अपनी (अ) साहित्यिक जरूरतों और कुछ बेकार सी व्यस्तता के कारण कई दिनों या शायद कई महीनों बाद ब्लॉग पर वापस आना हुआ. बीच-बीच में कुछ कविता वगैरह ठेल दिया करता था. लेकिन आज राहत के साथ आए. राहत फतह अली खान के साथ नहीं. वो तो बेचारे तीन-चार दिन पहले ही पाकिस्तान वापस लौट चुके हैं. राहत से मेरा मतलब टाइम निकाल के. खैर, आते ही जिस बात ने मेरी नज़र अपनी तरफ़ खींच ली (जी हाँ, लगा जैसे रस्सी बांधकर खीच ली), वो थी साहित्यकार बनाम ब्लॉगर. बहुतों ने हाथ साफ कर लिया है. कई तो पूरी तरह से नहा भी चुके हैं. बोधि भाई, अजदक जी, प्रत्यक्षा जी, headmaster saab मसिजीवी, शिवजी और अभय जी और कई है जिन्होंने अपने घी होने के धर्म का सफलतापूर्वक निर्वाह किया और पिघल-पिघल आग में जा घुसे.काकेश जी, समीर भाई,ज्ञान भइया , दी ग्रेट पंगेबाज,नंदिनी जी , गौरव जी वगैरह ने भी इस मंहगाई के जमाने में टिपण्णी रुपी घी झोंक दिया.
वैसे इतने दिनों गायब रहकर मैंने ब्लागर्स की कुछ विशिष्ट प्रजातियों पर गहन शोध किए हैं और चाहता हूँ की नतीजा आपतक पहुँचा दूँ. और क्यों न पहुँचाऊँ? कौन सा सेंसर बोर्ड आदे आएगा इस काम में? आपको बता दूँ कि मेरे शोधानुसार कुल चार तरह के साहित्यकार और ब्लॉगर होते हैं.
एक तो वे साहित्यकार जो पाठकों या टिप्पणियों के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त होतें हैं. उनके पास ये पाठक और उनकी टिप्पणियां खुदबखुद पहुँच जाती है. और अगर ना भी पंहुचे तो उनकी अनुपस्थिति से बगैर प्रभावित हुए वे अपना लेखन जारी रखतें है. इस प्रजाति के साहित्यकार लगभग विलुप्त हो चुके है. और इनकी संख्या नगण्य हैं.
दूसरे प्रकार के वे ब्लोगर होते है जिन्हें पाठकों (और उपधियायों) और उनकी टिप्पणियों की कोई कमी नहीं महसूस होती है. इसके पीछे कारण ये बताया जाता है की ये स्वयं भी बहुत बड़े पाठक होते है और अपने ब्लॉगर भाइयों को कभी भी टिप्पणियों की कमी महसूस नहीं होने देते. इस प्रजाति के ब्लोगर बड़े निर्दोष प्रकार के होते है और बड़े ही निर्विकार भाव से अपनी टिपण्णी का खजाना लुटाते रहतें हैं. इनका मूल-मंत्र "सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय" होता है. खाकसार की गिनती भी चंद महीनों पहले तक इसी प्रजाति के ब्लोगरों मैं होती थी. और अब वो उसी रुतबे को वापिस हासिल करने को बेताब और कर्मरत है.
तीसरे प्रकार के वे साहित्यकार कम ब्लॉगर होते हैं जो किसी भी क्षेत्र मे कोई झंडा नहीं गाड़ सके हैं. इस प्रजाति के साहित्यकार/ब्लॉगर अपनी प्रजाति को लेकर दुविधा और संशय मे रहते हैं कि वे अपने आप को साहित्यकार माने या फ़िर एक ब्लॉगर. और यही दुविधा इनकी असफलता का कारण बनती है. ब्लागिंग ग्रह पर यह प्रजाति प्रचुर मात्रा मैं पाई जाती है. इनका लिखा भी बहुधा लोगों को समझ नहीं आता है. ये एक अलग विचार का मुद्दा बन सकता है कि इनका लिखा पाठको को न समझ मे आना इनकी कमी है या फ़िर पाठकों की. इस प्रजाति के प्रभाव के कारण ही ब्लागिंग ग्रह से बाहर के प्राणी यह कहने की हिमाकत करतें है कि "असफल साहित्यकारों का जमावड़ा -हिन्दी ब्लागिंग"
ब्लागरों कि चौथी प्रजाति बड़ी ही अजीब किस्म कि होती है. इन्हे ना साहित्यकार से कोई सरोकार है ना ब्लॉगर से. ये "स्वान्त सुखाय" लिखते है. जब मन हुआ कुछ लिख दिया और जब मन हुआ टिपिया दिया. इन्हे अपनी प्रजाति को लेकर कोई संदेह नही हैं. और ये शुरू से जानते हैं कि ये कंही भी कोई झंडा नहीं गाड़ सकते. नाचीज के अन्दर वर्तमान मे इसी प्रजाति के गुण मौजूद हैं और किसी तरह से इस प्रभाव से मुक्त होकर अपनी आप को सफल साहित्यकार या सफल ब्लॉगर बनाने की जुगाड़ मे है. इस सन्दर्भ मे सभी प्रजातियों के सुझावों का स्वागत हैं.
DISCLAIMER:-
किसी भी प्रकार के विवाद से बचने के लिए यंहा उदाहरणार्थ साहित्यकारों एवं ब्लागरों के नाम नही दिए गए हैं.
सभी प्रकार की प्रजातियों से अनुरोध हैं की शोध के परिणामों के अनुसार अपना मूल्यांकन कर लें. शोध पर आपकी टिप्पणियों का स्वागत हैं. टिप्पणियों मे अगर अपनी प्रजाति को स्पेसिफाई कर सकें तो आगामी शोधों के लिए ये एक अमूल्य धरोहर साबित होगी.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
17 comments:
सभी प्रकार की प्रजातियों से अनुरोध हैं की शोध के परिणामों के अनुसार अपना मूल्यांकन कर लें
आपकी अभिव्यक्ति से सहमत हूँ धन्यवाद
मतलब यह कि सब क्षेत्रों में असफल लोगों का सेनॉटोरियम है हिन्दी ब्लॉग जगत! सही फण्डा!!! :)
हमारी टिप्पणी यहां देखें.
http://kakesh.com/?p=399
” कलपत कलपत हे कवि तू कतई गयो बोराय
या को तू समझाय चुकै, इत्ते वो बिदक जाय
वा को समझ ते लेनो कब,वा साहित्यकार कहाय
इनको खुल्ला छोड के अब देख पत्रकारन की राय
एक कुये गिरो देख के, दूजो ताली बजाय
कूकुर कूकुर पे भौक के टी आर पी है बढाय”
bhai vah aajkal ke dhisum dhishum vale mahole me lagta hai aapki post padhkar kuch log sambhal jayenge......
mae aapki post sae apni sehmati darj karaatee hun ,
ये आप असफ़ल किसे कह रहे है ?, आप ट्रायल रूप मे ही पंगा लेकर देखे :)
मैया मोरी कबहुँ बढ़ैगी चोटी? .... बाल किशन
यह तो ठीक नहीं किया आपने ! दूसरी या चौथी ? समझ में नहीं आता कहाँ रखे गए हैं हम ?या हैं भी या नहीं। बड़ी दुविधा है।
घुघूती बासूती
हम भी असफल साहित्यकार और फ्लाप ब्लागर लेखक हैं। मेरे विचार से आपके विचारों का सम्मान करते हुए मुझे भी यहां लिखना छोड़ देना चाहिए।
दीपक भारतदीप
आप कविता ठेलना जारी रखें। टिपियाते हुये पुराने सम्मान को अर्जित करें। बहुत दिन बाद देखकर अच्छा लगा!
व्यंग्य धारदार है ....दमदार भी है .
आत्म चिंतन का अवसर तो मिला
लेकिन शीध निष्कर्ष से पहले ये ज़रूर
कहना चाहूँगा कि ...
आपके लेख के शीर्षक ने यहाँ तक पहुँचने का रास्ता बताया
लिहाज़ा सफल लेखन का ये नुस्ख़ा है हमें बहुत रास आया !
================================
आभार....आपकी शैली रुचिकर है.
डा. चंद्रकुमार जैन
तुम तो ये बताओ कि इस पोस्ट को हम क्या माने? घी या फिर पानी? या फिर घी में पानी की मिलावट है? या फिर पानी में घी की मिलावट है?
इतने दिन से शोध कर रहे थे? हमने तो सुना कि आई पी एल देखने में बिजी थे. वैसे मुझे किस श्रेणी में रखा है?
आपका वर्गीकरण पेटेन्ट करवा लिजिए,कहीं हिंदी ब्लागींग के दिन पलटे और पाठ्यक्रम में आ गई,तो रायल्टी मिलेगी।खूब बढिया लिखा,बधाई!
:) पता नही हम कहाँ है इस में :) अभी तो चलना शुरू किया है :) वैसे वर्गीकरण जबरदस्त है
अच्छा काम कर रहे हैं. मन की बातें. . . सब कुछ . .. कुछ सांझा कुछ अपना. हम भी कुछ ऐसा ही महसूस करते हैं जिन्हें आप शब्द दे रहे हैं.
खूब बढि़या
हम इनसे कुछ सीख सकते हैं:-
एक बार एक विद्वान व्याख्यान के लिए कार से कहीं जा रहे थे। रास्ते में उनकी कार का पहिया पंक्चर हो गया। उन्होंने नीचे उतरकर पहिया निकाला, उसके बोल्ट को एक स्थान पर एक टपरे पर रख दिया। इसके बाद वे स्टेपनी फिट करने लगे। इतने में हवा का एक झोंका आया और टपरे पर रखे चारों बोल्ट पास के एक नाले मे गिर गए। अब वे मुश्किल में पड़ गए, समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। कोई वाहन भी नहीं गुजर रहा था, जिससे सहायता माँगी जाए। इसी सोच में वे वहीं बैठे रहे।
पास ही एक पागलखाना था, जहाँ से एक पागल निकला और उस विद्वान तक पहुँचा और ऐसे बैठे रहने का कारण पूछा। विद्वान ने अपनी समस्या बताई। तब उस पागल ने हँसकर कहा- आप पागल हैं क्या?
विद्वान समझ नहीं पाए। उन्होंने कहा-क्या बकवास करते हो?
पागल ने कहा- जो खो गया है उसकी चिंता क्यों करते हो। जो है उसकी खुशी मनाओ। आपके पास कुल 16 बोल्ट में से चार खो गए, अब शेष हे 12, तो भाई तीन पहियों का एक-एक बोल्ट निकाल लो, इस पहिए पर लगाओ और आगे बढ़ो। थोड़ा सँभलकर गाड़ी चलाओ, कुछ ही दूर पर दुकान है, जहाँ चार बोल्ट मिल जाएँगे।
विद्वान को आश्यर्च हुआ, इस पागल ने मुझे बता दिया कि जिंदगी का असल मकसद क्या है? मैं तो इतना बड़ा विद्वान हूँ, पर आज जाना कि मुझसे बड़ा पागल कोई नहीं और जिसे दुनिया पागल कहती है, उससे बड़ा कोई विद्वान नहीं। सच है मेधावी होने की पराकाष्ठा पागलपग ही है।
डॉ. महेश परिमल
Post a Comment