Tuesday, December 11, 2007

समतल जमीन पर खड़ा, सोचता हूँ...


जब भी देखता हूँ
घर के सामने बैठे टीले को
एक ही विचार आता हैं मन में
जैसे पूछ रहा हो कि;
मुझे ऊंचा समझते हो, लेकिन;
मेरी ऊंचाई
तुमने क्या ख़ुद नापी है?
समझ नहीं आता
क्या जवाब दूँ
कोई जवाब नहीं सूझता
जवाब की शक्ल सवाल ले लेते हैं
क्या कभी
इस टीले के प्रश्न का जवाब दे सकोगे?

जब भी खड़ा होता हूँ
तालाब की सामने वाली
डेढ़ बीघा जमीन पर
व्याकुल मन को लगता है
तालाब भी प्रश्न कर रहा है
'गहराई कितनी है,
क्या तुमने ख़ुद नापी है?'
व्याकुल मन तड़पता है
तालाब के सवाल का
जवाब खोजता है

फिर सोचता हूँ;
टीले की ऊंचाई
और तालाब की गहराई
दोनों ही
किसी और ने तय किए
मैं न तो ऊंचाई नाप सका
न ही गहराई
जीवन बिता दिया
इस समतल जमीन पर
दूसरों को देखो
न सिर्फ़ ऊचाई चढ़े बल्कि;
गहराई भी नापी
हमें तो दूसरों ने ही बताया
कि टीला कितना ऊंचा है
और तालाब कितना गहरा

11 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

आप तो फिर भी अच्छा सोचते हैं मित्र। बहुतों को तो ऊंचाई या गहराई में कोई जिज्ञासा ही नहीं। कोई बताये तब भी नहीं सुनते। ऊंचाई या गहराई की बजाय त्वचा की चिकनाई ही ध्येय है उनके जीवन का।

Shiv Kumar Mishra said...

आख़िर डायरी आपने खोल ही ली बंधुश्रेष्ठ. चलो अच्छा है कुछ और अच्छी कवितायें तुम्हारी पढने को मिलेगी.
इस कविता से जुड़ी कई यादें ताजा हो गई.
बस एक ही शिकायत है तुमसे इतने नाराज क्यों दिखते हो कविताओं मे. कुछ फूल-खुशबु कुछ चाँद-रौशनी कुछ इश्क- वफ़ा की भी बातें किया करों.
ज़माने से लड़ कर कंहा तक पंहुच पाओगे तुम
मुझे पता है एकदिन थक जाओगे तुम.

आपकी अच्छी कविताओं के इंतजार मे.

अभय तिवारी said...

विचारों का उतार चढ़ाव जारी रहे मित्र.. सही है.. तस्वीर भी आप ने बड़ी चुन के लगाई है..

मीनाक्षी said...

कविता का दर्शन चिंतन करने को बाध्य करता है.

mamta said...

फोटो जितनी सुन्दर उससे कहीं ज्यादा सुन्दर आपकी कविता है। बधाई ।

नीरज गोस्वामी said...

हमारा इसटाइल मार रहे हो गुरु. बढ़िया फोटो के साथ बढ़िया रचना छाप रहे हो गुरु.( सच कहने में संकोच कैसा?) सही जा रहे हो.हम कहीं पहुंचे न पहुंचे लेकिन आप ज़रूर कहीं पहुँच जायेंगे.लगे रहो बस इसी तरह.
नीरज

रवीन्द्र प्रभात said...

बहुत सुंदर और सारगर्भित कविता है आपकी , विचार अति-उत्तम है , बधाईयाँ !

Unknown said...

Sir ji what an idea.
सरजी सुंदर टिप्‍पणी के लिए धन्‍यवाद। तबीयत कुछ नाशाद थी।

Sagar Chand Nahar said...

बहुत बढ़िया रचना..

Shastri JC Philip said...

"दूसरों को देखो
न सिर्फ़ ऊचाई चढ़े बल्कि;
गहराई भी नापी"

वाह क्या अभिव्यक्ति है. सोचने वाले के लिये इसमें बहुत कुछ निहित है !!

Reetesh Gupta said...

बहुत सुंदर लगी आपकी कविता ...जितने भाव सहज उतना ही उसे कहने का ढंग भाया....बधाई