Saturday, August 30, 2008

आख़िर एक इंसान हूँ मैं


इथियोपिया के विख्यात कवि ओसोलन मोसावा की कविता.


रेत की नदी में चलते-चलते
दुखने लगे हैं पाँव
दूर है गाँव


कहाँ से लायें ऐसी नज़र
जो दिखाए
एक पेड़
बिना पत्तों वाला ही सही

कहाँ से लायें ऐसे कान
जो सुनाएं
एक गीत
बिना भाव वाला ही सही


कहाँ से लायें एक जुबान
जो करे
एक शिकायत
भले ही उसका जवाब न मिले


कहाँ से लायें ऐसी आंत
जिसे भूख न लगे
जो सिकुड़ी रहे
खाना न मांगे

सोचता हूँ
तो समझ में आता है
ऐसी नज़र, ऐसी आंत, ऐसा कान और ऐसी जुबान
कहीं नहीं मिलेगी
आख़िर एक इंसान हूँ मैं
....................................................................................................................
भावानुवाद: बालकिशन
चित्र : ट्रेवलएडवेंचर.कॉम से साभार

29 comments:

pallavi trivedi said...

सोचता हूँ
तो समझ में आता है
ऐसी नज़र, ऐसी आंत, ऐसा कान और ऐसी जुबान
कहीं नहीं मिलेगी
आख़िर एक इंसान हूँ मैं
ek bahut achchi kavita padhwane ke liye shukriya....

Arun Arora said...

"एक निरीह अकेले भारतीय दिल की पुकार"
इन ढेरो नेताओ मे ढूढते एक देश भक्त
दुखने लगी है आंख
फ़िर भी है आस

कहा से लाये ऐसी नजर
जो दिखाये
एक देश भक्त
लकवे वाला ही सही

कहा से लाये ऐसे कान
जो सुनाये
एक गीत
बिना घृणा वाला ही सही

कहा से लाये ऐसी जुबान
जो दे
एक जवाब

रंजू भाटिया said...

यह अनुवादित कविता बहुत अच्छी लगी ..इसको पढ़वाने का शुक्रिया

शायदा said...

bhaut insani kavita....

Dr. Chandra Kumar Jain said...

हकीकत बयां करती
ज़मीनी कविता....बधाई
इस श्रेष्ठ प्रस्तुति के लिए.
===================
चन्द्रकुमार

Anil Pusadkar said...

aabhar aapka,achhi kavita padhne mili

शोभा said...

सोचता हूँ
तो समझ में आता है
ऐसी नज़र, ऐसी आंत, ऐसा कान और ऐसी जुबान
कहीं नहीं मिलेगी
आख़िर एक इंसान हूँ मैं
बहुत अच्छा लिखा है। बधाई स्वीकारें।

नीरज गोस्वामी said...

"आख़िर एक इंसान हूँ मैं" शीर्षक देख कर चौंक गया क्यूँ की हम तो अभी तक आप को बालकिशन ही समझते आए थे.....बाद मन पढने के बाद तसल्ली हुई की आप तो बाल किशन ही हैं इस शीर्षक की कविता तो अफ्रीका के घने जंगलों में रहने वाले एक इंसान ने लिखी है...आप भी ना कभी कभी चौंका देते हैं...बहुत शरीर हैं आप.
कविता जैसी इथोपिया वाले लिख सकते थे बिल्कुल वैसे ही है...
आपने अनुवाद में जो परिश्रम किया है वो साफ़ झलक रहा है....बहुत बढ़िया.
(पुनश्च: आप को हमारी ग़ज़ल तो समझ आती नहीं इथोपिया वालों की कविता खूब आती है, हमारी ग़ज़ल समझ आती तो क्या अब तक टिपियाते नहीं?)
नीरज

ताऊ रामपुरिया said...

भाई बालकिशन जी मैंने सोचा की शायद आपने चौंकाने
के लिए ये टाइटल दिया होगा ! पर इस के अन्दर बेहतरीन कविता पढ़वाई !
पर इससे आप के गुनाह कम नही हुए ! मैंने आज ही चिठ्ठा चर्चा में विज्ञापन
देने का मैट्टर बनाया था की " म्हारों भतीजो घर छोड़ कै चल्यो गयो सै ! जो
कोई भी उसका पता ठीकाना बतावैगा उसको उचित इनाम मय खर्चा-पानी कै
दियो जावैगो ! " और इब त नीरज जी की शिकायत भी ताऊ नै पढ़ ली सै !
देख भाई यो आछी बात ना हुया करै ! इस तरियां बिना बताये घर (ब्लागरो का अड्डा )
छोड़ कै नी जाया करते ! इब थारे पै यो जुरमाना सै की सब ब्लागरियां कै धोरै जाकै
डबल टिपियाओ ! और आइन्दा इस तरियां मत जाणा ! नही तो ताऊ नाराज हो ज्यागा !
भाई भतीजे छुटी चाहिए तो हम मना थोड़ी करेंगे ? आगे से छुटी चाहिए तो बिल्कुल
अप्लिकेसन दे जाणा !

अमिताभ मीत said...

बहुत बढ़िया भाई. वाह ! शुक्रिया .

जितेन्द़ भगत said...

जानदार कवि‍ता अपनी सहजता में ही सबकुछ बयॉं कर जाती है। पढ़कर आनंद आया। शुक्रि‍या।

Gyan Dutt Pandey said...

और क्या हाल चाल है बालकिशन? बाकी बताओ; नायाब इन्सान तो हो ही।

seema gupta said...

रेत की नदी में चलते-चलते
दुखने लगे हैं पाँव
दूर है गाँव
" totally a different kind of poetry, very touching to read, thanks for your efforts to make us available to read and understand its deep thoughts"

Regards

L.Goswami said...

bahut dhnyawad sundar kavita ke sundar anuwad ka..

डॉ .अनुराग said...

शुक्रिया इस कविता को पढ़वाने के लिए.....

mamta said...

बेहद ही खूबसूरत कविता पढ़वाने के लिए शुक्रिया।

महेन्द्र मिश्र said...

आख़िर एक इंसान हूँ मैं .
खूबसूरत कविता....बहुत बढ़िया

दिनेशराय द्विवेदी said...

शानदार यथार्थवादी कविता पढ़वाने के लिए आभार।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

प्रयास बहुत अच्छा लगा !
धन्यवाद !
- लावण्या

Smart Indian said...

बहुत सुंदर!

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बेहतरीन कविता... शानदार प्रस्तुति॥ भावानुवाद बहुत अच्छा बन पड़ा है। बधाई।

वर्षा said...

सुंदर कविता

admin said...

इतनी जल्दी विदेशी कवि वाला आइडिया आप अपना लोगे, यह यकीन नहीं था।

योगेन्द्र मौदगिल said...

Achhi prastuti.

betuki@bloger.com said...

जिन पत्थरों के दिल नहीं होते, उनके नाक, कान होने से भी फर्क नहीं पड़ता। बेहतर प्रस्तुति।

बाल भवन जबलपुर said...

baabu bal kishan jee
achchhee post ke lie thanks

रंजना said...

Bahut bahut achchi lagi kavita.

रंजना said...

Bahut bahut achchi lagi kavita.

बाल भवन जबलपुर said...

बाबू बालकिशन जी
पूजा पर्व के मजे ले रहें है क्या ?
कब से टिप्पणी तैयार कर के बैठा हूँ
की कब बाबू पोस्ट करें और हम चिपका देवें