Wednesday, June 3, 2009

ओसोलन मोशावा के काव्य संग्रह 'मिराज एंड वाटर' से एक कविता

समय का इतना अभाव है कि ब्लॉग लिखने तक की फुर्सत नहीं है. काम से फुर्सत निकालता भी हूँ तो बीमार होने के लिए. बीच-बीच में मन खिन्न हो जाता है. मित्रों का ब्लॉग न पढता तो शायद बीमारी बनी रहती. काम करने की फुर्सत नहीं देती. ब्लॉग के अलावा साथी हैं, कुछ किताबें.

हाल ही में इथियोपिया के प्रसिद्द कवि ओसोलन मोशावा का काव्य संग्रह 'मिराज एंड वाटर' पढ़ रहा था. एक कविता पढी. अच्छी लगी. कोशिश की है, भावानुवाद करने की. पता नहीं कितना सफल रहा. लेकिन जो कुछ निकला, सोचा आपके साथ बाँट लूं.

कौन किसे बनाता है?
मनुष्य को व्यवस्था
या
व्यवस्था को मनुष्य?

कौन किसे चलाता है?
मनुष्य व्यवस्था को?
या
व्यवस्था मनुष्य को?

कौन किससे पाता है?
मनुष्य व्यवस्था से?
या
व्यवस्था मनुष्य से?

उत्तर मिलना कठिन है?
शायद हाँ

व्यवस्था को गढ़ लेने की चाहत
और
उससे होता मन आहत
जब उदास होता है
अन्दर से रोता है

तब सवाल पूछता है
मनुष्य से
सवाल पूछता है
व्यवस्था से

क्या मिला व्यवस्थित होकर?
एक व्यथित मन?
एक थका हुआ तन?
क्या यही है तुम्हारा धन?