Saturday, November 24, 2007
एक कोशिश
ये बस्ती तो कब कि उजड़ चुकी है.
अब कौन सा तूफान आना बाकी है.
इंसान को तो कब का मार चुके हम
अब तो केवल भगवान् बाकी है.
मुश्किलें तो तमाम हल कर ली मैंने
काम मगर कुछ आसन बाकी है.
जुस्तजू मे तेरी, जिंदगी, हम खो गए
अब तो बस मौत का अरमान बाकी है.
वजूद भले ही मिट गया उनका जंहा से
रह गए फ़िर भी कुछ निशान बाकी है.
सब चले ही जाते है यंहा से एक दिन
छिपी मगर शब्दों मे एक पहचान बाकी है.
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16 comments:
वाह!
बढ़िया गजल है...अच्छे भाव हैं...लिखने के लिए आपके सब्जेक्ट्स बढ़ते जा रहे हैं...चिट्ठाकारी में बहुत बड़ा गुड है ये..
अच्छे गजल के लिए आपको बधाई..
बालो किशन जी बहुत ही बढिया गजल है।बधाई स्वीकारें।
सब चले ही जाते है यंहा से एक दिन
छिपी मगर शब्दों मे एक पहचान बाकी है.
पहली बार पढ़ रहा हूँ आपका चिट्ठा । बहुत ही बढ़िया लिखते हैं आप । अब बार-बार पढ़ुँगा ।
धन्यवाद ।
सुंदर भाव, बढ़िया गज़ल!!
बहुत ही बढिया गजल बधाई..
वाह! जिन्दगी जी चुके हैं मगर,
जन्म लेना बाकी है!
बहुत अच्छी गज़ल है भाई… आनंद आगया…।
कोशिश तो बहुत अच्छी है। सुन्दर!
बाल किशन जी ,टोपिक तो अच्छा चुना है आपने ,पर कही कही थोडा लोचा हो गया है ,मैं ये नही कह रह हूँ कि बुरी पोस्ट है ,बहुत ही अच्छी रचना है ,थोडा सा और मेहनत हुयी होती तो निश्चित ही धान्शु रचना होती है ...आपकी ग़ज़ल पढ़ कर मुझे एक शेर याद आ गया ....
मेरी पहचान कि खातिर मेरी यादे रखना !
वक़्त जालिम है ,बदल देगा ख्दो -खाल मेरे !!!
वाह......... रचना अच्छी लगी.
बहुत सुंदर....
"मगर कुछ आसन बाकी "
में शायद एक मात्रा के सुधर की आवश्यकता है.
बहुत सुंदर....
"मगर कुछ आसन बाकी "
में शायद एक मात्रा के सुधर की आवश्यकता है.
@ पुनीत ओमर
आसन बाकी रह ही जाते हैं, पुनीत. प्राणायाम तक ठीक है लेकिन आसन में बहुत झमेला है इसलिए हर कोई छोड़ देता है....एक मात्रा में ही नहीं, भारी मात्रा में 'सुधर' की आवश्यकता है.
इंसान को तो कब का मार चुके हम
अब तो केवल भगवान् बाकी है.
क्या कह रहे हैं आप? होश में तो हैं? कहाँ देखा आप ने भगवान को? सबसे पहले उस गरीब की ही तो हत्या की है इंसान ने फ़िर अपनों की तरफ़ मुड़ा है.
आप यूँ ही अगर ग़ज़ल लिखते रहे ....देखिये एक दिन नाम हो जाएगा.
नीरज
ये बस्ती तो कब कि उजड़ चुकी है.
अब कौन सा तूफान आना बाकी है.
Bahut khoob likha hai
sunder kafiye radeef baki hai ke saath suhane lag rahe hai
shaadab hai har ik zakhm mera
patjhad ka aana baQi hai.
Daad ke sath
Devi
सब चले ही जाते है यंहा से एक दिन
छिपी मगर शब्दों मे एक पहचान बाकी है.
सही है ....शब्दों में पहचान छिपी है... 6 दिसम्बर से इस रचना तक.... पढ़ने के बाद टिप्पणी के लिए शब्द ही नहीं बचे... सभी शब्द आपकी पहचान बने से खड़े हैं...
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