दिन की रोशनी की आवाज़ कानों में उड़ेलते
चेहरे पर फैले पसीने की सनसनाहट का शोर मचाते
आते होंगे किसी पर्वत की गहराई से
निकलकर किसी आसमान की तराई से
न जाने कौन सी गरम हवा वाली शहनाई से
तकरीरों की झंझट का कोई स्टीली-शीट ओढ़े हुए
फटे हुए कुर्ते का दाहिना हाथ मोड़े हुए
पेड़ की छाल और पत्तों की चादर संभालते हुए
किसी अमीर की क्रिकेट टीम की टोपियाँ उछालते हुए
न जाने कौन-कौन से मर्यादाओं से खून निकालते
अदालतों के दरवाजे पर हथौड़ा चलाते हुए
हड्डियों के बुखार से लोहा गलाते हुए
मौसम को अपने कांख में दबाये हुए
गले की फ़सान में अकुलाये हुए
आयेंगे और रह जायेंगे, छाएंगे
और वापस नहीं जायेंगे
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6 comments:
वापस कहां जा रहे हैं हम?
भारतेन्दु से अज्ञेय तक खंगालते,
टटोल रहे हैं अर्थ।
कोई तो बतायेगा हड्डियों का तापमान?
चीयरलीडराओं से ले
सुनन्दा/थरूर/दुबई/छोटा शकील,
कोर्ट-कचहरी-वकील,
सब तलाश डाले।
कौन सी चाभी से खुलते हैं,
इस कविता के ताले?!
बाबू बाल किशन की जै हो
कविता का फर्स्ट हाफ तो बिलकुल ही उपमाओं से भरपूर है !
हड्डियों के बुखार से लोहा गलाते हुए
मौसम को अपने कांख में दबाये हुए
A soul stirring creation !
Badhaaii
bhadiya
looks amazing
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