Saturday, November 3, 2007

माँ-बाप

कल जब से सरौता बाई और बसुआ के बारे में पढ़ा तब से दिमाग वंही अटका हुआ है. मैंने भी दो चार बसुआ जैसे इंसान अपनी जिंदगी मे देखें है. एक अनुभव इन घटनाओं से ये मिला कि कुछ लोग कभी कैरियर कभी जेनरेशन गैप के नाम पर अपने माँ-बाप को तकलीफ देतें हैं. असल मे इनकी (माँ-बाप की) सबसे बड़ी जरूरत रूपया पैसा वगैरह नही है इनको बस ये चाहिए कि ये अपनी औलाद के साथ रहें और वो उनकी बातों को भी उसी तन्मयता से सुने जैसे इन औलादों की बचपन से माँ-बाप सुनते आए है. इन्ही सब बातों पर सोचते हुए कुछ लिखा है जो आप सबको दे रहा हूँ.


जिगर के टुकड़े, मैंने कब मांगी थी कायनात तुझसे,
दिया तुने ये क्या कि मेरा घर भी ना रहा मेरा.

जीवन की आस, तेरे हर आंसू पर इक समंदर रोया हूँ मैं,
सिला ये कि तू आंसुओं का सैलाब ले आया जिंदगी मे मेरे.

मेरे लाल, अंगुली जब कटी थी तेरी खून दिल से बहा था मेरे,
और अब कागज के चंद टुकड़े भी भारी हो गए खून पर मेरे.

करवटें बदल-बदल रात भर तुझे सूखे में सुलाती थी तेरी माँ,
मिला ये कि तू ग़मों की बाढ़ ले आया जीवन मे हमारे.

अपनी तो गुजर चुकी है उम्र सारी तू कुछ ऐसा कर
मेरे बच्चे, तेरे बच्चे ना चलदें नक्शेकदम पर तेरे.

माँ - बाप के मुंह से तो बच्चों के लिए हर हाल में दुआ ही निकलती है. मेरी भगवान् से यही प्रार्थना है कि किसी सरौता बाई का बेटा बिसुआ ना बने. आमीन.

12 comments:

Shiv said...

भाई बहुत अच्छी बात कही तुमने....बात जनरेशन गैप वैप की नहीं है.....बात भावना की है, बात अपने बीते हुए दिनों को न भूलने की है.

ई बिशुआ जैसे लोग होते ही हैं लेकिन खतम होते हैं...कायर होते हैं.

Gyan Dutt Pandey said...

रेलवे अस्पताल में एक समस्या देखने में आती है। वृद्ध रिटायर्ड कर्मचारी बहुत संख्या में होने लगे हैं जो एक बार भरती होने पर डिस्चार्ज नहीं होना चाहते। डाक्टर से विनती करते हैं कि उन्हें वहीं रहने दिया जाये। घर से कोई नहीं आता उन्हें पूछने।
निश्चय ही वहाँ अस्पताल में घर से बेहतर ट्रीटमेण्ट मिलता है। पुरानी पीढ़ी बोझ बन गयी है घर में।

काकेश said...

बहुत अच्छा लिखा आपने बालकिशन जी.

रवीन्द्र प्रभात said...

"अपनी तो गुजर चुकी है उम्र सारी तू कुछ ऐसा कर , मेरे बच्चे, तेरे बच्चे ना चलदें नक्शेकदम पर तेरे."

दिल को छू लेने वाली दास्तान सुना दी आपने...बहुत अच्छा!

सुनीता शानू said...

सचमुच एक सच्ची घटना है यह...हम कितना भी सोच लें हम वो नही थे जो हमारे माता-पिता थे,फ़िर बच्चों से उम्मीद कैसे लगायें कि वो वैसा बन ही जायें जैसे की हम हैं...जनरेशन गैप ही सबसे बड़ी बात लगती है...

शशिश्रीकान्‍त अवस्‍थी said...

ज्यादातर मां बाप बिसुओं को झेल रहे है । आज कल की औलादे अपनी औलादों के लियें एक पैर से नाचते है लेकिन अपने बाप के तपते बदन पर एक हाथ नही रख सकते है क्‍यों कि न तो उनके पास समय है और न ही मन में भावना । लेकिन हमारे समाज में यह कहा जाता है कि संस्‍कार हमे घर से ही मिलते है आज जब हम अपने बच्चों के सामने अपने मां बाप को प्रताणित करते है, उन्‍हे उनकी पीठ के पीछे उल्‍टा सीधा कहते है,वह भले ही उसको न सुन पाते हो लेकिन भविष्‍य अवश्‍य सुन लेता है । इसलियें हम अभी से सचेत हो जाये अगर हमें अपने बुढापे में सम्मान पाना है बच्‍चो का प्‍यार पाना है तो हम भी अपने मां बाप को सम्‍मान देना शुरू कर दे नही तो हमारे बुढापे में हमारे बच्‍चे हमारे लियें बिसुआ ही बनेंगें ।

शशिकान्‍त अवस्‍थी
पटकापुर,कानपुर
उत्‍तर प्रदेश

मीनाक्षी said...

विचित्र माया है , कल आपने मेरे निराश होने पर अपनी टिप्पणी से मुस्कान ला दी. पक्षियों को देखिए खुद ही अपनी चोंच से अपने बच्चे को उड़ने को उकसाते हैं.
अच्छा सोचिए , अच्छा ही होगा.

बोधिसत्व said...

आपकी कलम आपके बारे में जानने को विकल करती है...पर

Asha Joglekar said...

स्थिति दु:ख दायक है पर है सत्य ।

नीरज गोस्वामी said...

बालकिशन जी
बहुत खूब लिखा है.
मेरी ग़ज़ल के दो शेर आप की इस पोस्ट के नाम :
"जिक्र तक हट गया फ़साने से
लोग जब हो गए पुराने से
बात सुनते नहीं बुजुर्गों की
हैं खफा उनके बुदबुदाने से"
हम अगर वड्डे पापाजी हैं तो आप भी कुछ कम नहीं हो जी
नीरज

महावीर said...

बाल किशन जी
दिल को छूने वाली रचना है। आरंभ के शब्दों ने ही जैसे बुज़ुर्गों के दिल को सामने ला कर दिया हो - 'जिगर के टुकड़े' ! हर पंक्ति पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे चलचित्र देख रहे हों। आंखें नम हो गईं। काश कि बिसुआ जैसे युवकों को केवल इतनी बुद्धि मिल जाए कि वे अपने माता-पिता के बुढ़ापे
के हाल को देख कर अपने भावी बुढ़ापे का भान कर सकें।
इतनी भाव-पूर्ण रचना के लिए धन्यवाद।
महावीर शर्मा

संजय सिंह said...

Bhai bahut achchha likhe ho.