साथ एक उपयुक्त शीर्षक भी जरुर बताएं.
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बचपन मे एक खेल खेला करते थे. किसी भी हीरो या हिरोइन की बहुतसी फिल्मों के नाम एक साथ जोड़कर कुछ सार्थक वाक्य बनाने पड़ते थे. जिसके वाक्य सबसे ज्यादा होते थे वही खेल मे विजेता घोषित होता था. कुछ ऐसा ही प्रयास मैंने बहुत से ब्लोगों के नाम को लेकर किया है.

चिटठा जगत ब्लाग्वानी और नारद
के वरिष्ट/वरिष्ठतम महानुभावों ( मेरी जानकारी मे, किसी की आपत्ति की कोई जगह नही है.) जैसे ज्ञान भैया, सारथी जी, फुरसतिया जी, मिश्रा जी, काकेश जी , आलोक (अगड़म-बगड़म) जी आदि-आदि. कोई वरिष्ट या वरिष्ठतम छूट गए हो तो माफ़ी चाहता हूँ.


कछु ह‍मरी सुनि लीजै
जोगलिखी हिन्दी - चिट्ठे एवं पॉडकास्ट की दुनिया मे आप सब को बालकिशन का प्रणाम.मैंने अपने चिट्ठा चर्चा की शुरुवात मेरी कलम से गाहे-बगाहे लिखे कुछ रिजेक्ट माल से करते हुए अपनी भड़ास निकाली थी. धीरे-धीरे अपने शब्‍दों का सफ़र और अपनी शब्दों की दुनिया को एक बाल -उद्यान, एक बगीची की तरह पुष्प पल्लवित करते हुए हिन्दी ब्लॉग की जीवन-धारा मे मेरा पन्ना भी संवेदनाओं के पंख लगाकर दिल से दिल की बात करता हुआ निर्मल-आनन्द के सागर मे गोता लगाने लगा है.

पर मेरे लिंकित मन मे कुछ शंकित प्रश्न भी है और कुछ मानसिक हलचल मे दखल देती हुई चिंताएं भी जिसके विषय मे मुझे कुछ कहना है और जिसका समाधान ये स्वप्नदर्शी गुस्ताख़ ये आवारा बंजारा आपकी .अदालत से चाहता है. जैसे रचनाकार का ब्लॉग "Raviratlami Ka Hindi blog" या "Meri Katputliyaan" अंग्रेजी मे क्यों लिखा है. जैसे टिप्‍पणीकार विचारों की जमीं पर अपनी छाया तो दिखलाते है. पर छिपे क्यों रहते है. जैसे निंदा पुराण को आरंभ करने वालों को तीसरा रास्ता के तीसरा खम्भा मे बाँध कर उनकी हवा पानी बंद क्यों नही की जाती. (इसे ऑफ द रिकॉर्ड रखें).

इन सब बात बतंगड़ और उधेड़-बुन में हम असली तत्वचर्चा कि "प्रेम ही सत्य है" को तो बेदखल की डायरी मे लिखी "मेरी कविता" (घरेलु उपचार की) की तरह नौ दो ग्यारह कर देते है. कुछ चिठ्ठे ऐसे भी है जिनसे त्वरित लाभ होता है जैसे वाह!मनी , सेहतनामा , स्मार्ट निवेश , Global voices , cinema- सिलेमा (ये सभी नाम भी अंग्रेजी में, सारथी जी आप देख लें) आदि आदि.

महोदय जिस प्रकार एक कर्मचारी के कर्म ही उसे मिलने वाले पारिश्रीमिक का कारण होते है उसी प्रकार एक ब्लॉगर की पोस्ट ही उसे मिलने वाली टिप्पणियों और लिंकों का कारन होती है. मैं ये सब इसलिए कहना चाहता हूँ कि हम सब दिल का दर्पण खोल कर बहुत लिखे और अच्छा लिखे. मुझे आशा ही नही पूर्ण विश्वाश और भरोसा है कि हम सब के सामुहिक प्रयास से ये हिन्दी ब्लोग्गिंग की दुनिया जो अभी इंग्लिश ब्लोग्गिंग की दुनिया के सामने टुटी हुई बिखरी हुई और हाशिया पर नज़र आती है अपने कारवाँ को खेत खलियान और धान के देश से आगे लेजाते हुए ब्लोग्गिंग आकाश पर एक विस्फोट करते हुए अश्विनी के समान चमकेगी.

बात बे बात मे अगर कुछ मेरी कलम से ग़लत लिखा गया तो इसे एक हिंदुस्तानी की डायरी मे लिखी विनय पत्रिका समझ कर बिसरा दीजियेगा.

कबाड़खाना से ब्लोगिया कंही का .

आप सब का

लपूझन्ना

Saturday, December 8, 2007

उम्मीद




पास मेरे जो तुम आओ तो कोई बात बने
पास आकर दूर ना जाओ तो कोई बात बने

नफरत से प्यार क्यों करते हो इस कदर
प्यार से प्यार करो तो कोई बात बने

उम्र सारी तमाम कि सौदेबाजी मे अब तो
एक रिश्ता कायम करो तो कोई बात बने

गिरे हुए पर तो हँसते है दुनिया मे सभी
गिरतों को तुम संभालो तो कोई बात बने

रोने से कंहा हासिल किसी को कुछ होता है
जरा किसी के साथ मुस्कुराओ तो कोई बात बने.

ख्वाबों कि राख पर बैठ हाथ मलने से क्या हासिल
इक नया ख्वाब किसी आँख मे तुम सजाओ तो कोई बात बने.

जिन घरो मे सदियों से छाया है अँधेरा वंहा
एक दीपक तुम जलाओ तो कोई बात बने.

हिंसा गर सारा जमाना तुमसे करे तो क्या
अहिंसा तुम बापू सी करो तो कोई बात बने.

Thursday, December 6, 2007

सेलिब्रिटी और दीपक

बहुत दिनों से कुछ नही लिख पाया. ऊपर से मैं ठहरा नया ब्लागिया. लिहाजा नए ब्लागिये का धर्म निभाते हुए दुःख मिश्रित चिंता मे डूबा हुआ था कि मित्र दीपक का आगमन हुआ. दीपक के बारे में बताने लायक सबसे जरूरी बात ये है कि मेरा ये मित्र बहुत नाराज़ किस्म का प्राणी है. हर समय, हर परिस्थति मे, हर इंसान से नाराज़ रहता है. किसी की भी बखिया उधेड़नी हो तो बस उसका नाम भर दीपक के सामने लेने कि जरुरत है. बाकी का काम दीपक स्वयं कर लेने में सक्षम है. कुल मिलाकर परसाई जी के निबंध 'निन्दारस' में वर्णित पात्र की तरह. जिस भूमिका का निर्वाह निंदक करता है वही भूमिका दीपक की है. दीपक से मिलने पर मुझे बहुत सुख मिलता है. जिनसे भी मुझे हिसाब बराबर करना रहता है मैं उनके नाम एक-एक कर दीपक के आगे सरकाता जाता हूँ और बाकी सब दीपक के जिम्मे.

आते ही उसने ही उसने प्रश्न की तोप दागी. " क्या बात है? क्यों परेशान हो? क्या तबियत ख़राब है?"

मैंने कहा "नही यार, बहुत दिनों से अपने ब्लॉग पर कुछ लिख नही पाया और दूसरों के ब्लॉग पर टिप्पणी भी नही कर पाया हूँ. इसलिए अच्छा नही लग रहा है."

इतना सुनते ही दीपक ने अगला प्रश्न मेरी तरफ़ सरकाया;" क्या होगा लिखकर?"

"विशेष कुछ नही पर अच्छा लगता है. सुख मिलता है ये देखकर कि मेरा लिखा भी लोग पढ़ते है. मेरा नाम भी ब्लागवानी, नारद और चिटठाजगत पर आता है. लोग मुझे भी जानने लगे हैं. और फिर, पुरूष के भाग्य के बारे में कोई नहीं जानता. हो सकता है बाद में मेरे भी लेख और कवितायें पात्र-पत्रिकाओं वगैरह में छपें"; मैंने उसे बताया. इतना सुनते ही वो फट पड़ा " तो ऐसा बोलो न कि सेलिब्रिटी बनने का चस्का चढा है."

मैंने कहा; "नहीं, सेलेब्रिटी बनने की बात नहीं है. बहुत सारे लोग लिखते हैं, सो मैं भी लिख लेता हूँ."

"नहीं-नहीं, मैं समझ गया बॉस. पूरा मामला ही सेलेब्रिटी बनने का है. तुम नहीं मानोगे, लेकिन एक बात मेरी गाँठ बाँध लो, ये सेलेब्रिटी बनने का काम तुम्हारे बस का नहीं"; दीपक ने मुझे सूचना दी.

मैंने घबराते हुए पूछा " क्यों भला?"

उसने कहा ये बताओ " क्या तुम्हारी पत्नी या होने वाली पत्नी से तुम्हारा तलाक हुआ है?"

मैंने कहा " नही भाई, मैं तो अपनी पत्नी के सारी बातें दोनों कान खोलकर सुनता हूँ. और उसका कहा भी जल्द से जल्द पूरा करता हूँ. मैं तो पूरी तरह से विशुद्ध पत्नीब्रता इंसान हूँ. फ़िर मेरा तलाक़ क्यों होने लगा."

उसने फ़िर पूछा " अच्छा ये बताओ क्या कभी किसी गैर औरत ने तुम पर अपने बच्चे या होने वाले बच्चे के पिता होने का इल्जाम लगाया है?"

मैंने घबराते हुए जवाब दिया " नही भाई नही. तुम क्यों मेरे सुखी संसार मे आग लगाना चाहते हो."

इस बार उसका प्रश्न था " क्या तुमने कभी अपनी गाड़ी या मोटर साइकिल के नीचे फुटपाथ पर सोये गरीबों को कुचला है?

"नही यार, कुचलने का प्रश्न तो तब आएगा जब ये चीजें होगी मेरे पास" मेरा जवाब था.

"तुम्हारा कभी किसी मैगजीन मे कोई सेक्सी फोटो छपा या कोई सेक्सी विडियो एलबम निकला?" उसका नया प्रश्न.

मैंने अगल बगल देखते हुए धीरे से कहा " अभी तक तो नही पर तुम्हारी कोई पहचान वाला है तो बताओ ना"

उसने कहा "जरुर बताऊंगा पर तुम ये बताओ क्या तुम्हारे घर पर कोई सरकारी छापा पड़ा जिसमे ८-१० करोड़ के जेवर और नगद बरामद हुए?"

मैंने जवाब दिया "नही भाई पर चाहता तो मैं भी हूँ कि एक बार छपा पड़े ये सब बरामद हो ही जाए फ़िर तो सब टैक्स वगैरह काट कर ३०-४०
प्रतिशत तो मुझे भी मिल ही जायेंगे. फिलहाल तो मुझे स्वयं ही नही पता है कि इतना कुछ मेरे घर मे रखा कंहा है?"

तोप से एक नया प्रश्न निकला " कभी काला हिरन मारा? कभी ऐ के 47 बरामद हुई तुम्हारे पास से?

"आज तक जीवन मे दोनों ही चीजों के दर्शन भी नही हुए मुझे और क्या कहूं." मैंने जवाब दिया.

"अपने आप को लेखक, कवि, ब्लोगियर और ना जाने क्या-क्या समझते हो पर ये बताओ तुम्हारा लिखा कंही बैन हुआ? कभी तुम्हारे लिखे पर कोई झमेला शुरू हुआ?" उसने पूछा.

मैंने कहा "झमेला और बैन शुरू होने के आसार तो तब बनेंगे जब लोग पढेंगे अभी तो मुझे बहुत लोग पढ़ते ही नही है."

उसने फ़ैसला सुनाया " जब सब जवाब तुम्हारे नही है तो सेलिब्रिटी बनना क्या खाक सही है, छोडो ये सब कुछ काम पर ध्यान दो तो शायद इनमे से कुछ हासिल हो भी जाए."

इस बार मैंने मन ही मन सोचा (सामने कहने की हिम्मत तो मुझमे नही थी) कि " तुम तो लेखक, कवि या फ़िर ब्लागिये नही हो, तुमने कौन सा तीर मार लिया"

दीपक द्वारा लिए गए मेरे इस इंटरव्यू से मुझे दो फायदे जरुर हुए. एक तो नई पोस्ट का सामान मिल गया दूजे सेलिब्रिटी बनने का नशा उतर
गया. मैंने उसे दिल से धन्यवाद दिया.

Wednesday, November 28, 2007

बालकिशन की टिप्पणी पॉलिसी




हिन्दी में भी गेस्ट पोस्ट का चलन शुरू हो गया है। सामुहिक ब्लॉगों से गेस्ट पोस्ट ठेलने की दिशा में चल रहे हैं लोग। लिहाजा मैने भी ज्ञान भैया से एक गेस्ट पोस्ट झटकी है। इसमें विचार उनके पर मेरे नाम से हैं। मामला गड्ड-मड्ड सा है। पर आप पोस्ट पढ़ें -



बालकिशन की टिप्पणी पॉलिसीumbrella

Corporate Concepts बालकिशन मेथॉडिकल ब्लॉगर हैं। बोले तो ब्लॉगिंग में केल्कुलेटेड इनवेस्टर। यह टिप्पणी पॉलिसी उनके ब्लॉग पर टिप्पणी करने/दिखाने/उसके स्वामित्व/उसे उड़ाने से सम्बन्धित नहीं है। उनके ब्लॉग पर टिप्पणी करने के बारे में तो सब खुला खेल फरुख्खाबादी है फिलहाल। पोस्ट अगर राखी सावंत पर हो और आप टिप्पणी टुनटुन या मुकरी या कच्छ के रन में पाये जाने वाले गधों के बारे में भी करें तो चलेगा। अभी तो नयी नयी दुकान है - अत: टिप्पणी होनी चाहिये बस।

यह टिप्पणी पॉलिसी बालकिशन द्वारा की जाने वाली टिप्पणियों के विषय में है। मेथॉडिकल तरीके से यह बिन्दुवार स्पष्ट की जा रही है -

  1. ब्लॉगों को तीन मुख्य केटेगरीज में बांटा जाये - ब्ल्यू-चिप, मिडकैप और स्माल कैप। यह केटेगरियां प्रतिमाह रिव्यू की जायें।
  2. अपनी टिप्पणियों का इंवेस्टमेण्ट अनुपात तय कर ब्ल्यू-चिप, मिडकैप और स्माल कैप ब्लॉग्स पर टिप्पणी को रेशनलाइज किया जाये। यह इंवेस्टमेण्ट किसी एक के पक्ष में झुका हुआ न रहे।
  3. इंवेस्टमेण्ट के रिटर्न मॉनीटर किये जायें। जिस स्टॉक (सॉरी, ब्लॉग) से रिटर्न न मिल रहे हों, उनपर स्टॉप-लॉस की लिमिट तय की जाये। रिव्यू महीने की बजाय 10 दिन में किया जाये और यह कदापि न माना जाये कि स्टॉक (सॉरी, ब्लॉग) को 2-3 साल के सिनारियो से रखना है। ब्लॉग की हाफ-लाइफ भी आकलित की जाये। वह इसलिये कि कुछ ब्लॉगों की मॉर्टेलिटी रेट बहुत ज्यादा है।
  4. इसके लिये अगर फोकट में ब्लॉग एडवाइजर मिल सकता हो तो उसके ब्लॉग पर मुक्त-हस्त से टिप्पणी कर फीस देने का इंतजाम भी किया जाये। ऐसे दो एक्स्पर्ट शिवकुमार और आलोक अ.ब. पुराणिक हैं। औरों की भी तलाश की जाये।
  5. कुछ टिप्पणियों का प्रतिशत पेनी स्टॉक (सॉरी, ब्लॉग) के लिये रिजर्व कर लिया जाये। इन ब्लॉगों के लिये फीड एग्रेगेटरों के मूवमेण्ट पर नजर रखी जाये। इनसे टिप्पणी रिटर्न अगर अच्छे हों तो इन्हे विश्लेषण के आधार पर मिडकैप और स्माल कैप में वर्गीकृत कर दिया जाये।
  6. इस टिप्पणी पॉलिसी का भी तीन महीने में एक बार रिव्यू किया जाये।

---- ज्ञानदत्त पाण्डेय

(बाल किशन की चहुं ओर की जा रही टिप्पणियों से प्रभावित हो कर यह पोस्ट लिखी गयी है।)


Tuesday, November 27, 2007

ब्लॉग सुधारक च निखारक गीत

ब्लॉग सुधारक च निखारक गीत
(तर्ज़- तू मुझे सुना मैं तुझे सुनाऊँ अपनी प्रेम कहानी)
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तू मुझे टिपिया मैं तुझे टिपियाऊँ
जमेगी ब्लॉग कहानी
हाँ अपनी ब्लॉग कहानी

एक के बदले एक मिलेगी
दूजी मांग बेमानी
हाँ दूजी मांग बेमानी

कभी-कभी जो समय ना हो तो
ठेल तू सकता अपनी पोस्ट पुरानी
हाँ अपनी पोस्ट पुरानी

विषयों की कोई कमी नही है
क्या कविता क्या कहानी
हाँ क्या कविता क्या कहानी

रिश्तों पर भी पोस्ट है बनती
कभी अम्मा कभी नानी
हाँ कभी अम्मा कभी नानी

गाली-गलौज भी शुरू हुए अब
करते कुछ मनमानी
हाँ करते कुछ मनमानी

एक ही दिन मे तीन-तीन ठेलें जो
उनकी कलम दिवानी
हाँ उनकी कलम दिवानी

Saturday, November 24, 2007

एक कोशिश




ये बस्ती तो कब कि उजड़ चुकी है.
अब कौन सा तूफान आना बाकी है.

इंसान को तो कब का मार चुके हम
अब तो केवल भगवान् बाकी है.

मुश्किलें तो तमाम हल कर ली मैंने
काम मगर कुछ आसन बाकी है.

जुस्तजू मे तेरी, जिंदगी, हम खो गए
अब तो बस मौत का अरमान बाकी है.

वजूद भले ही मिट गया उनका जंहा से
रह गए फ़िर भी कुछ निशान बाकी है.

सब चले ही जाते है यंहा से एक दिन
छिपी मगर शब्दों मे एक पहचान बाकी है.

Thursday, November 22, 2007

कलकत्ते में नंदीग्राम, तसलीमा नसरीन और कर्फ्यू

कल का दिन कोलकाता के इतिहास मे एक काला दिन गिना जायेगा. हर आम आदमी तो यही कह रहा है. वैसे इतिहास लिखने का काम ख़ास लोग करते हैं, सो ऐसा होगा या नहीं, कहना मुश्किल है. एक समूह ने नंदीग्राम के मुद्दे पर सभा कर शहर में विरोध प्रदर्शन करने का कार्यक्रम बनाया था. वैसे पिछले कुछ दिनों से विरोध प्रदर्शन जारी है. संगठनों ने विरोध के लिए अलग-अलग दिन मुक़र्रर कर रखे हैं. सबको चिंता है कि कहीं विरोध प्रदर्शन करने में वे पीछे नहीं रह जाएँ. विरोध करना कोई बुरी बात नहीं लेकिन विरोध करते हुए अपना स्वार्थ साधना बुरी बात जरूर है.



वैसे तो इस बार विरोध प्रदर्शन नंदीग्राम के मुद्दे पर था लेकिन नंदीग्राम के मुद्दे के साथ तसलीमा नसरीन का भी मुद्दा जुड़ गया. विरोध प्रदर्शन करने वाले कह रहे थे कि तसलीमा इस्लाम विरोधी हैं, ऐसे में उन्हें यहाँ रहने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. लेकिन ये विरोध प्रदर्शन तक तो ठीक था लेकिन बाद में पता चला कि इसके बहाने योजनाबद्ध तरीके से पुलिस पर आक्रमण किया गया. लोगों का कहना है कि ये भीड़ चाहती थी कि पुलिस गोली चला दे.




यह तो घटना थी. दूसरी, इसके पीछे की कहानी है कि कैसे टी.वी. और सेल फ़ोन के द्वारा अफवाह फैलती है या फैलाई जाती है. टी.वी. पर न्यूज़ फ्लैश किया गया कि पार्क स्ट्रीट मे हंगामा शुरू हो गया है. ठीक उसी समय मेरे पिताजी पार्क स्ट्रीट मे थे. उनसे फ़ोन पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि यंहा तो सब शांत ही लग रहा है. गाडियाँ आ जा रही है. बच्चे मैदान मे खेल रहे है. शाम ४ बजे मैं अपने डॉक्टर के चेंबर मे था. मेरे सेल पर किसी ने फोन कर के बताया कि मानिकतल्ला में भी काफ़ी भीड़ इकठ्ठी हो गई है शायद वंहा कोई शांति-जुलूस निकाला गया है. मैंने ये बात बगल मे बैठे एक सज्जन को बताई तो उन्होंने तुरंत अपना सेल फ़ोन उठाया और किसी को फ़ोन करते हुए सूचना दी; " अरे भाई, मानिकतल्ला और काकुड़गाछी मे भी झमेला शुरू हो गया है वंहा कर्फ्यू लगने वाला है."

अब जिन सज्जन ने ये सुना होगा उन्होंने कर्फ्यू को करीब तीन किलोमीटर आगे तक चलाकर उल्टाडांगा तक जरुर पहुँचा दिया होगा. एक सज्जन तो डॉक्टर साहब के आते ही उनसे कहने लगे; "सर हिंदू-मुस्लिम राइट शुरू हो गया है."


अब जरा तीसरा पक्ष भी देखिये- नेताओं का. उन्होंने नंदीग्राम के मुद्दे के साथ तसलीमा नसरीन का मुद्दा, जो कि पूरी तरह से एक धार्मिक मुद्दा है, को जोड़ कर किस तरह की दायित्व-हीनता का परिचय दिया है. ऐसे माहौल में कुछ भी हो सकता था. शायद साम्प्रदायिक दंगे भी. ये नेता भीड़ का चरित्र जानते - बुझते भी इस ढंग कि हरकते करते हैं कि इनकी गलतियों की सज़ा आम आदमी को झेलनी पड़ती है.

भीड़ की कोई शक्ल नही होती
भीड़ को कोई अक्ल नही होती

भीड़ का कोई धर्म नही होता
भीड़ का कोई ईमान नही होता

भीड़ तो जानती है सिर्फ़ आग
भीड़ तो करती है सब राख

Friday, November 16, 2007

बालकिशन मीट्स महात्मा-सपने में

ब्लॉग विचरण का काम भी बड़ा रिस्की है. देखिये न, कल भाई प्रेमेन्द्र (महाशक्ति) के ब्लॉग पर विचरण करते हुए महात्मा गाँधी के बारे मे उनकी टिपण्णी के दर्शन हुए. प्रमेन्द्र भाई ने एक जगह लिखा; "महात्मा गाँधी के बारे में अनुगूंज आयोजित करें, बड़ा मज़ा आएगा." मैं ठहरा ब्लॉग-गीरी में नया रंगरूट, सो मैंने अपने मन की बात वहाँ रखते हुए लिखा; "महात्मा गाँधी कोई मज़ा लेने की वस्तु नहीं हैं." मेरे हिसाब से मैंने अपने मन की बात लिख दी. लेकिन ये क्या. एक बेनामी भाई मेरे पीछे पड़ गए. अपनी बात को सही साबित करने के लिए इन बेनामी भाई ने आरकुट पर महात्मा के बारे में किए गए किसी सर्वेक्षण को दस्तावेज तक बता डाला. ब्लागिया नया हो, तो दो टिपण्णी उसे सुख दे सकती हैं, और एक छोटी सी प्रतिकूल टिपण्णी दुखी कर सकती है. दुःख से ग्रस्त मैं पूरा दिन सोचता रह गया कि प्रमेन्द्र भाई की पोस्ट पर टिपण्णी करके मैंने गलती कर दी.

कहते हैं अगर किसी बात के बारे में हम ज्यादा सोचें तो वो बात सपने में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ती. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. सपने में महात्मा मिल गए. आपको झूठ लग रहा है? क्यों नहीं मिल सकते. अगर मुन्ना जैसे 'भाई' को साक्षात् मिल सकते हैं तो मुझे क्या सपने में भी नहीं मिल सकते. मुन्ना ने भाई-गीरी की फिर भी उन्हें महात्मा मिले. ख़ुद ही सोचिये, जब उन्हें महात्मा साक्षात मिल सकते हैं तो मुझे कम से सपने में तो मिल ही सकते हैं. मेरा अपराध तो केवल ब्लागिंग करने तक सीमित है. आप माने या न माने लेकिन मैं तो वही कहूँगा जो मैंने सपने में देखा.

हाँ, तो महात्मा मिल गए. छूटते ही बोले; "और बल किशन, कैसे हो? दिन कैसे कट रहे हैं?"

मैंने कहा; "बापू, दिन ठीक ही गुजर रहे हैं. अब तो शाम भी ठीक ही गुजरती है. जब से ब्लागिंग शुरू की है, दिन और शाम दोनों अच्छे से गुजर रहे हैं. दिन में टिपण्णी लिखते हैं और शाम को पोस्ट."

बापू ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा; "ब्लागिंग, ये क्या बला है?"

मैंने कहा; "पूछिए मत बापू, भयंकर कला है. ब्लागिंग में लोग जो सोचते हैं, वही लिखते हैं. वैसे कुछ-कुछ लोग सोचकर भी लिखते हैं."

"अच्छा, मतलब डायरी जैसा कुछ होगा"; बापू ने कहा।

"कुछ-कुछ वैसा ही है. डायरी जैसा ही. लेकिन डायरी में ज्यादातर लोग लिखने से पहले सोचते हैं. लेकिन ब्लॉग में पहले लिखते हैं, फिर सोचते हैं"; मैंने उन्हें बताया.

"अच्छा, क्या विषय होते हैं ब्लॉग में लिखने के?"; बापू ने जानना चाहा।

"बहुत सारे विषय हैं. कविता है, कविता की चिता है. गजल है, कहानी है. दादी है, नानी है. खाना है, साथ में अम्बानी का खजाना है. राजनीति है, कूटनीति है. माँ है, सिनेमा है. बहुत सारे विषय हैं. और तो और आपके ऊपर सर्वे भी एक विषय है"; मैंने उन्हें बताया.

"मेरे ऊपर सर्वे! ऐसा क्यों? वैसे किस बात पर सर्वे था ये?"; बापू ने जानकारी चाही।

"छोडिये न बापू. आप मुझसे मिले हैं तो कोई और बात करें, ब्लागिंग की बातें छोडें"; मैंने विनम्रता पूर्वक कहा.

"नहीं, फिर भी बताओ तो सही"; बापू ने कहा।

मैंने कहा; "तो सुनिए, सर्वे इस बात को लेकर था कि आपको राष्ट्रपिता का संबोधन किया जाना चाहिए या नहीं."

"इसमें सर्वे कराने की क्या बात है? वैसे भी मैंने ख़ुद को कभी राष्ट्रपिता नहीं माना. जो कुछ हुआ, मेरे जाने के बाद हुआ. इसमें बहस करने की जरूरत कहाँ आन पडी"; बापू ने कहा.

मैंने कहा; "ये तो आप न कहते हैं. इतनी बात अगर समझ आ जाए, तो समस्या ही कहाँ है."

बोले; "और क्या विषय चल रहे हैं अभी ब्लॉग की दुनिया में?"

मैंने बताया; "पिछले कई दिनों से बंदरों ने दिल्ली में जो हड़कंप मचाया, अभी वही सबसे हित विषय है."

"अच्छा, दिल्ली में बंदरों ने हड़कंप मचा रखा है. इन बंदरों में मेरे वे तीन बन्दर भी हैं क्या?"; बापू ने जानना चाहा.

मैंने कहा; "क्या बापू, आपका भोलापन भी अद्भुत है. आपने केवल तीन बन्दर दिए थे. बात पुरानी हो गई है. आज उन तीन बंदरों को कौन पूछता है. आज हमारे देश में बन्दर ही बन्दर ही बन्दर हैं. और आपको बताऊँ, तो दिल्ली के बंदरों की चर्चा केवल इसलिए हो रही है कि दिल्ली देश की राजधानी है. वरना देश के किस भाग में बन्दर नहीं हैं."

"तो दिल्ली के बंदरों से कौन ज्यादा परेशान है?"; बापू ने जानना चाहा.

मैंने कहा; "एक आदमी दूसरे आदमी से परेशान है. जाहिर है बंदरों से परेशानी भी बंदरों को ही हुई होगी. पूरी बात ही शायद इसीलिए हो रही है क्योंकि कुछ बंदरों को परेशानी हुई है. दिल्ली की मुख्यमंत्री कल परेशान दिख रही थीं. कह रही थीं कि....."

मैं उन्हें पूरी बात बताने वाला था कि नींद खुल गई. उठकर बैठ गया. सपना टूट गया. कोई बात नहीं, अगर अगली बार बापू मिले तो 'बंदरों' की कहानी उन्हें जरूर बताऊँगा.

Sunday, November 4, 2007

पत्रकारों को भी खुद से कुछ सवाल करने चाहिए

पत्रकारों ने ही नाम दिया था, 'बाहुबली'.आज जिन्हें पत्रकारों और टीवी चैनल ने 'बाहुबली' बना दिया है, उन्हें बचपन में हम गुंडा और लुच्चा जैसे नामों से जानते थे.बढ़िया पैकेजिंग करके चीजों को बेचने की ललक ने उन्हें नया नाम दे दिया, 'बाहुबली'.शाब्दिक अर्थ निकालें तो पता चलता है कि बाहुबली वह होता है जिसके बाहुओं में बल हो.लेकिन अच्छी पैकेजिंग के चक्कर में सब गड़बड़ हो गया.जिन्होंने पैकेजिंग की उन्होंने यह नहीं सोचा कि बंदूकों, राईफलों और चमचों के बल पर कोई बाहुबली कैसे बन सकता है.उसे तो सीधे और सटीक शब्दों में गुंडा कहा जाना चाहिए.जब बाहुबली नाम दिया था, तब इमानदारी नहीं दिखी, अब पिट गए तो इमानदारी का रोना रो रहे हैं.

सवाल पूछने ऐसे लोगों के पास क्यों जाते हैं ये पत्रकार?सवाल पूछने प्रशासन के पास क्यों नहीं जाते?प्रशासन से क्यों नहीं पूछते कि एक कत्ल हुआ है, उसके बारे में आपने क्या किया?गुंडे और लुच्चे तो लोकतंत्र का सहारा लेकर पत्रकारों को समझा देंगे कि 'हमें जनता ने वोट दिया है, इसलिए हम विधायक बने हैं.'इस बाहुबली को सवाल बर्दाश्त नहीं हुआ.कायरों को अक्सर सवाल बर्दाश्त नहीं होता और वे हिंसा पर उतर आते हैं.चुनावों के समय में जब इन्ही 'बाहुबलियों' के पीछे-पीछे कैमरा लेकर घूमते हैं तब ख्याल नहीं रहता कि हम जिसे टीवी पर दिखाने जा रहे हैं वह असल में एक अपराधी है,एक कायर है.

ऐसे लोगों को पत्रकारों द्वारा किए गए सवाल चुभेंगे ही.चुनावों से पहले ऐसे लोगों के कारनामें जनता के सामने लाने में हिचकते क्यों हैं ये पत्रकार?शायद उस समय ये सोचते हैं कि लोकतंत्र उफान पर है और हमने ख़ुद को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ घोषित कर रखा है.इसलिए हमारा कर्तव्य है कि जनता के बीच ऐसे लोगों की हिस्ट्री बोलकर हम लोकतंत्र के उफान को नुकशान न पहुचाएं.जिस विधायक ने पत्रकार की पिटाई की, क्या उसने पहले कभी अपराध नहीं किया?अगर जवाब हाँ में है, तो ये पत्रकार तब कहाँ थे?समय देखकर सच की आवाज बुलंद करने का ये नाटक कब तक चलायेंगे ये पत्रकार?एक पिट गया तो बाकी मुंह पीट कर लाल कर रहे हैं.कोई नीतिश कुमार को सड़क छाप मुख्यमंत्री बता रहा है तो कोई सरकार के कार्यों को सिरे से नकार रहा है.

मेरा सवाल इन बुद्धिजीवी पत्रकारों से है.अगर आप में से कोई पत्रकार कोई अपराध कर बैठे तो क्या उसके जिम्मेदार आपके चैनल के मालिक होंगे?मैं किसी तरह से इस गुंडे विधायक का पक्ष नहीं ले रहा, लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि पत्रकारों के अन्दर सच बोलने की हिम्मत हर मौसम में बरकरार रहनी चाहिए.ऐसा न हो कि पार्टी और राजनैतिक सोच देखकर कीडा अचानक काट ले और पत्रकार सच बोलना शुरू कर दे.

Saturday, November 3, 2007

माँ-बाप

कल जब से सरौता बाई और बसुआ के बारे में पढ़ा तब से दिमाग वंही अटका हुआ है. मैंने भी दो चार बसुआ जैसे इंसान अपनी जिंदगी मे देखें है. एक अनुभव इन घटनाओं से ये मिला कि कुछ लोग कभी कैरियर कभी जेनरेशन गैप के नाम पर अपने माँ-बाप को तकलीफ देतें हैं. असल मे इनकी (माँ-बाप की) सबसे बड़ी जरूरत रूपया पैसा वगैरह नही है इनको बस ये चाहिए कि ये अपनी औलाद के साथ रहें और वो उनकी बातों को भी उसी तन्मयता से सुने जैसे इन औलादों की बचपन से माँ-बाप सुनते आए है. इन्ही सब बातों पर सोचते हुए कुछ लिखा है जो आप सबको दे रहा हूँ.


जिगर के टुकड़े, मैंने कब मांगी थी कायनात तुझसे,
दिया तुने ये क्या कि मेरा घर भी ना रहा मेरा.

जीवन की आस, तेरे हर आंसू पर इक समंदर रोया हूँ मैं,
सिला ये कि तू आंसुओं का सैलाब ले आया जिंदगी मे मेरे.

मेरे लाल, अंगुली जब कटी थी तेरी खून दिल से बहा था मेरे,
और अब कागज के चंद टुकड़े भी भारी हो गए खून पर मेरे.

करवटें बदल-बदल रात भर तुझे सूखे में सुलाती थी तेरी माँ,
मिला ये कि तू ग़मों की बाढ़ ले आया जीवन मे हमारे.

अपनी तो गुजर चुकी है उम्र सारी तू कुछ ऐसा कर
मेरे बच्चे, तेरे बच्चे ना चलदें नक्शेकदम पर तेरे.

माँ - बाप के मुंह से तो बच्चों के लिए हर हाल में दुआ ही निकलती है. मेरी भगवान् से यही प्रार्थना है कि किसी सरौता बाई का बेटा बिसुआ ना बने. आमीन.

Thursday, November 1, 2007

साहित्यकार एक बार फिर जमीन से जुड़ गया

जनता भी कब किस बात पर नाराज हो जाए, या खुश हो जाए, कह पाना मुश्किल है.इस बार साहित्यकारों से शिकायत कर बैठी.बोली; "कैसे लोग हैं आप?कितने दिन हुए, आप लोगों को जमीन से जुड़े हुए नहीं देखा."

साहित्यकार बोला; "अरे, ऐसा क्यों कह रहे हो.जमीन से ही तो जुड़े हैं हम.हमसे ज्यादा कौन जुडा है?"

जनता ने उलाहना देते हुए कहा; "कोई निशान दिखाई नहीं देता जिससे पता चले कि आप जमीन से जुड़े हैं.आप बताईये, आपने ऐसा क्या किया जिससे हमें लगे कि आप जमीन से जुड़े हैं."

साहित्यकार सफाई देते हुए बोला; "देखते नहीं, पापलीन का कुर्ता पहन रखा है हमने.सालों से जूता पालिस नहीं किया.धूमिल, त्रिलोचन, नागार्जुन को छोड़कर किसी की बात भी नहीं करते हम.और क्या करें कि तुम मेरी बात पर विश्वास करोगे. अरे, कभी-कभी तो जमीन को भी शक होता है कि हम उससे जुड़े हैं, या फिर जमीन हमसे."

जनता बोली; "ये सब तो आजकल सभी करते हैं.इसमें नया क्या है?"

साहित्यकार ने कहा; "ठीक है, अगर ऐसी बात है तो आज ही गाँव पर, चमरटोली पर, भैंस पर, भैंस के गोबर पर कुछ लिख डालते हैं."

जनता संतुष्ट नहीं हुई.उसके चेहरे के भाव को साहित्यकार ने भांप लिया.बोला; "और क्या चाहते हो प्रभु? और ऐसा क्या लिखूं कि आपको लगे कि हम जमीन से जुड़े हुए हैं?"

जनता ने कहा; "सोचिये और लिखिए.कुछ भी लिखिए.लेकिन ऐसा लिखिए जिससे हमें लगे कि आप जमीन से जुड़े हुए हैं."

दूसरे दिन साहित्यकार ने निबंध और कहानियाँ लिखनी शुरू की.इन कहानियों और निबंधों में गू, मूत, उल्टी, टट्टी और न जाने क्या-क्या के बारे में लिखा.जनता को विश्वास हो गया कि साहित्यकार एक बार फिर से जमीन से जुड़ गया है.

Wednesday, October 31, 2007

राम बाबू की पीडा और अनिल श्रीनिवास का सच

मौका ऐ वारदात--- पूर्व मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल
मुख्य पात्र ----- राम बाबू और अनिल श्रीनिवास.
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सच्ची घटना है. सिर्फ़ दो दिन पुरानी. कल सारा दिन बंगला समाचार चैनलों पर छाई रही. राम बाबू छ: साल से सज़ा काट रहा एक मुजरिम और अनिल श्रीनिवास पूर्व मेदिनीपुर का पुलिस सुपर. दोनों मे भाई-भाई का रिश्ता है. (अगर कर चोर-चोर मौसेरे भाई तो चोर-पुलिस शायद फुफेरे भाई.) और दोनों गाँव भाई भी है क्योंकि दोनों ही हैदराबाद से है. परसों राम बाबू ने डी.आई.जी. को चिठ्ठी लिखकर शिकायत की कि श्रीनिवास ग़लत ढंग से उनकी धर्मपत्नी के सम्पर्क मे है और उनकी धर्मपत्नी भी उनका कहा नही सुन रही है तो कृपा करके मेरी पत्नी (पर पुरूष के सम्पर्क के कारण धर्म तो रह नही गया) मुझे वापस दिलाई जाय. ये तो हुई राम बाबू की पीड़ा. उधर श्रीनिवासजी ने तो बंगाल ही नही वरन सम्पूर्ण भारत की पुलिस को एक मार्ग दर्शन दिया अपराधियों से निपटने के लिए की अगर अपराध करोगे तो तुम्हे जेल में बंद करके आगे हम कुछ भी कर सकते है. इससे अपराधियों मे एक भय की सृष्टि होगी और अपराध की संख्या का ग्राफ ज्ञान भइया के ब्लॉग ग्राफ की विपरीत दिशा मे भागेगा.
आने वाले समय में यह कदम अपराध शास्त्र मे एक क्रांति का सूत्रपात करेगा. लेकिन हम तो बलिहारी है बंगाल सरकार के जो ऐसे नायाब पुलिस सुपर को पदक प्रदान करने के बजाय कभी ट्रान्सफर करने का या कभी सज़ा देने का सोच रही है.
और तो और इस बात का अनुकरण करके समाज,देश और राजनिती के क्षेत्रों में भी उलेखनीय सुधार की संभावना है. मेरा सभी ब्लॉगर भाइयों से निवेदन है की इस पर विचार किया जाय.

Tuesday, October 30, 2007

दर्द की खेती

बचपन में,
स्कूल में,
स्कूल की किताबों में,
भूगोल में,
इतिहासों में,
मैंने ये पढ़ा था
मुझे ये पढाया गया था कि
भारत गांवों में बसता है और
यह एक कृषि प्रधान देश है,
यंहा के लोगों का मुख्य पेशा खेती करना है.
अब चूंकि मैं बचपन से ही
शहरों मे रहता आया था,
इसलिए उस वक्त इस तथ्य
को समझ नहीं पाया था.
अब लगता है कि
मास्साब ने मुझे ठीक ही पढाया था,
यंहा गाँव ही नही शहरों के लोग भी खेती करतें है,
यंहा हर इंसान किसी दूसरे के लिए दर्द बोता है.
और बोने वाले कि उदारता देखिये वो अपने लिए कुछ नही रखता,
पूरा दर्द उसी के लिए छोड़ देता है, जिसके लिए वो बोता है.
दर्द की खेती हर तरफ़ लहलहा रही है
पूरी दुनिया इस दर्द से लहुलूहान हुई जा रही है.

एक पत्र- जनाब शाहरुख खान के नाम

जनाब शाहरुख़ खान को
बाल किशन का आदाब,

मैं बालकिशन, ब्लोगरों कि दुनिया का एक छोटा सा ब्लॉगर यंहा कुशल पूर्वक हूँ और आपकी कुशलता कि कामना सदैव भगवान से चाहता हूँ। जनाब कुछ दिनों पहले आपका एक विज्ञापन टी वी पर देखा उसमे आप दर्शकों को संतुष्ट न होने कि लिए निवेदन करते हैं (अब हमारें लिए तो ये निवेदन नहीं हुक्म हैं जनाब )। आप फरमाते हैं कि जनता हर हाल में संतुष्ट हैं जो कि होनी नही चाहिऐ। पर जनाब बुरा ना माने तो अर्ज़ करूं कि आप की दृष्टि में कुछ ना कुछ दोष तो ज़रूर हैं जो हम जनता की इतनी सब असंतुष्टियाँ आप को नज़र नहीं आती।

हम संतुष्ट नही हैं बढ़ते भ्रष्टाचार से,
हम संतुष्ट नही हैं महंगाई की मार से,
हम संतुष्ट नहीं हैं आस्ट्रेलिया से हार के,
हम संतुष्ट नही हैं गरीबों और अमीरों के बीच बढ़ते असंतुलन से
ना ही हम संतुष्ट हैं शेयर बाज़ार के व्यापार से,
हम संतुष्ट नहीं है नेताओं के व्यभिचार से,
और भी बहुत से मुद्दे है (मोदी,तहलका,हिन्दी का विकास, लोकतंत्र की रक्षा आदि-आदि)
हम संतुष्ट नहीं है जिनके विचार से.

तो हे सुपरस्टार महोदय आप हम पर संतुष्ट होने का ग़लत इल्जाम लगाकर अपनी दुकान क्यों चमकाना चाहतें है.
आपकी दुकान तो वैसे ही धडल्ले से चल रही है. आपने भी तो एक पुराने (शायद नए भी) सुपरस्टार के नक्शेकदम पर चलते हुए अपनी दुकान चमकाई है. और अगर हम ही असंतुष्ट (आपकी फिल्मों से )हो जाएं तो आपका क्या होगा, हम अगर असंतुष्ट हो जाएं तो इस देश का क्या होगा. इसलिए जनाब से निवेदन है की सलाह देने में जरा सावधानी बरतें.
कहासुनी माफ़ किजिएगा और पत्र का जवाब शीघ्र देने की कृपा करें.
आपका संतुष्ट-असंतुष्ट
बाल किशन

Monday, October 29, 2007

सचिन सुन रहे हो कि नहीं

क्रिकेट बदल गया है।क्रिकेट वाले भी बदल गए हैं.खिलाडी बनने के तरीके बदल गए हैं.सचिन तेंदुलकर ने अनायास ही इतनी मेहनत की.क्रिकेट खेलने के लिए स्कूल बदला.इम्तिहान तक नहीं दिए.कितना पढे हैं, किसी को नहीं मालूम.रमाकांत अचरेकर से सीखने के लिए भाई को अपना पुराना स्कूल छोड़ना पडा.दिन-रात मेहनत करनी पड़ी.कितनी प्रैक्टिस और कितना समय देना पडा तब जाकर बड़े खिलाड़ी बन सके.आगे चलकर कोच से झगडा तक किया.

लेकिन अब समय बदल चुका है।आज किसी को बड़ा क्रिकेटर बनने के लिए इतना बलिदान देने की जरूरत नहीं.अब तो केवल आशीर्वाद चाहिए.कोई जरूरी नहीं कि आशीर्वाद किसी क्रिकेट के कोच का हो.बहुत पछता रहे होंगे सचिन तेंदुलकर कि काश उनके पिताजी नेता होते तो इतनी मेहनत से पीछा छूटता.पिताजी एक रैली करवाते.रेल गाडियाँ बुक करते.लाखों लोगों को के सामने स्टेज पर सचिन को लाते और इन लोगों को बताते कि "मैं नेता हूँ तो क्या हुआ.मेरा बेटा नेता नहीं बनेगा.वो तो केवल क्रिकेट खेलेगा." सचिन स्टेज पर सबके सामने माईक पर आते और हाथ ऊंचा करके दोनों हाथ जोड़ लेते.एक साथ लाखों लोगों का आशीर्वाद मिलता और वे क्रिकेटर बन जाते.

कल लालू जी ने आने वाली पीढ़ी के संभावित क्रिकेट खिलाडियों को अच्छी सीख दे दी है। अब ये इन संभावित खिलाडियों के पिताओं पर निर्भर करता है कि वे नेता बन पाते हैं कि नहीं.भविष्य में कोई लड़का क्रिकेटर बनना चाहता है तो ये उसका कर्तव्य है कि वो पहले अपने पिता को नेता बनने के लिए उकसाये.पिता एक बार नेता बन गया तो फिर उसे लाखों लोगों की रैली करने की जिद करे.रैली में आए लोग ख़ुद ही इस लडके को इतना आशीर्वाद दे देंगे कि उसका क्रिकेटर बनना तय समझिए.

सचिन सुन रहे हो कि नहीं.अर्जुन को अगर क्रिकेटर बनाना है तो पहले नेता बनो.

Saturday, October 20, 2007

विश्वास

हम सब के जीवन में एक समय, एक दौर ऐसा भी आता हैं जब जीवन तमाम मुश्किलों, परेशानियों से घिरा रहता हैं। मित्र , संबंधी विश्वासघात करतें हैं। ऐसे ही गर्दिश के समय लिखी एक रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ।

विश्वास

हुआ आगमन जब प्रकाश का मनु के जीवन में,

प्रिय-प्रिय कहकर लिपट गई परछाई उसके चरणन में,

बन गया संबंध शाश्वत मात्र एक क्षण में,

किया स्वागतम उस मित्र का मनु ने हृदय आंगन में,

बाँध गयी डोरी विश्वास की जीवन के कण कण में,




परिवर्तनशील इस संसार में उलट गई जब समय की धारा,

अपनों के ही हाथों मनु आज एक बार फिर हारा,

घिर गया अन्धकार चंहु ओर से ,




मदद के लिए करता गुहार मनु जान चुका अब ये सच्चाई,

कौन देगा साथ तुम्हारा, इस घोर अन्धकार में,

जब छोड़ चुकी हैं साथ तुम्हारा,

स्वयम तुम्हारी ही परछाई।

Friday, October 19, 2007

शेयर बाजार के बारे में इतना क्यों रोना

हम आम लोग भी अजीब-अजीब बातों से परेशान रहते हैं। जिन बातों में हम अपनी रूचि नहीं रखते, समय आने से उन बातों में भी टांग अडाने से नहीं चूकते. अमिताभ बच्चन का किसान का स्टेटस हो या फिर देश की राजनीति, सलमान खान का हिरन प्यार हो, ये उनका किसी फिल्मी हसीना के लिए प्यार, हम सब बातों के बारे में बोलते हुए सुने और लिखते हुए पढे जाते हैं. वोट देने नहीं जायेंगे लेकिन देश की बिगड़ती राजनीति और राजनीति में बढ़ती हुई गुंडागर्दी के बारे बातें करेंगे. अगर ब्लॉग लिखते हैं तो उनके बारे में लिखेंगे भी.

अब देश के शेयर बाजार के बारे में लिख रहे हैं. एक तरफ़ तो ये रोना रोते हैं कि शेयर बाजार से आम आदमी को कुछ फायदा नहीं होता, ये सब तो बड़े लोगों के लिए हैं. लेकिन जब बाजार गिरता है, तो उसके बारे में लिखने से नहीं चूकते कि आम आदमी का पैसा बाजार में डूब गया. अरे भइया, जब आम आदमी शेयर बाजार में पैसा लगाता ही नहीं, तो फिर डूबने का सवाल कहाँ है. बाजार में गिरावट शुरू हुई नहीं कि डंडा लेकर पिल पड़े नेताओं के पीछे, सेबी के पीछे. क्यों तकलीफ होती है इतनी. ये क्या हमारा आम आदमी के लिए प्यार बोलता है? मुझे नहीं लगता.

शेयर बाजार के चलने का अपना तरीका हैं.और बाजार अपने हिसाब से चलेगा.पूरी दुनिया में ऐसा होता हैं, केवल भारत में नहीं.तो क्यों हम इसके बारे में रोना रोयें.हमें चीजों के बढ़ते दामों पर सरकार से जवाब माँगना चाहिए.हमें न्याय व्यवस्था पर सरकार से जवाब माँगना चाहिए.हमें बाक़ी के क्षेत्रों में सुधार पर सरकार से जवाब मांगना चाहिए.लेकिन हम हैं कि शेयर बाजार के गिरने पर दुखी हैं.हमारे अपने हित के बारे में हम नहीं सोचेंगे तो और कौन सोचेगा.एक बार सोचें और इसपर चिंता करते हुए बोलें और लिखें तो शायद ज्यादा अच्छा होगा.

Wednesday, October 10, 2007

आधा बाबू

पढ़ कर कि बड़ा अटपटा सा लग रह होगा ये नाम, पर ये सच है. हम सब की जिंदगी में एक आध आधा बाबू ऐसे होते है जो हमारी जिंदगी को पूरा करने पर तुले रहते हैं। इनकी कुछ विशेषतायें होती हैं। जैसे ये आप को कभी किसी काम के लिए मना नहीं करेंगे पर क्या मजाल जो कभी आप का काम कर दें। एक तो इनका प्रभामंडल इतना विकासित होता है दूजा इनकी बातो में इतना अत्मविस्वास और सलीका होता है कि आप जानते-बूझते भी, कि ये झूठ बोल रहे हैं, प्रतिवाद नहीं कर सकतें। जैसा कि एक मशहूर शायर साहब ने कहा है:-

वो झूठ भी बोल रहा था बडे सलीके से ,
मैं एतबार ना करता तो और क्या करता।

इनके साथ आप को बहुत संभल कर डील करनी पड़ती है क्योंकि ये एक दोधारी तलवार की तरह कार्य करतें है , जरा सी चूक और आपके काम का काम तमाम। (नोट:- आप कितना भी संभल ले परिणाम वही-काम तमाम )

इनकी एक और विशेषता ये है कि आप कभी भी गुस्से में इनको कुछ भी कहें ये बुरा नहीं मानते हैं। मेरा ये मानना है कि हम सब के पास अपना अपना कम से कम एक-एक आधा बाबू होता है। मेरे पास भी एक है समय आने पर आप लोगों से परिचय जरूर करवाएँगे ।

और अंत में " लगे रहो मुन्ना भाई"।

नोट:- व्यक्तिगत टिपण्णी को आमंत्रित करती इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा ज्ञानजी की " गुन्डी" से मिली।

Tuesday, October 2, 2007

जमाने का गर्द और इंसानियत का दर्द

नेता बनने की कोशिश की, नहीं बन सका. जब तक स्कूल में था, तब तक छात्र-राजनीति स्कूल में वर्जित थी. कालेज में पहुंचा तो वहाँ 'छात्र नेताओं' को देखकर होश फाख्ता हो गए. सभी छात्र-नेता कम से कम चालीस साल की उम्र के थे. तो नेता बनने का सारा चांस खो दिया. अभिनेता बनने की कवायद जैन विद्यालय में किए गए नाटकों से आगे नहीं पहुँच सकी. दिन गुजरते गए. एक दिन ख़ुद को ऎसी जगह पाया जहाँ नेता और अभिनेता बनने का विचार मन से जाता रहा. रोज सबेरे मजदूर नेताओं की हाय-हाय सुनने को मिलती थी. बाद में पता चला कि आम आदमी बन कर जीना पडेगा. वैसे कुछ बुरा नहीं है, बुरी बात केवल इतनी सी है कि आम आदमी बनकर जीने में बड़ी मसक्कत की जरूरत है. बकौल निदा फाज़ली साहब;

मन बैरागी, तन अनुरागी कदम-कदम दुशवारी है
जीवन जीना सहल न समझो, बहुत बड़ी फनकारी है

समझ गए। रोज, नित नई फनकारी दिखाने का मौका देती है जिंदगी. जहाँ तक हो सकता है, दिखाते हैं. कभी-कभी सरेंडर करने की जरूरत महसूस होती है तो वो भी कर देते हैं.

पिछले सात महीनो से हिन्दी ब्लॉग पढ़ने की आदत सी हो गयी है। एक-दो को तो अच्छे ब्लॉगर बनने की सलाह भी दे चुका हूँ. कुछ लोगों ने सलाह के लिए क्रेडिट भी दिया. आज किसी ने फिर से कहा तो मैंने सोचा कि एक ब्लॉग बना ही लूँ. और फिर आम आदमी को चाहिए भी क्या. रोटी, कपडा, मकान और एक ब्लॉग. पहले के तीन तो थे, चौथे की कमी थी, वो भी आज हो गया.

बात जमने-जमाने की नहीं है. बात है तो केवल इतनी सी कि जमाने का गर्द और इंसानियत का दर्द, इन दो चीजों की बात जब तक मन में आयेगी, ब्लागरी भी चलती रहेगी.