सड़क पर आते-जाते लोकल न्यूज़ चैनल के कैमरे खोजता हूँ. सोचता हूँ, कहीं दिख जाएँ तो सामने जाकर 'कैमेराबंद' हो लूँ और शाम को ख़ुद को टीवी स्क्रीन पर देखूं. लाइफ की एक उपलब्धि हो जायेगी. लेकिन इन टीवी चैनल वालों ने शायद कसम खाई है कि; 'दुनिया के तमाम मुद्दों पर सबका कमेंट ले लेंगे लेकिन बालकिशन का नहीं.' हमारे शहर में आए दिन बंद होता है, रैलियां होती हैं, इन मुद्दों पर कमेंट लेने के लिए टीवीवाले मुहल्ले के राजू भाई के पास जाते हैं. हरीराम चाय वाले से कमेंट लेते हैं' लेकिन आजतक किसी न्यूज़ चैनल वाले ने मुझसे नहीं पूछा कि 'आपकी क्या राय है, बंद होने चाहिए, या नहीं?' अब उन्होंने नहीं पूछा, तो मैंने भी नहीं बताया.
पर जबसे जीवन 'ब्लॉग-धन्य' हुआ है, तब से टीवी पर दिखने की चाहत उतनी नहीं है, जितनी अखबार में छपने की. आए दिन सुनता हूँ, फला अखबार में हिन्दी चिट्ठाकारिता के बारे में लेख छपा है और फला चिट्ठाकार छप गया. लेकिन मजाल है कि मेरे जैसे 'महान' चिट्ठाकार का नाम छपे कहीं. लोगों से जब सुनते थे कि; 'देश में टैलेंट को तरजीह नहीं दी जाती' तो सोचते थे कि 'नहीं ऐसी बात नहीं है. कहीं-कहीं तो जरूर दी जाती है नहीं तो बड़े-बड़े नेताओं का टैलेंट नष्ट हो जाता.' लेकिन अब मुझे अपनी इस सोच पर शंका होने लगी है और उसका कारण भी ठोस है.
कल प्रभात ख़बर में एक ख़बर छपी थी, हिन्दी चिट्ठाकार और चिट्ठाकारिता के बारे में. मैंने ख़बर की हेडलाइन तक पढ़े बिना लेख में अपना नाम खोजना शुरू किया. काफी खोजने के बाद भी नाम नहीं मिला. कुछ मिलने की बात पर निराशा मिली. तुरंत फैसला कर डाला कि; 'आज के बाद एक भी पोस्ट नहीं लिखूंगा. ऐसे ब्लॉग का फायदा ही क्या जो अखबार तक में नाम न छपा सके. लेकिन 'चिट्ठाकार' का गुस्सा बड़ा कोमल होता है. दस मिनट में ही खत्म हो गया. फिर सोचा 'कोई बात नहीं है, वह सुबह कभी तो आएगी जब चाय पीते-पीते अखबार में ख़ुद का नाम देखेंगे और उस अखबार की दस-बीस प्रतियाँ जेरोक्स करके रख लेंगे. भविष्य में पत्नी और ससुराल वालों पर रौब ज़माने के काम आएगी.' ठीक वैसे ही जैसे कोई लोकल नेता सालों पुरानी तस्वीर को संभाल कर रखता है, एक ऐसी तस्वीर जिसमें उसे किसी राष्ट्र स्तर के नेता को माला पहनाते दिखाया जाता है, और काऊंसिलर के चुनाव का टिकट पाने के लिए उसका उपयोग करता है.
लेकिन मन की शंका है कि पीछा नहीं छोड़ती. सोचता हूँ; 'क्या ऐसा हो सकेगा कभी?' फिर सोचता हूँ कि अगर ऐसा नहीं हुआ तब क्या करूंगा. मुझे परसाई जी के उपन्यास रानी नागफनी की कहानी का वो प्रसंग याद आ जाता है, जिसमें अस्तभान अपने मित्र मुफतलाल से पूछता है कि लोग पास होते हैं, इस बात का पता कैसे चलता है? मुफतलाल उसे बताता
है कि 'कुंवर, जिसका नाम अखबार में छपता है, वो पास हो जाता है.' उसकी बात सुनकर अस्तभान कहता है; "मित्र अगर ऐसी बात है, तो मैं अपना ख़ुद का अखबार निकालूँगा और उसमे सबसे पहले अपना नाम छापूंगा. मुझे ही ख़ुद को पास करना पडेगा, ये अखबार वाले मुझे पास नहीं करेंगे."
अस्तभान की बात याद करके मैंने सोचा; 'थोड़े दिन और देख लेता हूँ, अगर छप नहीं सका, तो अखबार में ख़ुद ही एक आर्टकिल लिखूंगा और अपना नाम ख़ुद ही छाप लूंगा.
अब थोड़े दिन और देखने के लिए जरूरी है कि पोस्ट लिखता रहूँ, सो ये पोस्ट लिख डाली.
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18 comments:
भइया बालकिशन,
जब भी अपना अखबार निकालियेगा, तो मेरा नाम भी छापियेगा....हमें भी छपना है अखबार में.
बल कृष्ण जी हम भी लाइन में हैं..
बालकिशन जी आजकल शहर में एक नया टी.वी चैनल आया है। उसका कहना है कि वही चैनल खबर दिखायेगा। आपके शहर में आता है या नही। आता होगा तो वही चैनल आपकी बाईट किसी ना किसी मुद्दे पर दिखा सकता है। क्योकि इस चैनल के मुताबिक बाकी चैनल तो तमाशा दिखाते है।
सही सोचा आपने। इस मामले में आत्मनिर्भर हो लेना ही चिंता के निवारण का सबसे मुफीद उपाय है।
ब्लागरी के चर्चे चहुंओर हैं. कई बार अनाप-शनाप तरीके से भी लोग लिख रहे हैं. पढ़कर लगता है इस आदमी को कुछ भी नहीं पता लेकिन लिख रहा है.
सौभाग्य से अखबारों, पत्रिकाओं में ब्लागिंग की खूब चर्चा हो रही है लेकिन दुर्भाग्य से बड़ी मनमानी टाईप की चर्चा हो रही है. फिर भी यह और होना चाहिए. इससे अंततः इंटरनेट पर हिन्दी में काम करनेवालों की तादात बढ़ेगी. नाम तो किसी न किसी दिन छप ही जाएगा.
मुझे तो लगा कि ब्लॉगास छपास का माकूल तकनीकी विकल्प है। पर आप की यह पोस्ट पढ़ कर वह अहसास कपूर हो गया।
बन्धु छपास को मार दीजिये। अपने ब्लॉग का नाम उदयाचल या चमेली या मनस्वी छाप न रख कर आपने बालकिशन का ब्लॉग रखा है - इससे ही नाम की प्रशस्ति का द्वार खुलता है। आप अपनी पाठक सँख्या 1000-5000 तक ले जाने का लक्ष्य बनायें - हम सब साथ हैं। वैसे भी आपने टिप्पणियों मे जबरदस्त इंवेस्टमेण्ट किया है; उसका रिटर्न आपको अवश्य मिलेगा और भरपूर मिलेगा।
धैर्य रखेँ मित्र! :-)
जब हमने ब्लागबाजी शुरु की थी, तो घोषित कर दिया था कि हम ब्रह्मांड का सबसे धांसू रचनाकार हूं। किसी को कोई शक हो, तो हम से पूछ ले। ताऱीफ वगैरह के मामले में बंदे को आत्मनिर्भर होना चाहिए। फिर जिस काम को खुद बंदा अच्छी तरह से कर सकता है, काहे के लिए दूसरों का मुंह देखे।
अभी बहुत स्कोप है, ब्रह्मांड का सबसे धांसू रचनाकार तो मैंहो लिया हूं। आप सबसे धांसू ब्लागर घोषित कर दीजिये। देखिये कौन खंडन करता है। खंडन करे, तो सबूत मांगिये कि साबित कीजिये मैं सबसे धांसू ब्लागर नहीं हूं।
इंसान को स्वावलम्बी होना ही चाहिए ये क्या की अपना ही नाम देखने के लिए किसी दूसरे का अखबार देखें.अपने अखबार का नाम भी रखियेगा "बालकिशन का अखबार" ताकि नाम देखने में अतिरिक्त उर्जा न खर्च करनी पड़े, सीधा ऊपर ही नज़र आ जाए. रही बात संपादक की तो अपने शिव हैं न वो किस दिन काम आयेंगे ? जैसा की वो चाहते हैं ,उनका भी नाम आप के अखबार में आ जाएगा.सारा अखबार लिखेंगे वो और नाम होगा आपका याने एक पंथ दो काज. आज कल ऐसे ही काम चलता है. हाँ यदि अखबार में कोई ग़ज़ल का भी कालम रखने का विचार हो तो बन्दे का नाम न भूलियेगा.
नीरज
बढ़िया पोस्ट है । परन्तु यदि आप सच में जब अखबारों में चिट्ठाकारी की बात चलती है, तो अपना नाम देखना चाहते हैं तो कुछ झगड़े खड़े कीजिये । कुछ मिर्च मसाले वाला लिखिये, किसी को बुरा कहिये तो किसी को भला । खूब बहस हो , फिर देखिये अगली खबर में आपका नाम कैसे नहीं आयेगा । अपने ब्लॉग का नाम भी बदल कर 'डस्ट बिन', 'रीसायकल बिन', 'वही पुरानी बकवास नए छौंक के साथ' , 'बासी खबरें' या कुछ ऐसा ही रख लीजिए । हाँ यदि आप या कोई और इन नामों को रखता है तो मुझे नाम सुझाने का शुल्क देना ना भूलियेगा ।
शुभकामनाओं सहित,
घुघूती बासूती
बहुत खूब ! बालकिशन जी,चिट्ठाकारों के भीतर का सच,कह कर सभी चिट्ठाकारों की दुखती रग पर हाथ रख दिया है।पढ कर अच्छा लगा।
बढ़िया लिखा है।
घुघूति जी ने सटीक सलाह दी है गौर फरमाईएगा।
अखबार में नां तो कई बार छप गया हमारा और लेख भी पर क्या फायदा? जो नाम सौ-दौ सौ रुपये भी ना दिलवा सके?
हमें तो अब लगता है कि अखबार के चक्कर में पड़ने की बजाय ब्लॉग ही सही है कम से कम टिप्पणीयाँ तो मिलती है।
अखबार में तो कुछ भी नहीं!!!
वैसे आपने टिप्पणीयाँ बहुत की है देर सबेर आप भी छप ही जाओगे अखबार में।
'चिट्ठाकार' का गुस्सा बड़ा कोमल होता है.
बहुत बढ़िया लिखा दोस्त....। फुर्सत कतई नहीं है दोस्त वर्ना , प्यार से , दुलार से टिप्पणियां सबको देता । पैदाइशी दानी हूं। बिना किसी अपेक्षा के । आपकी टिप्पणियों ने बोझ बढ़ा दिया था । हर पोस्ट पर टिप्पणी ज़रूरी नहीं है दोस्त । पढ़े , जब फुर्सत मिले। टिपियाएं जब मन करे।
इतनी साफगोई और किसी ने बरती है आजतक....
मुझे आप से हमदर्दी है, वैसे जनाब अपना भी यही हाल है।
बाल किशन जी मेरे ब्लाग पर आने के लिए शुक्रिया
आशीष
बाल किशन जी,
अखबार निकालने के लिए अपना पैसा लगाओगे? सरासर अनुचित है। ऐसे ब्लॉगियों की सूची बनाएं जिनके ब्लॉगों पर लोग टिपियाते ही नहीं या कोई इक्के दुक्के ने आकर आंसू पोंछ दिए। ऐसे ब्लागियों से फीस तय कीजिए कि अखबार में इन के पिटे पिटाए लेख आदि मुख्य पृष्ठ पर 'सर्वोत्तम ब्लॉगर्स' सुर्खियों में दिए जायेंगे। इस तरह जो भी कूड़ा कबाड़ हो, निस्संकोच फीस के अनुसार भर दें। आपका अखबार खूब चलेगा।
संपादकीय कार्य भी बहुत कम होगा। हाँ, इस मश्वरे की फीस नहीं ले रहा हूं, मेरे ब्लॉग का ध्यान रखना, पिटे हुओं में नंबर 1 है।
aaj tak to mai yahi janta tha ki keval leadro ko hi chhapas lagti thi per ab to blogaron ko bhi chhapas ka nasha chadh gaya hai.
bahi vah,hame aapka bat kahne ka andaz behad pasad aaya....
kuch bate to hamrae bhi dil ki thi.
lage rahiye.
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