Thursday, May 29, 2008

एक रहस्य - एक सपना

रात........ आसमान से सुनहरी धूप के रथ पर सवार एक श्वेत, सुंदर परी मेरे घर के पास वाले कुएं की मुंडेर पर उतरी. मुझे आवाज दे देकर उसने जगाया और कभी मेरे बालों को सहलाती हुई कभी गुदगुदाती हुई हाथ पकड़कर मेरा नीले, तारों भरे आकाश मे उड़ने लगी.

जंगल, नदी, नाले, पर्वत, खेत सब पार करते हुए हम दोनों आकाश मे उड़ते फिरने लगे...........उसके साथ से मुझे असीम शान्ति और सुख मिल रहा था. रिम-झिम बारिश की बूंदों मे भीगते हम दोनों उड़ते रहे......उड़ते रहे...... फ़िर बादलों मे बने एक सुंदर,विशालकाय भव्य महल में हम उतरे. उस महल मे हम दोनों के अलावा कोई नही था. पर स्याह काली रात का अंधकार और काले बादलों से घिरा वो महल मुझे भीतर से डराने लगा तभी वो श्वेत, सुंदर परी मेरा हाथ अपने हाथो मे लेते हुए बोली डरो मत राजा ये मेरा ही महल है. पर यंहा मुझे क्रूर राक्षस ने बंदी बनाकर रखा है. रात मे जब वो सोता है तो मैं बाहर की दुनिया मे जाती हूँ. और एक दोस्त बनाती हूँ. शायद कोई दोस्त मुझे इस राक्षस से बचा सके........ वो सुबकने लगी ...... और फ़िर मेरा हाथ पकड़े-पकड़े ही बोली क्या तुम मुझे बचाओगे राजा? मैंने कहा मैं तुम्हे जरुर बचाऊँगा इस राक्षस से, मैं उसे मार डालूँगा पर ये सब बातें सिर्फ़ उसके मोह मे मेरे मुंह से निकल रही थी और कंही एक डरावना सा ख्याल भी मन मे अ रहा था कि वो राक्षस अभी आजाये तो मुझे निश्चय ही मार डालेगा. हम इसी तरह से बातें कर ही रहे थे कि यकायक जोरदार गर्ज़न सुनाई दी जैसे पहाड़ कि ऊँची चोटी से किसी ने बड़ी चट्टान धकेल दी हो, सुंदर परी घबरा गई, वो बोली तुम्हे जाना होगा मेरे राजा, क्रूर राक्षस के जागने का समय हो गया है वो तुम्हे मार डालेगा. इतना कहकर उसने मेरा हाथ पकड़ा और आसमान की ऊँचाइयों पर ले गई और बोली अलविदा मेरे राजा.......फ़िर मिलेंगे.......वो रो रही थी.............

मैं चीखा नहीं........नहीं.... ....तुम नहीं जा सकती इस तरह मझधार मे मुझे छोड़कर...... मैं इतने ऊंचाई से नीचे कैसे जाऊंगा, घर कैसे पहुंचूंगा, माँ राह तकेगी......पर वो नहीं मानी. उसने कहा नहीं राजा मुझे जाना ही होगा हो सका तो फ़िर मिलूंगी और उसने धीरे से मेरा हाथ छोड़ा और फ़िर आकाश की गहराइयों मे खो गई......... उस घड़ी लगा जैसे जिंदगी ने मेरा हाथ छोड़ दिया है......मैं ऊंचाई से गिरने लगा. लगा कि जैसे सब ख़त्म...... अब नहीं बच सकूँगा. मैंने सभालने की कोशिश की और फ़िर धीरे... धीरे..... संभलने लगा और ....... और...... फ़िर जैस जमीन पर चलता था वैसे ही आकाश मे चलने लगा. मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. उस घड़ी सुंदर परी का गम दिमाग से जाता रहा, मैं फ़िर आकाश की उन्चाईया छूने लगा.

बादलों ने मोटी मोटी जल की बूंदों से धरती को भिन्गोना शुरू कर दिया था. मुझे इतने ऊंचाई पर जाकर बादलों के साथ खेलकर असीम आनंद मिल रहा था सारे के सारे तारे मेरे इर्द-गिर्द थे मैं कभी तारों के बीच......... तो कभी बादलों के बीच....... आनंद अपनी चरम सीमा पर था. फ़िर मैंने सोचा की ऊपर से धरती कैसी दिखती है जाकर देखूं.
मैं थोड़ा नीचे आया तो ये क्या......... जल की जो बूंदे आकाश से गिर रही थी वो धरती पर पड़ते ही विशाल अंगारों का रूप धारण कर ले रही थी ...... आसमान के तारे भी आग का गोला बन बन कर धरती पर गिर रहे थे..... .... समूची धरती एक विशाल अग्नि कुंड बन चुकी थी......... इन अग्नि कुंड मे सब कुछ जल कर राख हो रहा था......चारों तरफ़ सिर्फ़ और सिर्फ़ आग थी.........

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मेरी पिछली पोस्ट पर ब्लोगर बंधुओं द्वारा की गई टिप्पणियों मे समस्या के हल खोजने के बजाय मुझे सांत्वना और समझौते के स्वर ही ज्यादा सुने दिए. ये शिकायत नहीं है. खैर प्रस्तुत समय के लिए मैंने इस सांत्वना मे ही समस्या का हल पाया है.
आप सबका धन्यवाद.

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वो देखो गम के ठीक पीछे खुशी खड़ी हमारा इंतज़ार कर रही है.

11 comments:

काकेश said...

साहित्यकार बाल किशन जी का स्वागत है.

Udan Tashtari said...

अद्भुत. बहुत उम्दा लेखन.

वो देखो गम के ठीक पीछे खुशी खड़ी हमारा इंतज़ार कर रही है.

-हम भी उसी के इन्तजार में थे. आपने दिखा दिया, आभार मित्र.

Gyan Dutt Pandey said...

प्रिय बालकिशन, आपको आपकी सेन्सिटीविटी और आपके सुन्दर लेखन के लिये अतिशय सादुवाद।

Gyan Dutt Pandey said...

आपकी छुट्टियों से ईर्ष्या हो रही है। हम तो गुज्जर आन्दोलन से यातायात व्यवधान झेल रहे हैं!

रंजू भाटिया said...

बहुत खूब तरीके से आपने कहा है .. वो देखो गम के ठीक पीछे खुशी खड़ी हमारा इंतज़ार कर रही है....अंधेरे के बाद उजाला होगा ही ..ज़िंदगी इसी का नाम है ..:)

Shiv said...

अरे डायरी निकाल लिए हो क्या? मतलब ये कि अब पाला बदल रहे हो....साहित्यकार के रूप में सामने आओगे....
वैसे बहुत बढ़िया लिखा है....तुम तो बड़े संवेदनशील टाइप इंसान निकले..:-)

azdak said...

वो ग़म के पीछे क्‍यों, ठीक आगे भी ग़म ही खड़ी दिखे तो? आज अभय के पोस्‍ट में वही दिख रहा है.. शायद अभय की आंख कमज़ोर हो रही है, मेरी तो बहुत सारी चीज़ें कमज़ोर हैं..

Abhishek Ojha said...

साहित्य और कल्पना का अच्छा संगम है आपके इस पोस्ट में!

Arvind Mishra said...

वाह क्या रूमानी फंतासी है !

डॉ .अनुराग said...

मुबारक हो आपको खुशी दिख गयी....

महावीर said...

सारे विश्व में नज़र डालें तो हर देश में ग़म के पीछे खुशी केवल इंतज़ार ही करती रहती है, पल्ले में केवल इंतज़ार के अतिरिक्त कुछ नहीं मिल पाता। इससे पहले कि खुशी अपना दामन फैलाए, दूसरा ग़म आकर ठहाका मारता है। खुशी को यदि अवसर मिल भी गया तो केवल कुछ क्षणों के लिए। आपकी इस फंतासी में भी खुशी जरा सी देर के लिए आई और क्षण में ही.... समूची धरती एक विशाल अग्नि कुंड बन चुकी थी....।
बहुत ही रोचक और अपने अनूठी शैली में बहुत कुछ कह डाला। अति सुंदर।