Wednesday, November 28, 2007

बालकिशन की टिप्पणी पॉलिसी




हिन्दी में भी गेस्ट पोस्ट का चलन शुरू हो गया है। सामुहिक ब्लॉगों से गेस्ट पोस्ट ठेलने की दिशा में चल रहे हैं लोग। लिहाजा मैने भी ज्ञान भैया से एक गेस्ट पोस्ट झटकी है। इसमें विचार उनके पर मेरे नाम से हैं। मामला गड्ड-मड्ड सा है। पर आप पोस्ट पढ़ें -



बालकिशन की टिप्पणी पॉलिसीumbrella

Corporate Concepts बालकिशन मेथॉडिकल ब्लॉगर हैं। बोले तो ब्लॉगिंग में केल्कुलेटेड इनवेस्टर। यह टिप्पणी पॉलिसी उनके ब्लॉग पर टिप्पणी करने/दिखाने/उसके स्वामित्व/उसे उड़ाने से सम्बन्धित नहीं है। उनके ब्लॉग पर टिप्पणी करने के बारे में तो सब खुला खेल फरुख्खाबादी है फिलहाल। पोस्ट अगर राखी सावंत पर हो और आप टिप्पणी टुनटुन या मुकरी या कच्छ के रन में पाये जाने वाले गधों के बारे में भी करें तो चलेगा। अभी तो नयी नयी दुकान है - अत: टिप्पणी होनी चाहिये बस।

यह टिप्पणी पॉलिसी बालकिशन द्वारा की जाने वाली टिप्पणियों के विषय में है। मेथॉडिकल तरीके से यह बिन्दुवार स्पष्ट की जा रही है -

  1. ब्लॉगों को तीन मुख्य केटेगरीज में बांटा जाये - ब्ल्यू-चिप, मिडकैप और स्माल कैप। यह केटेगरियां प्रतिमाह रिव्यू की जायें।
  2. अपनी टिप्पणियों का इंवेस्टमेण्ट अनुपात तय कर ब्ल्यू-चिप, मिडकैप और स्माल कैप ब्लॉग्स पर टिप्पणी को रेशनलाइज किया जाये। यह इंवेस्टमेण्ट किसी एक के पक्ष में झुका हुआ न रहे।
  3. इंवेस्टमेण्ट के रिटर्न मॉनीटर किये जायें। जिस स्टॉक (सॉरी, ब्लॉग) से रिटर्न न मिल रहे हों, उनपर स्टॉप-लॉस की लिमिट तय की जाये। रिव्यू महीने की बजाय 10 दिन में किया जाये और यह कदापि न माना जाये कि स्टॉक (सॉरी, ब्लॉग) को 2-3 साल के सिनारियो से रखना है। ब्लॉग की हाफ-लाइफ भी आकलित की जाये। वह इसलिये कि कुछ ब्लॉगों की मॉर्टेलिटी रेट बहुत ज्यादा है।
  4. इसके लिये अगर फोकट में ब्लॉग एडवाइजर मिल सकता हो तो उसके ब्लॉग पर मुक्त-हस्त से टिप्पणी कर फीस देने का इंतजाम भी किया जाये। ऐसे दो एक्स्पर्ट शिवकुमार और आलोक अ.ब. पुराणिक हैं। औरों की भी तलाश की जाये।
  5. कुछ टिप्पणियों का प्रतिशत पेनी स्टॉक (सॉरी, ब्लॉग) के लिये रिजर्व कर लिया जाये। इन ब्लॉगों के लिये फीड एग्रेगेटरों के मूवमेण्ट पर नजर रखी जाये। इनसे टिप्पणी रिटर्न अगर अच्छे हों तो इन्हे विश्लेषण के आधार पर मिडकैप और स्माल कैप में वर्गीकृत कर दिया जाये।
  6. इस टिप्पणी पॉलिसी का भी तीन महीने में एक बार रिव्यू किया जाये।

---- ज्ञानदत्त पाण्डेय

(बाल किशन की चहुं ओर की जा रही टिप्पणियों से प्रभावित हो कर यह पोस्ट लिखी गयी है।)


Tuesday, November 27, 2007

ब्लॉग सुधारक च निखारक गीत

ब्लॉग सुधारक च निखारक गीत
(तर्ज़- तू मुझे सुना मैं तुझे सुनाऊँ अपनी प्रेम कहानी)
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तू मुझे टिपिया मैं तुझे टिपियाऊँ
जमेगी ब्लॉग कहानी
हाँ अपनी ब्लॉग कहानी

एक के बदले एक मिलेगी
दूजी मांग बेमानी
हाँ दूजी मांग बेमानी

कभी-कभी जो समय ना हो तो
ठेल तू सकता अपनी पोस्ट पुरानी
हाँ अपनी पोस्ट पुरानी

विषयों की कोई कमी नही है
क्या कविता क्या कहानी
हाँ क्या कविता क्या कहानी

रिश्तों पर भी पोस्ट है बनती
कभी अम्मा कभी नानी
हाँ कभी अम्मा कभी नानी

गाली-गलौज भी शुरू हुए अब
करते कुछ मनमानी
हाँ करते कुछ मनमानी

एक ही दिन मे तीन-तीन ठेलें जो
उनकी कलम दिवानी
हाँ उनकी कलम दिवानी

Saturday, November 24, 2007

एक कोशिश




ये बस्ती तो कब कि उजड़ चुकी है.
अब कौन सा तूफान आना बाकी है.

इंसान को तो कब का मार चुके हम
अब तो केवल भगवान् बाकी है.

मुश्किलें तो तमाम हल कर ली मैंने
काम मगर कुछ आसन बाकी है.

जुस्तजू मे तेरी, जिंदगी, हम खो गए
अब तो बस मौत का अरमान बाकी है.

वजूद भले ही मिट गया उनका जंहा से
रह गए फ़िर भी कुछ निशान बाकी है.

सब चले ही जाते है यंहा से एक दिन
छिपी मगर शब्दों मे एक पहचान बाकी है.

Thursday, November 22, 2007

कलकत्ते में नंदीग्राम, तसलीमा नसरीन और कर्फ्यू

कल का दिन कोलकाता के इतिहास मे एक काला दिन गिना जायेगा. हर आम आदमी तो यही कह रहा है. वैसे इतिहास लिखने का काम ख़ास लोग करते हैं, सो ऐसा होगा या नहीं, कहना मुश्किल है. एक समूह ने नंदीग्राम के मुद्दे पर सभा कर शहर में विरोध प्रदर्शन करने का कार्यक्रम बनाया था. वैसे पिछले कुछ दिनों से विरोध प्रदर्शन जारी है. संगठनों ने विरोध के लिए अलग-अलग दिन मुक़र्रर कर रखे हैं. सबको चिंता है कि कहीं विरोध प्रदर्शन करने में वे पीछे नहीं रह जाएँ. विरोध करना कोई बुरी बात नहीं लेकिन विरोध करते हुए अपना स्वार्थ साधना बुरी बात जरूर है.



वैसे तो इस बार विरोध प्रदर्शन नंदीग्राम के मुद्दे पर था लेकिन नंदीग्राम के मुद्दे के साथ तसलीमा नसरीन का भी मुद्दा जुड़ गया. विरोध प्रदर्शन करने वाले कह रहे थे कि तसलीमा इस्लाम विरोधी हैं, ऐसे में उन्हें यहाँ रहने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. लेकिन ये विरोध प्रदर्शन तक तो ठीक था लेकिन बाद में पता चला कि इसके बहाने योजनाबद्ध तरीके से पुलिस पर आक्रमण किया गया. लोगों का कहना है कि ये भीड़ चाहती थी कि पुलिस गोली चला दे.




यह तो घटना थी. दूसरी, इसके पीछे की कहानी है कि कैसे टी.वी. और सेल फ़ोन के द्वारा अफवाह फैलती है या फैलाई जाती है. टी.वी. पर न्यूज़ फ्लैश किया गया कि पार्क स्ट्रीट मे हंगामा शुरू हो गया है. ठीक उसी समय मेरे पिताजी पार्क स्ट्रीट मे थे. उनसे फ़ोन पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि यंहा तो सब शांत ही लग रहा है. गाडियाँ आ जा रही है. बच्चे मैदान मे खेल रहे है. शाम ४ बजे मैं अपने डॉक्टर के चेंबर मे था. मेरे सेल पर किसी ने फोन कर के बताया कि मानिकतल्ला में भी काफ़ी भीड़ इकठ्ठी हो गई है शायद वंहा कोई शांति-जुलूस निकाला गया है. मैंने ये बात बगल मे बैठे एक सज्जन को बताई तो उन्होंने तुरंत अपना सेल फ़ोन उठाया और किसी को फ़ोन करते हुए सूचना दी; " अरे भाई, मानिकतल्ला और काकुड़गाछी मे भी झमेला शुरू हो गया है वंहा कर्फ्यू लगने वाला है."

अब जिन सज्जन ने ये सुना होगा उन्होंने कर्फ्यू को करीब तीन किलोमीटर आगे तक चलाकर उल्टाडांगा तक जरुर पहुँचा दिया होगा. एक सज्जन तो डॉक्टर साहब के आते ही उनसे कहने लगे; "सर हिंदू-मुस्लिम राइट शुरू हो गया है."


अब जरा तीसरा पक्ष भी देखिये- नेताओं का. उन्होंने नंदीग्राम के मुद्दे के साथ तसलीमा नसरीन का मुद्दा, जो कि पूरी तरह से एक धार्मिक मुद्दा है, को जोड़ कर किस तरह की दायित्व-हीनता का परिचय दिया है. ऐसे माहौल में कुछ भी हो सकता था. शायद साम्प्रदायिक दंगे भी. ये नेता भीड़ का चरित्र जानते - बुझते भी इस ढंग कि हरकते करते हैं कि इनकी गलतियों की सज़ा आम आदमी को झेलनी पड़ती है.

भीड़ की कोई शक्ल नही होती
भीड़ को कोई अक्ल नही होती

भीड़ का कोई धर्म नही होता
भीड़ का कोई ईमान नही होता

भीड़ तो जानती है सिर्फ़ आग
भीड़ तो करती है सब राख

Friday, November 16, 2007

बालकिशन मीट्स महात्मा-सपने में

ब्लॉग विचरण का काम भी बड़ा रिस्की है. देखिये न, कल भाई प्रेमेन्द्र (महाशक्ति) के ब्लॉग पर विचरण करते हुए महात्मा गाँधी के बारे मे उनकी टिपण्णी के दर्शन हुए. प्रमेन्द्र भाई ने एक जगह लिखा; "महात्मा गाँधी के बारे में अनुगूंज आयोजित करें, बड़ा मज़ा आएगा." मैं ठहरा ब्लॉग-गीरी में नया रंगरूट, सो मैंने अपने मन की बात वहाँ रखते हुए लिखा; "महात्मा गाँधी कोई मज़ा लेने की वस्तु नहीं हैं." मेरे हिसाब से मैंने अपने मन की बात लिख दी. लेकिन ये क्या. एक बेनामी भाई मेरे पीछे पड़ गए. अपनी बात को सही साबित करने के लिए इन बेनामी भाई ने आरकुट पर महात्मा के बारे में किए गए किसी सर्वेक्षण को दस्तावेज तक बता डाला. ब्लागिया नया हो, तो दो टिपण्णी उसे सुख दे सकती हैं, और एक छोटी सी प्रतिकूल टिपण्णी दुखी कर सकती है. दुःख से ग्रस्त मैं पूरा दिन सोचता रह गया कि प्रमेन्द्र भाई की पोस्ट पर टिपण्णी करके मैंने गलती कर दी.

कहते हैं अगर किसी बात के बारे में हम ज्यादा सोचें तो वो बात सपने में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ती. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. सपने में महात्मा मिल गए. आपको झूठ लग रहा है? क्यों नहीं मिल सकते. अगर मुन्ना जैसे 'भाई' को साक्षात् मिल सकते हैं तो मुझे क्या सपने में भी नहीं मिल सकते. मुन्ना ने भाई-गीरी की फिर भी उन्हें महात्मा मिले. ख़ुद ही सोचिये, जब उन्हें महात्मा साक्षात मिल सकते हैं तो मुझे कम से सपने में तो मिल ही सकते हैं. मेरा अपराध तो केवल ब्लागिंग करने तक सीमित है. आप माने या न माने लेकिन मैं तो वही कहूँगा जो मैंने सपने में देखा.

हाँ, तो महात्मा मिल गए. छूटते ही बोले; "और बल किशन, कैसे हो? दिन कैसे कट रहे हैं?"

मैंने कहा; "बापू, दिन ठीक ही गुजर रहे हैं. अब तो शाम भी ठीक ही गुजरती है. जब से ब्लागिंग शुरू की है, दिन और शाम दोनों अच्छे से गुजर रहे हैं. दिन में टिपण्णी लिखते हैं और शाम को पोस्ट."

बापू ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा; "ब्लागिंग, ये क्या बला है?"

मैंने कहा; "पूछिए मत बापू, भयंकर कला है. ब्लागिंग में लोग जो सोचते हैं, वही लिखते हैं. वैसे कुछ-कुछ लोग सोचकर भी लिखते हैं."

"अच्छा, मतलब डायरी जैसा कुछ होगा"; बापू ने कहा।

"कुछ-कुछ वैसा ही है. डायरी जैसा ही. लेकिन डायरी में ज्यादातर लोग लिखने से पहले सोचते हैं. लेकिन ब्लॉग में पहले लिखते हैं, फिर सोचते हैं"; मैंने उन्हें बताया.

"अच्छा, क्या विषय होते हैं ब्लॉग में लिखने के?"; बापू ने जानना चाहा।

"बहुत सारे विषय हैं. कविता है, कविता की चिता है. गजल है, कहानी है. दादी है, नानी है. खाना है, साथ में अम्बानी का खजाना है. राजनीति है, कूटनीति है. माँ है, सिनेमा है. बहुत सारे विषय हैं. और तो और आपके ऊपर सर्वे भी एक विषय है"; मैंने उन्हें बताया.

"मेरे ऊपर सर्वे! ऐसा क्यों? वैसे किस बात पर सर्वे था ये?"; बापू ने जानकारी चाही।

"छोडिये न बापू. आप मुझसे मिले हैं तो कोई और बात करें, ब्लागिंग की बातें छोडें"; मैंने विनम्रता पूर्वक कहा.

"नहीं, फिर भी बताओ तो सही"; बापू ने कहा।

मैंने कहा; "तो सुनिए, सर्वे इस बात को लेकर था कि आपको राष्ट्रपिता का संबोधन किया जाना चाहिए या नहीं."

"इसमें सर्वे कराने की क्या बात है? वैसे भी मैंने ख़ुद को कभी राष्ट्रपिता नहीं माना. जो कुछ हुआ, मेरे जाने के बाद हुआ. इसमें बहस करने की जरूरत कहाँ आन पडी"; बापू ने कहा.

मैंने कहा; "ये तो आप न कहते हैं. इतनी बात अगर समझ आ जाए, तो समस्या ही कहाँ है."

बोले; "और क्या विषय चल रहे हैं अभी ब्लॉग की दुनिया में?"

मैंने बताया; "पिछले कई दिनों से बंदरों ने दिल्ली में जो हड़कंप मचाया, अभी वही सबसे हित विषय है."

"अच्छा, दिल्ली में बंदरों ने हड़कंप मचा रखा है. इन बंदरों में मेरे वे तीन बन्दर भी हैं क्या?"; बापू ने जानना चाहा.

मैंने कहा; "क्या बापू, आपका भोलापन भी अद्भुत है. आपने केवल तीन बन्दर दिए थे. बात पुरानी हो गई है. आज उन तीन बंदरों को कौन पूछता है. आज हमारे देश में बन्दर ही बन्दर ही बन्दर हैं. और आपको बताऊँ, तो दिल्ली के बंदरों की चर्चा केवल इसलिए हो रही है कि दिल्ली देश की राजधानी है. वरना देश के किस भाग में बन्दर नहीं हैं."

"तो दिल्ली के बंदरों से कौन ज्यादा परेशान है?"; बापू ने जानना चाहा.

मैंने कहा; "एक आदमी दूसरे आदमी से परेशान है. जाहिर है बंदरों से परेशानी भी बंदरों को ही हुई होगी. पूरी बात ही शायद इसीलिए हो रही है क्योंकि कुछ बंदरों को परेशानी हुई है. दिल्ली की मुख्यमंत्री कल परेशान दिख रही थीं. कह रही थीं कि....."

मैं उन्हें पूरी बात बताने वाला था कि नींद खुल गई. उठकर बैठ गया. सपना टूट गया. कोई बात नहीं, अगर अगली बार बापू मिले तो 'बंदरों' की कहानी उन्हें जरूर बताऊँगा.

Sunday, November 4, 2007

पत्रकारों को भी खुद से कुछ सवाल करने चाहिए

पत्रकारों ने ही नाम दिया था, 'बाहुबली'.आज जिन्हें पत्रकारों और टीवी चैनल ने 'बाहुबली' बना दिया है, उन्हें बचपन में हम गुंडा और लुच्चा जैसे नामों से जानते थे.बढ़िया पैकेजिंग करके चीजों को बेचने की ललक ने उन्हें नया नाम दे दिया, 'बाहुबली'.शाब्दिक अर्थ निकालें तो पता चलता है कि बाहुबली वह होता है जिसके बाहुओं में बल हो.लेकिन अच्छी पैकेजिंग के चक्कर में सब गड़बड़ हो गया.जिन्होंने पैकेजिंग की उन्होंने यह नहीं सोचा कि बंदूकों, राईफलों और चमचों के बल पर कोई बाहुबली कैसे बन सकता है.उसे तो सीधे और सटीक शब्दों में गुंडा कहा जाना चाहिए.जब बाहुबली नाम दिया था, तब इमानदारी नहीं दिखी, अब पिट गए तो इमानदारी का रोना रो रहे हैं.

सवाल पूछने ऐसे लोगों के पास क्यों जाते हैं ये पत्रकार?सवाल पूछने प्रशासन के पास क्यों नहीं जाते?प्रशासन से क्यों नहीं पूछते कि एक कत्ल हुआ है, उसके बारे में आपने क्या किया?गुंडे और लुच्चे तो लोकतंत्र का सहारा लेकर पत्रकारों को समझा देंगे कि 'हमें जनता ने वोट दिया है, इसलिए हम विधायक बने हैं.'इस बाहुबली को सवाल बर्दाश्त नहीं हुआ.कायरों को अक्सर सवाल बर्दाश्त नहीं होता और वे हिंसा पर उतर आते हैं.चुनावों के समय में जब इन्ही 'बाहुबलियों' के पीछे-पीछे कैमरा लेकर घूमते हैं तब ख्याल नहीं रहता कि हम जिसे टीवी पर दिखाने जा रहे हैं वह असल में एक अपराधी है,एक कायर है.

ऐसे लोगों को पत्रकारों द्वारा किए गए सवाल चुभेंगे ही.चुनावों से पहले ऐसे लोगों के कारनामें जनता के सामने लाने में हिचकते क्यों हैं ये पत्रकार?शायद उस समय ये सोचते हैं कि लोकतंत्र उफान पर है और हमने ख़ुद को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ घोषित कर रखा है.इसलिए हमारा कर्तव्य है कि जनता के बीच ऐसे लोगों की हिस्ट्री बोलकर हम लोकतंत्र के उफान को नुकशान न पहुचाएं.जिस विधायक ने पत्रकार की पिटाई की, क्या उसने पहले कभी अपराध नहीं किया?अगर जवाब हाँ में है, तो ये पत्रकार तब कहाँ थे?समय देखकर सच की आवाज बुलंद करने का ये नाटक कब तक चलायेंगे ये पत्रकार?एक पिट गया तो बाकी मुंह पीट कर लाल कर रहे हैं.कोई नीतिश कुमार को सड़क छाप मुख्यमंत्री बता रहा है तो कोई सरकार के कार्यों को सिरे से नकार रहा है.

मेरा सवाल इन बुद्धिजीवी पत्रकारों से है.अगर आप में से कोई पत्रकार कोई अपराध कर बैठे तो क्या उसके जिम्मेदार आपके चैनल के मालिक होंगे?मैं किसी तरह से इस गुंडे विधायक का पक्ष नहीं ले रहा, लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि पत्रकारों के अन्दर सच बोलने की हिम्मत हर मौसम में बरकरार रहनी चाहिए.ऐसा न हो कि पार्टी और राजनैतिक सोच देखकर कीडा अचानक काट ले और पत्रकार सच बोलना शुरू कर दे.

Saturday, November 3, 2007

माँ-बाप

कल जब से सरौता बाई और बसुआ के बारे में पढ़ा तब से दिमाग वंही अटका हुआ है. मैंने भी दो चार बसुआ जैसे इंसान अपनी जिंदगी मे देखें है. एक अनुभव इन घटनाओं से ये मिला कि कुछ लोग कभी कैरियर कभी जेनरेशन गैप के नाम पर अपने माँ-बाप को तकलीफ देतें हैं. असल मे इनकी (माँ-बाप की) सबसे बड़ी जरूरत रूपया पैसा वगैरह नही है इनको बस ये चाहिए कि ये अपनी औलाद के साथ रहें और वो उनकी बातों को भी उसी तन्मयता से सुने जैसे इन औलादों की बचपन से माँ-बाप सुनते आए है. इन्ही सब बातों पर सोचते हुए कुछ लिखा है जो आप सबको दे रहा हूँ.


जिगर के टुकड़े, मैंने कब मांगी थी कायनात तुझसे,
दिया तुने ये क्या कि मेरा घर भी ना रहा मेरा.

जीवन की आस, तेरे हर आंसू पर इक समंदर रोया हूँ मैं,
सिला ये कि तू आंसुओं का सैलाब ले आया जिंदगी मे मेरे.

मेरे लाल, अंगुली जब कटी थी तेरी खून दिल से बहा था मेरे,
और अब कागज के चंद टुकड़े भी भारी हो गए खून पर मेरे.

करवटें बदल-बदल रात भर तुझे सूखे में सुलाती थी तेरी माँ,
मिला ये कि तू ग़मों की बाढ़ ले आया जीवन मे हमारे.

अपनी तो गुजर चुकी है उम्र सारी तू कुछ ऐसा कर
मेरे बच्चे, तेरे बच्चे ना चलदें नक्शेकदम पर तेरे.

माँ - बाप के मुंह से तो बच्चों के लिए हर हाल में दुआ ही निकलती है. मेरी भगवान् से यही प्रार्थना है कि किसी सरौता बाई का बेटा बिसुआ ना बने. आमीन.

Thursday, November 1, 2007

साहित्यकार एक बार फिर जमीन से जुड़ गया

जनता भी कब किस बात पर नाराज हो जाए, या खुश हो जाए, कह पाना मुश्किल है.इस बार साहित्यकारों से शिकायत कर बैठी.बोली; "कैसे लोग हैं आप?कितने दिन हुए, आप लोगों को जमीन से जुड़े हुए नहीं देखा."

साहित्यकार बोला; "अरे, ऐसा क्यों कह रहे हो.जमीन से ही तो जुड़े हैं हम.हमसे ज्यादा कौन जुडा है?"

जनता ने उलाहना देते हुए कहा; "कोई निशान दिखाई नहीं देता जिससे पता चले कि आप जमीन से जुड़े हैं.आप बताईये, आपने ऐसा क्या किया जिससे हमें लगे कि आप जमीन से जुड़े हैं."

साहित्यकार सफाई देते हुए बोला; "देखते नहीं, पापलीन का कुर्ता पहन रखा है हमने.सालों से जूता पालिस नहीं किया.धूमिल, त्रिलोचन, नागार्जुन को छोड़कर किसी की बात भी नहीं करते हम.और क्या करें कि तुम मेरी बात पर विश्वास करोगे. अरे, कभी-कभी तो जमीन को भी शक होता है कि हम उससे जुड़े हैं, या फिर जमीन हमसे."

जनता बोली; "ये सब तो आजकल सभी करते हैं.इसमें नया क्या है?"

साहित्यकार ने कहा; "ठीक है, अगर ऐसी बात है तो आज ही गाँव पर, चमरटोली पर, भैंस पर, भैंस के गोबर पर कुछ लिख डालते हैं."

जनता संतुष्ट नहीं हुई.उसके चेहरे के भाव को साहित्यकार ने भांप लिया.बोला; "और क्या चाहते हो प्रभु? और ऐसा क्या लिखूं कि आपको लगे कि हम जमीन से जुड़े हुए हैं?"

जनता ने कहा; "सोचिये और लिखिए.कुछ भी लिखिए.लेकिन ऐसा लिखिए जिससे हमें लगे कि आप जमीन से जुड़े हुए हैं."

दूसरे दिन साहित्यकार ने निबंध और कहानियाँ लिखनी शुरू की.इन कहानियों और निबंधों में गू, मूत, उल्टी, टट्टी और न जाने क्या-क्या के बारे में लिखा.जनता को विश्वास हो गया कि साहित्यकार एक बार फिर से जमीन से जुड़ गया है.