इथियोपिया के विख्यात कवि ओसोलन मोसावा की कविता.
रेत की नदी में चलते-चलते
दुखने लगे हैं पाँव
दूर है गाँव
कहाँ से लायें ऐसी नज़र
जो दिखाए
एक पेड़
बिना पत्तों वाला ही सही
कहाँ से लायें ऐसे कान
जो सुनाएं
एक गीत
बिना भाव वाला ही सही
कहाँ से लायें एक जुबान
जो करे
एक शिकायत
भले ही उसका जवाब न मिले
कहाँ से लायें ऐसी आंत
जिसे भूख न लगे
जो सिकुड़ी रहे
खाना न मांगे
सोचता हूँ
तो समझ में आता है
ऐसी नज़र, ऐसी आंत, ऐसा कान और ऐसी जुबान
कहीं नहीं मिलेगी
आख़िर एक इंसान हूँ मैं
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भावानुवाद: बालकिशन
चित्र : ट्रेवलएडवेंचर.कॉम से साभार
29 comments:
सोचता हूँ
तो समझ में आता है
ऐसी नज़र, ऐसी आंत, ऐसा कान और ऐसी जुबान
कहीं नहीं मिलेगी
आख़िर एक इंसान हूँ मैं
ek bahut achchi kavita padhwane ke liye shukriya....
"एक निरीह अकेले भारतीय दिल की पुकार"
इन ढेरो नेताओ मे ढूढते एक देश भक्त
दुखने लगी है आंख
फ़िर भी है आस
कहा से लाये ऐसी नजर
जो दिखाये
एक देश भक्त
लकवे वाला ही सही
कहा से लाये ऐसे कान
जो सुनाये
एक गीत
बिना घृणा वाला ही सही
कहा से लाये ऐसी जुबान
जो दे
एक जवाब
यह अनुवादित कविता बहुत अच्छी लगी ..इसको पढ़वाने का शुक्रिया
bhaut insani kavita....
हकीकत बयां करती
ज़मीनी कविता....बधाई
इस श्रेष्ठ प्रस्तुति के लिए.
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चन्द्रकुमार
aabhar aapka,achhi kavita padhne mili
सोचता हूँ
तो समझ में आता है
ऐसी नज़र, ऐसी आंत, ऐसा कान और ऐसी जुबान
कहीं नहीं मिलेगी
आख़िर एक इंसान हूँ मैं
बहुत अच्छा लिखा है। बधाई स्वीकारें।
"आख़िर एक इंसान हूँ मैं" शीर्षक देख कर चौंक गया क्यूँ की हम तो अभी तक आप को बालकिशन ही समझते आए थे.....बाद मन पढने के बाद तसल्ली हुई की आप तो बाल किशन ही हैं इस शीर्षक की कविता तो अफ्रीका के घने जंगलों में रहने वाले एक इंसान ने लिखी है...आप भी ना कभी कभी चौंका देते हैं...बहुत शरीर हैं आप.
कविता जैसी इथोपिया वाले लिख सकते थे बिल्कुल वैसे ही है...
आपने अनुवाद में जो परिश्रम किया है वो साफ़ झलक रहा है....बहुत बढ़िया.
(पुनश्च: आप को हमारी ग़ज़ल तो समझ आती नहीं इथोपिया वालों की कविता खूब आती है, हमारी ग़ज़ल समझ आती तो क्या अब तक टिपियाते नहीं?)
नीरज
भाई बालकिशन जी मैंने सोचा की शायद आपने चौंकाने
के लिए ये टाइटल दिया होगा ! पर इस के अन्दर बेहतरीन कविता पढ़वाई !
पर इससे आप के गुनाह कम नही हुए ! मैंने आज ही चिठ्ठा चर्चा में विज्ञापन
देने का मैट्टर बनाया था की " म्हारों भतीजो घर छोड़ कै चल्यो गयो सै ! जो
कोई भी उसका पता ठीकाना बतावैगा उसको उचित इनाम मय खर्चा-पानी कै
दियो जावैगो ! " और इब त नीरज जी की शिकायत भी ताऊ नै पढ़ ली सै !
देख भाई यो आछी बात ना हुया करै ! इस तरियां बिना बताये घर (ब्लागरो का अड्डा )
छोड़ कै नी जाया करते ! इब थारे पै यो जुरमाना सै की सब ब्लागरियां कै धोरै जाकै
डबल टिपियाओ ! और आइन्दा इस तरियां मत जाणा ! नही तो ताऊ नाराज हो ज्यागा !
भाई भतीजे छुटी चाहिए तो हम मना थोड़ी करेंगे ? आगे से छुटी चाहिए तो बिल्कुल
अप्लिकेसन दे जाणा !
बहुत बढ़िया भाई. वाह ! शुक्रिया .
जानदार कविता अपनी सहजता में ही सबकुछ बयॉं कर जाती है। पढ़कर आनंद आया। शुक्रिया।
और क्या हाल चाल है बालकिशन? बाकी बताओ; नायाब इन्सान तो हो ही।
रेत की नदी में चलते-चलते
दुखने लगे हैं पाँव
दूर है गाँव
" totally a different kind of poetry, very touching to read, thanks for your efforts to make us available to read and understand its deep thoughts"
Regards
bahut dhnyawad sundar kavita ke sundar anuwad ka..
शुक्रिया इस कविता को पढ़वाने के लिए.....
बेहद ही खूबसूरत कविता पढ़वाने के लिए शुक्रिया।
आख़िर एक इंसान हूँ मैं .
खूबसूरत कविता....बहुत बढ़िया
शानदार यथार्थवादी कविता पढ़वाने के लिए आभार।
प्रयास बहुत अच्छा लगा !
धन्यवाद !
- लावण्या
बहुत सुंदर!
बेहतरीन कविता... शानदार प्रस्तुति॥ भावानुवाद बहुत अच्छा बन पड़ा है। बधाई।
सुंदर कविता
इतनी जल्दी विदेशी कवि वाला आइडिया आप अपना लोगे, यह यकीन नहीं था।
Achhi prastuti.
जिन पत्थरों के दिल नहीं होते, उनके नाक, कान होने से भी फर्क नहीं पड़ता। बेहतर प्रस्तुति।
baabu bal kishan jee
achchhee post ke lie thanks
Bahut bahut achchi lagi kavita.
Bahut bahut achchi lagi kavita.
बाबू बालकिशन जी
पूजा पर्व के मजे ले रहें है क्या ?
कब से टिप्पणी तैयार कर के बैठा हूँ
की कब बाबू पोस्ट करें और हम चिपका देवें
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