शाम से आँख में नमी सी
हैओस की बूँदें आँख में बैठ गयी होंगी
नहीं-नहीं ये आँख की नमी है
क्या कह रहे हो?
अभी आँखें नम होती हैं!
किसकी?
अच्छा, उनकी?
फिर ठीक है
उनकी आँख पत्थर की है
शायद इसीलिए नम हो जाते होगी
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मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
क्या बुनने की तरकीब सीखनी है?
चादर?
तुम नहीं सीख पाओगे
जुलाहे से ऐसा मत कहो
तुम्हारे पाँव तो हमेशा चादर से बाहर रहते हैं
पहले पावों को चादर के भीतर रखना सीखो
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15 comments:
वाह बालकिशन; पांव चादर में रखने का अभ्यास कर लें। फिर चादर बुनना सिखाने वाले का पता पूछेंगे आप से।
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कहां रहते हो आजकल?
bahut marmik
बहुत सुन्दर लिखा है।
padh kar achha lagaa , vase aaj kal kam sakriyae dikh rahey net par .
वाह बहुत बढ़िया चादर के अन्दर और बाहर पैर पसारने वाली बात अपने कविता के रूप में बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत की है धन्यवाद. पर एक बात पूछना चाहता हूँ कि अभी तक आप कहाँ रहे है आपकी ब्लॉग में काफी अरसे बाद पोस्ट पढ़ने मिली ?
बहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़ना अच्छा लगा
बहुत ख़ूब भाई.. ... मुझ से इंसान को भी सोचने पर आमादा करती हुई.
सुंदर कविता-
तुम्हारे पाँव तो हमेशा चादर से बाहर रहते हैं
पहले पावों को चादर के भीतर रखना सीखो
बहुत दिनों में भेंट हुई है। सुंदर कविताएँ हैं।
अच्छा, उनकी?
फिर ठीक है
उनकी आँख पत्थर की है
शायद इसीलिए नम हो जाते होगी
सुंदर कविताएँ हैं।
बहुत सुंदर कविता ! शुभकामनाएं !
मेरी अदना समझ के बाहर की रचना...कमाल की.
नीरज
कहाँ रहे इतने दिन?
बड़ी ऊंची कविता खैंच दी बालकिशनजी!
Balkishan Ji,
I would like to invite u on our blog (blog dedicated to marwari Yuva Manch and Marwari samaaj).
http://meramanch.blogspot.com/
O.P. Agarwalla
opg.guwahati@gmail.com
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