Wednesday, July 30, 2008

बालकिशन की डायरी भाग-१ सन १९८८

आज यूँही एक काफ़ी पुरानी डायरी पढ़ते हुए इन दो कविताओं पर नज़र टिक गई और फ़िर कई बार पढ़ डाला.
अहसास ये हुआ कि ये कवितायें आज भी कितनी प्रासंगिक है. आप भी पढ़ें.

(१)

ये क्या हो रहा है अपने वतन में
हिंसा का बाज़ार गर्म है
जाने किसका भय छाया है जन में
सच पर झूठ का परदा डालते हैं
आज हर कोई माहिर है इस फन में
ये क्या हो रहा है अपने वतन में

भाईचारे को हमने भुला दिया
इर्ष्या ने आज घर किया हमारे मन में
रौंद डाला इंसानियत को हमने
घाव किए मानवता के तन में
ये क्या हो रहा है अपने वतन में

सूरज की रौशनी काली पड़ गई
घिर गया भारत अंधड़ और तूफानों में
छेड़ डाला सीना इसका हमने
फर्क मिलाता नहीं राक्षस और इंसानों में
ये क्या हो रहा है अपने वतन में

बालकिशन
०१-०७-१९८८

(२)

जिंदगी में क्या है हमारी है आज
जिंदगी कंहा है हमारी आज.
कंही दहेज़ का दानव
कंही आतंकवाद का तांडव
जिंदगी हमारी आज कितनी सिमटी हुई है.
स्वार्थ हिंसा और झूठ में लिपटी हुई है.

कंही पर है बेरोजगारी
कंही पर गरीबी और भुखमरी.
जिंदगी में अब तो एक आग है हर तरफ़ हमारी
हर पहलु से इसके लपटें उठती हुई है
कंहा गाँधी कंहा शास्त्री
के आदर्श खो गए है आज.
भ्रष्टाचार और अन्धविश्वाश के काँटों से घायल
जिंदगी बेबस,बेदम और लाचार हो सिकुडी हुई है आज.

कंहा गया वो भाईचारा
कंहा गया ईमान हमारा
जिसकी कल्पना भी न उन्होंने की थी
उसी मोड़ पर खड़ी है जिंदगी हमारी आज.
क्या करे हम क्या ना करें
कंहा जाएँ हम कंहा ना जाएँ
आवो मिलकर पुननिर्माण करे उसका हम
हमारे ही हाथों जो बिगड़ी हुई है आज.

बालकिशन
२५-०३-१९८८

25 comments:

नीरज गोस्वामी said...

ये शाश्वत विषय पर लिखी रचनाएँ हैं बालकिशन जी आज से सौ साल बाद भी अगर किसी के हाथ ये डायरी पढ़ गयी तो वो ये समझेगा की आज के हालात पर ही लिखी पंक्तियाँ हैं...(बहुत सही और सच्ची बात लिखी है)
आप को भी पुरानी डायरियां देखने का रोग लग गया "शिव" की तरह.....च च च च च
नीरज

कुश said...

ओहो आप तो पुराने डायरीबाज निकले.. लेखन खूब है

रंजना said...

किशन भाई,आपकी उधृत पंक्तियाँ कभी पुरानी पड़ने वाली नही हैं.ये सौ साल बाद भी उतनी ही प्रासंगिक और नई होंगी,जितनी आज या सौ वर्ष पहले हो सकती थी.वस्तुतः मानव के अन्दर बसा दानव कल भी विद्यमान था, आज भी है और कल भी रहेगा.बस यह है कि किसी के अंतस में यह जीवन पर्यंत सुप्तावस्था में होता है तो किसी के अन्दर हमेशा जगा और सजग होता है.बहुत कम ही मनुष्य ऐसे हैं जिनमे यह लुप्त होता है या जो इनको परस्त कर इनके प्रभाव से मुक्त रह पाते हैं.
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने.बहुत बहुत सुंदर.

रंजू भाटिया said...

काश यह बातें भी पुरानी हो जाती वक्त के साथ ..पर लगता है यह हर बार डायरी खोलने पर नई ही लगेंगी ..सही लिखा हुआ है जो उस समय सच था आज भी उतना ही कड़वा सच है

Abhishek Ojha said...

ये बातें लगता है कभी पुरानी ही नहीं होंगी.. मुझे तो लगता था की ये बातें तब न होती होगी... अगर उसी समय आपने ये लिखा था तो अब क्या कहें !

Shiv said...

वाह भाई वाह..बहुत बढ़िया लिखा है.
ये ब्लागिंग की सुविधा सन ८८ में होती तो हम आपको तभी बधाई दे लेते. लेकिन कोई बात नहीं है. आप आज बधाई स्वीकारिये.

Anita kumar said...

काश ये शाश्वत सच न होता, लेकिन रचनाएं जोरदार हैं। और अच्छी बात ये है कि रचनाएं किसी और की डायरी से नहीं ली गयी हैं,आशा है अब शिव भाईसाहब भी दुर्योधन की डायरी छोड़ अपनी डायरी से कुछ ऐसी ही फ़ड़कती रचनाएं सुनायेगें

Udan Tashtari said...

अरे गजब!! १९८८ में ये हाल थे कविता लिखने के तो अब तो पूरे २० साल की डायरी लेकर बैठ जाईये और सुनाना शुरु...बहुत खूब!!

परमजीत सिहँ बाली said...

दोनो रचनाएं बहुत बढिया हैं।बहुत सुन्दर लिखा है-

ये क्या हो रहा है अपने वतन में
हिंसा का बाज़ार गर्म है
जाने किसका भय छाया है जन में
सच पर झूठ का परदा डालते हैं
आज हर कोई माहिर है इस फन में
ये क्या हो रहा है अपने वतन में

Arun Arora said...

अच्छी कविताये है पर जरा डायरी संभाल कर रखना कही शिव कुमार जी के हाथ लग गई तो अपना माल परायी दुकान मे देख देख कर दुख सागर की रचना ना कर बैठो महाराज :)

झालकवि 'वियोगी' said...

सभी दिलों की बात कह दी आपने. जनाब, कुछ बातें होती हैं जो इंसान की फितरत से जुड़ जाती हैं. किसी भी मुल्क और किसी भी मज़हब का इंसान रहे, इन बातों से निकल नहीं पाता. लेकिन हम यही कहेंगे कि इस मुल्क को हम सब मिलकर बचायेंगे. मुल्क को बचने के लिए दी गई कोई भी कुर्बानी छोटी होती है. आपकी कलम का कायल बना दिया आपने.

गरिमा said...

काश ये बाते पूरानी होती
आज कोई नयी कहानी होती
दर्द से होता ना गहरा नाता
खुशियाँ जानी पहचानी होती

sudhakar soni,cartoonist said...

bahut marmsparshi kavitayein hai

ताऊ रामपुरिया said...

कंहा गया वो भाईचारा
कंहा गया ईमान हमारा

कही नही गया ! स्वार्थ
ने झटक लिया ईमान हमारा !!

बहुत बहुत बधाई और
शुभकामनाए !

Gyan Dutt Pandey said...

छुपे रुस्तम हैं बालकिशन; कयामत की नजर रखते हैं!

डॉ .अनुराग said...

समाज नही बदल रहा ,बस अपनी सूरत बदल रहा है ,आपकी डायरी इस बात का प्रमाण है

डॉ .अनुराग said...

समाज नही बदल रहा ,बस अपनी सूरत बदल रहा है ,आपकी डायरी इस बात का प्रमाण है

राज भाटिय़ा said...

बाल किशन जी हमेश से ही होता आ रहा हे यह कभी कम तो कभी ज्यादा,
आप की कविता आज के हालत पर बिलकुल सटिक हे, धन्यवाद सुन्दर कवितओ के लिये

Smart Indian said...

क्या बात है! सचमुच इन बीस सालों में इतना कुछ बदल जाने के बावजूद भी आपके द्वारा वर्णित परिस्थितियों में से कुछ भी नहीं बदला.

मुन्ना कुमार पाण्डेय said...

badhti umar aur pet (tond) ka dukh n dino mujhe bhi saalne laga hai..yaha hostel ka khana sharir mein nahi lagkar tond mein hi lag raha hai..WAISE ACHCHI KAVITAO KE LIYE BADHAI SWEEKAAR KAREIN.

seema gupta said...

"both the poems are narating the fact of today, good to read but painful to face the reality"

Regards

Dr. Shashi Singhal said...

बालकिशन जी बीस साल पुरानी आपकी कवितायें पढ़्कर जरा भी ऎसा नहीं लगता कि हम इतनी पुरानी कविताएं पढ़ रहे हैं । आपकी ये कवितायें उस समय के लिए उतनी प्रासंगिक न रही हों मगर ये आज के माहौल में एकदम फिट बैठ्ती हैं ।
आपने हमारे बदरंग होते जीवन तथा देश के बिगड़ते माहौल का थोडे़ से शब्दों में ही बखूबी वर्णन कर डाला है ।
इतनी सुन्दर रचना के लिये आप बधाई के पात्र हैं ।
शशि सिंघल

Unknown said...

बहुत बढ़िया। चलिए 'गुड ओल्ड डेज़' वाला मोहभंग तो हुआ। तो आतंक की आत्मा वही रहती है और अलग अलग काल में शरीर, वस्त्र और अपने आतंक को कार्यान्वित करने की प्रणाली बदल लेता है। वही चंगेज़ खान, कंस आज भी हैं।
घुघूती बासूती

श्रद्धा जैन said...

bhaut hi sunder kavitaye
laga hi nahi ki kuch badla hai
aisa laga ki jaise sab wahi ka wahi

aap itne salon se likh rahe hain jaan kar bhaut khushi hui

बालकिशन(kishana jee) said...

आपकी कलम बोलती है