Tuesday, October 30, 2007

दर्द की खेती

बचपन में,
स्कूल में,
स्कूल की किताबों में,
भूगोल में,
इतिहासों में,
मैंने ये पढ़ा था
मुझे ये पढाया गया था कि
भारत गांवों में बसता है और
यह एक कृषि प्रधान देश है,
यंहा के लोगों का मुख्य पेशा खेती करना है.
अब चूंकि मैं बचपन से ही
शहरों मे रहता आया था,
इसलिए उस वक्त इस तथ्य
को समझ नहीं पाया था.
अब लगता है कि
मास्साब ने मुझे ठीक ही पढाया था,
यंहा गाँव ही नही शहरों के लोग भी खेती करतें है,
यंहा हर इंसान किसी दूसरे के लिए दर्द बोता है.
और बोने वाले कि उदारता देखिये वो अपने लिए कुछ नही रखता,
पूरा दर्द उसी के लिए छोड़ देता है, जिसके लिए वो बोता है.
दर्द की खेती हर तरफ़ लहलहा रही है
पूरी दुनिया इस दर्द से लहुलूहान हुई जा रही है.

7 comments:

नीरज गोस्वामी said...

बाल किशन जी
क्या कहूँ आपने तो कमाल ही कर दिया है. इतनी अच्छी कविता की उम्मीद आप से तो न थी. आप ने मेरी आप के प्रति बनी धारणा को तहस नहस कर दिया है.मुझे नहीं मालूम था आप इतने सिद्ध कवि हैं. "मैं मूरख अज्ञानी कृपा करो भरता.... "भाई बहुत अच्छे ऐसे ही लिखते रहो चाहे कोई पढे या न पढे. वैसे भी अच्छी बात या कविता वोही होती है जिसको पढने गुनने वाले कम हों.
मेरी हार्दिक बधाई .
नीरज

Udan Tashtari said...

पूरा दर्द उसी के लिए छोड़ देता है, जिसके लिए वो बोता है.


--अति उत्तम. बहुत गहरी बात कह गये आप. बधाई.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचना है...सुन्दर भाव हैं।सच है सभी आज ऐसी खेती ही कर रहे हैं।

Shiv said...

बहुत बढिया कविता...भैया, तुम तो छा गए...नीरज भैया का आशीर्वाद मिला अलग से...बहुत खूब....

Gyan Dutt Pandey said...

विचित्र है यह खेती, सिर्फ बो दो। निराई-गुड़ाई नहीं चाहिये। न चाहिये खाद पानी। जितना काटो, उतनी लहलहाती है। इसकी जमीन उर्वरा होती जाती है।

आलोक said...

और चूँकि भारत एक कृषि प्रधान देश है (कितनी बार घोटा लगाया होगा इस पंक्ति का!) यहाँ यह बुआई ज़्यादा होती है!

दीपक भारतदीप said...

आप बहुत बढिया लिख रहे हैं।
दीपक भारतदीप