समय का इतना अभाव है कि ब्लॉग लिखने तक की फुर्सत नहीं है. काम से फुर्सत निकालता भी हूँ तो बीमार होने के लिए. बीच-बीच में मन खिन्न हो जाता है. मित्रों का ब्लॉग न पढता तो शायद बीमारी बनी रहती. काम करने की फुर्सत नहीं देती. ब्लॉग के अलावा साथी हैं, कुछ किताबें.
हाल ही में इथियोपिया के प्रसिद्द कवि ओसोलन मोशावा का काव्य संग्रह 'मिराज एंड वाटर' पढ़ रहा था. एक कविता पढी. अच्छी लगी. कोशिश की है, भावानुवाद करने की. पता नहीं कितना सफल रहा. लेकिन जो कुछ निकला, सोचा आपके साथ बाँट लूं.
कौन किसे बनाता है?
मनुष्य को व्यवस्था
या
व्यवस्था को मनुष्य?
कौन किसे चलाता है?
मनुष्य व्यवस्था को?
या
व्यवस्था मनुष्य को?
कौन किससे पाता है?
मनुष्य व्यवस्था से?
या
व्यवस्था मनुष्य से?
उत्तर मिलना कठिन है?
शायद हाँ
व्यवस्था को गढ़ लेने की चाहत
और
उससे होता मन आहत
जब उदास होता है
अन्दर से रोता है
तब सवाल पूछता है
मनुष्य से
सवाल पूछता है
व्यवस्था से
क्या मिला व्यवस्थित होकर?
एक व्यथित मन?
एक थका हुआ तन?
क्या यही है तुम्हारा धन?
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9 comments:
क्या बालकिशन भाई....आप तो ऐसे गायब हो गए कि ......
निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रही कि आपको बधाई दूँ या झिड़की...
इस मंदी में भी इतने व्यस्त हैं...मतलब काम चकाचक है...यह तो बधाई देने का कारण है...लेकिन यह लम्बी चुप्पी....यह भी सहज स्वाकार्य नहीं है....
अब कविता किसने लिखी यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है...महत्वपूर्ण है कविता के भाव,उसके द्वारा प्रसारित होने वाला सन्देश....
तो इस आधार पर इतना ही कहूँगी कि ..............वाह !! वाह !! वाह !!
मन को छूती और झिंझोड़ती ,बहुत ही सुन्दर रचना...
अब विदेशी भाषा तो अपने पल्ले नहीं पड़ती तो इसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं,जो हमें इतनी सुन्दर कविता आपने हिंदी में पढने का सुअवसर दिया...आभार !!
Waah! Waah!
Tum waapas aaye, yah dekhkar achchha laga. Kavita naayab hai. Behisaab naayab hai.
Aisi aur kavitaaon ka bhavanuwaad pesh karo bhaai.
Pesh karne ke liye badhaaee.
कमाल है बाल किशन जी, दो मिनट की फुरसत निकाल कर दो लाइनों में अपनी व्यस्तता ही बता दिया करो, दिल को तसल्ली तो रहेगी। ब्लाग भी रियल ब्लाग लगने लगेगा।
क्या बल्लू भाई (आत्मीयता दिखने के लिए ये संबोधन किया है वैसे तो आप हमारे लिए बाल किशन जी ही हैं) इतने दिनों तक भी कोई क्या गायब रहता है...???आप तो मन मोहन देसाई साहेब की फिल्म में बिछुडे भाई की तरह गायब हो गए जो अंतिम रील में फिर मिल जाते हैं...जिंदगी में ऐसा नहीं चलता...यहाँ तो आँख ओझल पहाड़ ओझल वाला मामला है...अधिक दिनों तक गायब रहोगे तो अपनी पहचान बनाने के लिए फिर से जद्दो जहद करनी पड़ेगी...आप तो लिखते रहा करो...कुछ भी...लेकिन डटे रहो मैदान में...
एक तो आपके पास समय नहीं है और जितना सा मिलता है उसे आप इन विदेशियों की सर्पीली कवितायेँ पढने में लगा देते हैं...जो रेशम के ढंगों की तरह इस तरह उलझी हुई होती हैं की पल्ले ही नहीं पढ़तीं...अब कविता पढ़ कर वाह वा करने की रस्म है सो रस्म अदायगी कर देते हैं...वाह..वा...जबकि ये वाह वाही आपके वापस लौटने की ख़ुशी में की जा रही है...
आप से आपकी अपनी रचना पाने की उम्मीद में...
नीरज
दिसम्बर के बाद फ़रवरी फिर सीधे जून ! अब तो गैप भी बढ़ता जा रहा है... बीच-बीच में २-४ मिनट निकाल लिया कीजिये ! कविता अच्छी लगी.
वाह बालकिशन भाई वाह
मनुष्य और व्यवस्था का बहुते रोचक सामंजस्य दिखा दिए हो.
यह अनुवादित हो या रचित बहुते सामायिक है
वाह बाबू बाल किशन जी वह क्या कहने
बाल किशन जी बहुत दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ एक सुंदर विदेशी कविता पठने को मिली । सचमुच व्यस्था को तोडने मरोडने वाले इस को मनुष्य के लिये अर्थहीन बना देते हैं ।
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