Wednesday, June 18, 2008

पचासवीं पोस्ट कुछ ख़ास होनी चाहिए...इसलिए पुकारो मैराडोना को.

बहुत दिनों से महान अंतर्राष्ट्रीय कवियों की एक भी कविता पोस्ट नहीं की. आज इच्छा हुई कि एक कविता किसी महान कवि की पेश करूं. मेरी कवितायें पढ़कर आप सब ने जिस साहस और धैर्य का परिचय दिया है, उसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ.

ये कविता क्यूबा के महान कवि उजेल पास्त्रो की है. अपने बिस्तर पर लेटे इस महान कवि ने हाल में ये कविता कलमबद्ध की. आप भी पढ़िए.

ईख के खेत में नहीं उपजती है,
ये मंहगाई
न ही निकलती है
कानों तक पहनी गई टोपी के ऊपर से
किसी ने इसे नही देखा
नहीं देखा
कि ये मंहगाई उछल आई हो
सिगार के धुंए से बनने वाले छल्ले से

ये तो देन है उनकी
उस दयाहीन साम्राज्यवाद की
दुनियाँ को जिसने कर लिया है अगवा
जिसने मंहगा कर दिया बड़ा-पाव
जिसने आव देखा न ताव
बढ़ा दिया क्रूड आयल का भाव
डूब गई जिसकी वजह से
गरीबों की नाव

एक बार करो प्रण
एक बार चलो रण
पुकारो मैराडोना को
लूट लो चांदी-सोना को
एक बार कहो कि हो जाए नाश
टूट जाए साम्राज्यवाद का बाहुपाश
रहो चाहे दूर या रहो पास

जिसे है जरूरत
ढूढे मुहूरत
जाए काशी या जाए सूरत
जाए हवाना या फिर मकवाना
एक बार दे वचन कि;
कि प्राथमिकता है
इस साम्राज्यवाद को मिटाना
नहीं बच सकेगा
इसका ठिकाना
कोई उसे जाने
या हो अनजाना

पुनश्च:

कभी सोचा नहीं था कि चिट्ठाकारिता में इतना टिकूंगा कि पचास पोस्ट लिख डालूँगा. लेकिन जैसा कि कहा गया है, सत्य कभी-कभी कल्पना से ज्यादा आश्चर्यचकित कर देने वाला होता है.

ये मेरी पचासवीं पोस्ट है.

30 comments:

Ghost Buster said...

कविता क्या है जी, खोखली लफ्फाजी है ये. और संदेश भी क्या गजब है, "लूट लो सोना चांदी को". समाज की उन्नति के लिए ऐसी ही लूट खसोट की तो जरूरत है. महा बकवास.

कुश said...

पचासवी पोस्ट की बधाई.. आजकल सब विदेशियो की कविताए पोस्ट कर रहे है.. क्या बात है

रंजू भाटिया said...

५० वी पोस्ट की बधाई .कविता के अनुवादित रूप देने के लिए शुक्रिया

Shiv said...

वाह! बहुत शानदार कविता पोस्ट की है गुरु...और सामयिक भी...उजेल पास्त्रो मेरे भी बहुत प्रिय कवि हैं. उनकी एक कविता मुझे बहुत प्रिय है. अब याद आ गई है तो तुम भी पढो..

सिगार पीने का
जिंदगी जीने का
जूते को सीने का
मजा ही कुछ और है

ईख के रस का
काम मेरे बस का
शरबत-ए-खस का
मजा ही कुछ और है

खिलाड़ियों में मैराडोना का
धातुओं में सोना का
बर्तन में भगोना का
मजा ही कुछ और है

नेताओं में कास्त्रो का
कवियों में पास्त्रो का
उम्दा अग्नेयास्त्रों का
मजा ही कुछ और है..

उनकी कुछ कवितायें जल्दी ही अपने ब्लॉग पर छापूंगा...आईयेगा पढ़ने..

Anonymous said...

ये तो देन है उनकी
उस दयाहीन साम्राज्यवाद की
दुनियाँ को जिसने कर लिया है अगवा
जिसने मंहगा कर दिया बड़ा-पाव
जिसने आव देखा न ताव
बढ़ा दिया क्रूड आयल का भाव
डूब गई जिसकी वजह से
गरीबों की नाव
wah bahut badhiya

pachas vi post ki badhai bhi.

Anonymous said...

ये तो देन है उनकी
उस दयाहीन साम्राज्यवाद की
दुनियाँ को जिसने कर लिया है अगवा
जिसने मंहगा कर दिया बड़ा-पाव
जिसने आव देखा न ताव
बढ़ा दिया क्रूड आयल का भाव
डूब गई जिसकी वजह से
गरीबों की नाव
wah bahut badhiya

pachas vi post ki badhai bhi.

Arun Arora said...

क्या बात है आजकल विदेशी कवियो का सम्मेलन चल रहा है चलाते रहिये जो जलते है उनको जलाते रहिये हम भी एक विदेशी कवित्री ( पिछले तीन दिनो से कवियो की रचनाये ही ठेली जा रही है ) की रचनाये पढवाते है जी

जब सर्द हवाओ के चलते
पेट हो जाता है दोहरा
भूल जाता है
भूख का ककहरा

Anonymous said...

'कभी सोचा नहीं था कि चिट्ठाकारिता में इतना टिकूंगा कि पचास पोस्ट लिख डालूँगा.'
अरे हम तो आपकी ५सौं वी पोस्ट पढ़ने को आतुर हैं।

डॉ .अनुराग said...

आप पोस्ट गिनते भी है .....कमाल है.....कभी मुश्यारा कभी कविता ....क्या बात है मह्श्य ...वैसी ये सही मडोना ठेली है आपने ....

Abhishek Ojha said...

उजेल पस्त्रो :-) बढ़िया है !

वैसे पचासवी पोस्ट केलिए बधाई !

Gyan Dutt Pandey said...

पचासवीं पोस्ट की बधाई।
वैसे उजेल-पास्त्रो की कविता छाप कर बड़ा अजदकीय पुण्य का काम किया है आपने। इसमें कुछ पारिवारिक शब्द भी होते को कविता में निखार आता!

mamta said...

पचासवीं पोस्ट की बधाई और ऐसी ही अनेक पोस्ट लिखें उसके लिए शुभकामनाएं।

काकेश said...

आज तीन दिन बाद ब्लॉग जगत में लौटा तो आपकी खूबसूरत कविता दिखी. हम आपकी पांच लाखवीं पोस्ट देखना चाहते हैं. अब केडीके साहब की कविता झेलें.

करीने से सजाये बिस्तर पर
वह सलवटें
अभी भी अहसास दिलाती है
कि तुम मौजूद हो
दर्द जब सिमटने लगे
अन्धेरा आगोश में लेने लगे
तब कहीं दूर जलता दिया
उम्मीद की किरण जगा देता है.

अब एक सामयिक कविता

फटी गंजी,
टूटे चप्पल,
गंदी लुंगी,
सूखी मूड़ी,
मुँह में माछेर झोल का स्वाद
कौन कहता है कि
मैं सपने नहीं देखता.

झालकवि 'वियोगी' said...

कविवर केडीके को कमलेश 'बैरागी' का प्रणाम स्वीकार हो. एक कविता पेश है. क्या करें ये बरसात का मौसम अब कविता का मौसम बन चुका है. इसलिए ये कविता झेलिये...

सपने देखता है हर कोई
हम भी देखते हैं
मछेर झोल का सपना
साथ में आलूदम और भात
उसके अलावा रोटी सात-आठ

फटी लुंगी का किनारा
टूटे हुए चप्पल ने दबोच रक्खा है
काश के लुंगी फटी न होती
तो चप्पल को परेशानी न होती

परेशां दोनों हैं
चप्पल और हम
साथ में बारिश ने कर रक्खा है
नाक में दम

अगर मैं मानता
इन्द्र देवता को
तो उनसे जरूर कहता कि;
या तो पानी कम बरसाओ
या फिर एक अच्छी लुंगी
और एक चप्पल दिलाओ

काकेश said...

इन्द्र देवता की खबर लेने केडीके साहब गये थे.खबर इस प्रकार है.

इस देश में परेशां होना
हमारी किस्मत है
इन्द्र देवता सारे काम करेंगे
पहले यह तो बताओ
कहाँ रिश्वत है.

और फिर तुम सिर्फ
चप्पल क्यों चाहते हो,
चाहो तो दो वक्त की रोटी चाहो
सर छुपाने की जगह चाहो
बच्चो के लिये खिलोने चाहो
आंखों में चश्मा चाहो
हाथों में गुलाब चाहो
चाहो तो सही
लेकिन चाहने से भी
मैं कुछ देने वाला नहीं
मैं सिर्फ सपने बेचता हूँ

झालकवि 'वियोगी' said...

जनाब केडीके साहब को इस बात का शुक्रिया कि उन्होंने इन्द्र से बात की..लेकिन एक बात पर मुझे शक है. इस मंहगाई के जमाने में सपने भी कोई नहीं खरीद पा रहा है. कविवर, बात केवल चप्पल की नहीं है. चाहता तो मैं भी था कि चश्मा और गुलाब चाहता लेकिन अब तो चाहत भी बहुत मंहगी हो गई है...एक कविता पेश है मेरी इस हालत पर...गौर फरमाईये..

मंहगाई के इस जमाने में
ऐसी है हालत
कि राशन की दुकान पर भी
नहीं बिकती चाहत
मुंह माँगी कीमत देने की होती हैसियत
तो फिर क्यों होती सपनों की ऐसी चाहत
टूटा हुआ चप्पल, फटी हुई लुंगी
बजती जा रही है गरीबों की पुंगी

गुलाब मांग तो लें
लेकिन कोई स्वीकार नहीं करेगा
एक गरीब का गुलाब
ऊपर से बिगड़ जायेगा
घर का हिसाब
बच्चे के खिलौने
जैसे हो औने-पौने
सब्जी की कटोरी
और दाल के दोने

सपने बेंच तो लोगे
लेकिन खरीदेगा कौन?
इतनी मंहगाई है
कि सपनों की भी बन आई है
ऊपर से वे चिढाते हैं
आन्केहीं दिखाते है
जिनकी थाली में पूड़ी है
और कटोरी में मलाई है
वे ही तो बड़े चाव से सब खाते हैं

दर्द होता है सीने में
उसे रोकने की दवा
खोजते हैं पीने में
अब तो कोई मज़ा नहीं रहा
जिंदगी को जीने में

काकेश said...

केडीके साहब का उत्तर
------

आपका जिन्दगी का फ़लसफा इन्द्र के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता.इसलिये ब्रह्मा जी से सैटिंग की..उन्होने जो कहा हाज़िर है.

सबको नहीं मिल सकती
दूध और मलाई
तेल के भाव बढ़ गये है
जान पे है बन आई

खिलाना तो मैं सब को चाहता हूँ
लेकिन इतना सामान
कहां से आयेगा
सबको खिला दिया तो
मेरे घर का बजट बिगड़ जायेगा

कुछ हैं
जो जी भर खाते हैं
तो उनके विदेश में भी
खाते हैं
कुछ हैं
जो खाते,पीते है
मस्ती से जिन्दगी जीते हैं
कुछ है
जो केवल
पीते हैं चुल्लू
और बनते हैं उल्लू
उनसे कहो कि यदि
खरीद भी नहीं सकते एक सपना
तो क्यों जीते हो?
अरे सपने देखने के लिये
ही तो पीते हो

तो पियो, जियो और सपना देखो
दुनिया तुम्हारी है
इसका हर माल अपना देखो

कुछ घड़ी सपने में आराम करो
फालतू में मुझे ना बदनाम करो
मैने तो तेरा भला किया है
तुझे भारत जैसे देश में जनम दिया है
तेरा पेट भले ही खाली हो
तुझे हर कोई देता गाली हो
पर अपने देश का सम्मान मत भूलना
तेरा भारत महान है मत भूलना

तो
खूब पियो और करो
इस देश का गुणगान
जोर से बोलो मेरा भारत महान

admin said...

पचासवीं पोस्ट के रूप में पास्त्रो की कविता पढकर मन प्रसन्न हो गया।
बधाई हो बधाई।

महेन said...

यदि आप मुझे कोसें नहीं तो आपको बताना चाहूँगा कि आपकी कविता "क्या ये चेहरा तुम्हारा है?" की तर्ज़ पर कुछ लिख मारा है मैनें। यहाँ पढ़ें… http://meribatiyan.blogspot.com/2008/06/blog-post_19.html

महेन said...

आपकी बम रूपी टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा।

समयचक्र said...

महान कवि उजेल पास्त्रो की सुंदर कविता पढ़ने के लिए आभार

समयचक्र said...

पचासवीं पोस्ट बधाई.

रंजना said...

बालकिशन भाई, पचासवीं पोस्ट के लिए हार्दिक शुभकामनायें.यह पचास ईश्वर करें सौ हजार नही लाख तक पहुंचे.
और कविता की क्या कहूँ,कवि केडीके और बैरागी जी की प्रतिभा देख तो दंग और मुग्ध हूँ.
भाई आप तो ऐसा करें कि एक लाइव मुशायरा/काव्य गोष्ठी का आयोजन करा ही दें अब.ट्रेलर इतना लाजवाब है तो पूरे शो में आनंद की कैसी रसधारा बहेगी ,कल्पना कर सकते हैं.आख़िर दुनिया के सामने लाइव इन दोनों महाकवियों का आना अब बड़ा ही आवश्यक हो गया है.इनकी इतनी विलक्षण प्रतिभा नेपथ्य में हो यह मुझे सर्वथा अनुचित लग रहा है.

नीरज गोस्वामी said...

बल्लू प्यारे
पचासवी क्या पाँच सो वीं पोस्ट भी लगाना
लेकिन इस "उजेल पास्त्रो" को मत पढ़वाना
निकल गयी है प्यारे मेरे सर के ऊपर से
क्या लिखना था क्या लिख डाला जाने किसके डर से
अगर कवि ना मिले और तो सिंपल काम करो
कविता मेरी छाप सभी के दुःख संताप हरो.
नीरज

Arvind Mishra said...

यदि यह अनुवाद है तो मूल कविता भी देखना चाहूंगा .अभी तो यह आगाज है !

admin said...

51वीं पोस्ट कब आएगी सरजी?

Shastri JC Philip said...

पचासवीं पोस्ट एवं 3/10 पेजरेंक के लिए बधाई स्वीकार करें!!

डा. अमर कुमार said...

दईया रे, यहाँ तो लिखे पढ़ों की पूरी ज़मात इकट्ठा है ,
बालकिशुन गुरू, बधाई ले लेयो और हमें चलै देयो !

सतीश पंचम said...

फटी गंजी,
टूटे चप्पल,
गंदी लुंगी,
सूखी मूड़ी,
मुँह में माछेर झोल का स्वाद
कौन कहता है कि
मैं सपने नहीं देखता.
- मूल कविता के साथ टिप्पणीयां भी मजेदार है।

समयचक्र said...

bhai dada 51 vee post kab de rahe hai . apka blaag padhane ki jo aadat ho gai hai.