Thursday, November 1, 2007

साहित्यकार एक बार फिर जमीन से जुड़ गया

जनता भी कब किस बात पर नाराज हो जाए, या खुश हो जाए, कह पाना मुश्किल है.इस बार साहित्यकारों से शिकायत कर बैठी.बोली; "कैसे लोग हैं आप?कितने दिन हुए, आप लोगों को जमीन से जुड़े हुए नहीं देखा."

साहित्यकार बोला; "अरे, ऐसा क्यों कह रहे हो.जमीन से ही तो जुड़े हैं हम.हमसे ज्यादा कौन जुडा है?"

जनता ने उलाहना देते हुए कहा; "कोई निशान दिखाई नहीं देता जिससे पता चले कि आप जमीन से जुड़े हैं.आप बताईये, आपने ऐसा क्या किया जिससे हमें लगे कि आप जमीन से जुड़े हैं."

साहित्यकार सफाई देते हुए बोला; "देखते नहीं, पापलीन का कुर्ता पहन रखा है हमने.सालों से जूता पालिस नहीं किया.धूमिल, त्रिलोचन, नागार्जुन को छोड़कर किसी की बात भी नहीं करते हम.और क्या करें कि तुम मेरी बात पर विश्वास करोगे. अरे, कभी-कभी तो जमीन को भी शक होता है कि हम उससे जुड़े हैं, या फिर जमीन हमसे."

जनता बोली; "ये सब तो आजकल सभी करते हैं.इसमें नया क्या है?"

साहित्यकार ने कहा; "ठीक है, अगर ऐसी बात है तो आज ही गाँव पर, चमरटोली पर, भैंस पर, भैंस के गोबर पर कुछ लिख डालते हैं."

जनता संतुष्ट नहीं हुई.उसके चेहरे के भाव को साहित्यकार ने भांप लिया.बोला; "और क्या चाहते हो प्रभु? और ऐसा क्या लिखूं कि आपको लगे कि हम जमीन से जुड़े हुए हैं?"

जनता ने कहा; "सोचिये और लिखिए.कुछ भी लिखिए.लेकिन ऐसा लिखिए जिससे हमें लगे कि आप जमीन से जुड़े हुए हैं."

दूसरे दिन साहित्यकार ने निबंध और कहानियाँ लिखनी शुरू की.इन कहानियों और निबंधों में गू, मूत, उल्टी, टट्टी और न जाने क्या-क्या के बारे में लिखा.जनता को विश्वास हो गया कि साहित्यकार एक बार फिर से जमीन से जुड़ गया है.

13 comments:

Shiv said...

क्या भैया,
ये नए महीने की शुरुआत किन किन चीजों से कर रहे हो...अभी से पंगे?....ये आलोचक का चोला कब से धारण किया..?

वैसे लिख कर गर्दा उड़ा दिए हो गुरु....अब ई गर्दा उड़कर कहाँ-कहाँ पहुंचता है, ये देखना है.

नीरज गोस्वामी said...

"इन कहानियों और निबंधों में गू, मूत, उल्टी, टट्टी और न जाने क्या-क्या के बारे में लिखा.जनता को विश्वास हो गया कि साहित्यकार एक बार फिर से जमीन से जुड़ गया है."
आप की इस पोस्ट ने ताली बजाने को विवश कर दिया है. अब आप महानता की और अग्रसर हैं.
बधाई
नीरज

Pramendra Pratap Singh said...

पढ़ कर अच्‍छा लगा, आपने समूहिक ब्‍लाग के बारे में पूछा था किन्‍तु आपका कोई सम्‍पर्क सूत्र न हो पाने के कारण बात जानकारी नही दे सका।

समूहिक ब्‍लागिंग आप स्‍वयं भी आयोजित कर सकते है तथा आप अपने मित्रों के साथ उनके ब्‍लाग पर भी लिख सकते है। सामूहिक ब्‍लागिंग में विचारों का मिलना मेरी समझ से जरूरी है। आपकी बात से लगा कि आप समूह से जुडना चा‍हते है। मुझे खुशी होगी किन्‍तु‍ थोड़ा आपके बारे में जानना चाहूँगा, अगर आपका अन्‍य विचार हो तो मेरे बात को इग्‍नोर कर दें।

आपका
प्रमेन्‍द्र

Gyan Dutt Pandey said...

भैया बालकिशन, ये, बोले तो बम्पर सिक्सर है!
साहित्य की असलियत का असली सत्य (जैसे कि नकली सत्य कुछ होता हो!) यही है - जमीन से पूरी उच्छिष्टता से जुड़ना!
भैया अपना ई-मेल या फोन नम्बर बताना - आप तो उदीयमान ब्लॉगर लगते हैं! ऑफकोर्स, साहित्यकार नहीं!

Udan Tashtari said...

अब जाकर लगा कि आप जमीन से जुड़े हैं वरना तो सब हवा बाजियाँ हैं. बेहतरीन लिख गये. :)

अनिल रघुराज said...

वाकई जनवादी साहित्यकारों का असली सच। जनता के नाम से ही इनकी दुकान चलती है। नहीं तो साहित्य के नाम पर तो इनको कोई पूछे ही नहीं। अच्छा व्यंग्य है।

Satyendra PS said...

सही लिखा। मारू है। लेकिन समस्या तो है ही गुरु कि जनता क्या चाहती है। ऐसे में यही फार्मूला सही है कि अपनी बात लिखो, खुश रहो।

काकेश said...

छाये रहो. और हमारे चिरका समाज में भी नजर डाल लो.

http://chirkeen.blogspot.com

Sagar Chand Nahar said...

जमीन से जुड़ने का बढ़िया तरीका बताया आपने, कोशिश करते हैं कि हम भी जमीन से जुड़े लेखक बन सकें। :)
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल

आनंद said...

बहुत अच्‍छे से जूता मारा है आपने। बहुत मज़ा आया। लगे रहो....
-आनंद

दीपक भारतदीप said...

आपकि रचना बहुत अच्छी है। वैसे मै तो इससे भी आगे बढ्कर कह्ता हूं कि जमीन में घुस जाओ और सोचो अपने आप बेहतर रचनाएं आयेंगीं। आकाश की तरफ़ मत देखो जमीन पर ही लिखने लायक बहुत कुछ कहानिया हैं।

दीपक भारतदीप

Sanjeet Tripathi said...

गज़ब!!
रख के दे दिए आप तो, अब लेने वाले रख के लेते है या नई देखना होगा!!

ghughutibasuti said...

जबर्दस्त सटायर उपहास, या जो भी है, वह कर रहे हैं । हम तो हाई हील्स के कारण जमीन से कुछ ऊँचे ऊपर उठ जाते हैं । पर समस्या है अपने कद के कारण आकाश से फिर भी दूर ही रहते हैं ।
वैसे सोच रहे हैं इस दीवाली पर अपने आँगन को गोबर से लीपकर, गेरू लगाकर एँपण( एक तरह की अल्पना/ रंगोली) बना देती हूँ । हुआ तो फोटो खींचकर अपने जमीन से जुड़े होने का प्रमाण भी दे दूँगी ।
बगीचे में खाद डालते का फोटो भी भेजने का यत्न करूँगी ।
घुघूती बासूती