Friday, October 3, 2008

आदमी, तरक्की और जिंदगी.



कविता नहीं आपको सच्ची घटना सुनाता हूँ.
किस्सा नहीं आपको ये हकीकत बताता हूँ.

कल सरे-बाज़ार जिंदगी से मुलाकात हुई थी.
बेचारी....... पूरी तरह से लुटी-टूटी हुई थी.
शरीर पर लिए घूम रही गहरे घाव थी,
तेज़ धूप - पसीने से तरबतर--
ढूंढ़ती फ़िर रही वो एक छाँव थी.

मैंने पूछा-
किसे तलाशती हो?
लगता है जैसे कुछ मदद मांगती हो?
किसने किया ये हाल तुम्हारा, लूटे आभूषण सारे?
सत्य, साहस, ईमान, विश्वास, त्याग जैसे रतन तुम्हारे?
कराहकर वो बोली---
जबसे मेरे पति आदमी ने पैसे को अपना ससुर बनाया है
उसकी बेटी तरक्की से दूजा ब्याह रचाया है
तब से मेरा ये हाल हुआ जाता है...
मेरी सौत कि हर ख्वाहिश पर मेरा एक-एक गहना बिका जाता है

असत्य के लिए सत्य को बेचा गया
स्वार्थ के लिए साहस को
बेईमानी के लिए ईमान को बेचा गया
धोखे के लिए विश्वास को
लोभ के लिए त्याग को बेचा गया


कितने युग? कितने जन्म?
कितने जीवन? कितनी साँसे?


अब और नहीं सह सकती, हार मानती हूँ मैं
थक चुकी-- अब तो केवल मौत मांगती हूँ मैं.

मित्रो,
सच्चाई यंहा ख़त्म होती है
आगे कविता शुरू होती है.
लेकिन कविता की कुछ सीमा होती है
कविता की सीमा होती है वाह-वाह
कविता की सीमा होती है आह-आह
कविता की सीमा होती है तालियाँ
कविता की सीमा होती है गालिया
कविता की जो सीमा ना होती
तो शायद...
जिंदगी की ये हालत ना होती.

मित्रो,
इस घटना को भूल ना जाना
कुछ गुन सको तो गुनते जाना.
कुछ कर सको तो करना
ना कर सको तो ना करना
पर इतना जरुर करना
उस आदमी की तरह
अपनी जिंदगी से बेवफाई मत करना.
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कई दिनों से समय नहीं मिलने के कारण आ नहीं पाया था. पर ब्लॉग्गिंग के एक साल पूरे होने की खुशी और उत्साह को रोक नहीं पाया और आप सबके के लिए फ़िर हाजिर हुआ हूँ.