Wednesday, October 10, 2007

आधा बाबू

पढ़ कर कि बड़ा अटपटा सा लग रह होगा ये नाम, पर ये सच है. हम सब की जिंदगी में एक आध आधा बाबू ऐसे होते है जो हमारी जिंदगी को पूरा करने पर तुले रहते हैं। इनकी कुछ विशेषतायें होती हैं। जैसे ये आप को कभी किसी काम के लिए मना नहीं करेंगे पर क्या मजाल जो कभी आप का काम कर दें। एक तो इनका प्रभामंडल इतना विकासित होता है दूजा इनकी बातो में इतना अत्मविस्वास और सलीका होता है कि आप जानते-बूझते भी, कि ये झूठ बोल रहे हैं, प्रतिवाद नहीं कर सकतें। जैसा कि एक मशहूर शायर साहब ने कहा है:-

वो झूठ भी बोल रहा था बडे सलीके से ,
मैं एतबार ना करता तो और क्या करता।

इनके साथ आप को बहुत संभल कर डील करनी पड़ती है क्योंकि ये एक दोधारी तलवार की तरह कार्य करतें है , जरा सी चूक और आपके काम का काम तमाम। (नोट:- आप कितना भी संभल ले परिणाम वही-काम तमाम )

इनकी एक और विशेषता ये है कि आप कभी भी गुस्से में इनको कुछ भी कहें ये बुरा नहीं मानते हैं। मेरा ये मानना है कि हम सब के पास अपना अपना कम से कम एक-एक आधा बाबू होता है। मेरे पास भी एक है समय आने पर आप लोगों से परिचय जरूर करवाएँगे ।

और अंत में " लगे रहो मुन्ना भाई"।

नोट:- व्यक्तिगत टिपण्णी को आमंत्रित करती इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा ज्ञानजी की " गुन्डी" से मिली।

5 comments:

Udan Tashtari said...

आपके ब्लॉग की परिचय पंक्तियों ने मन मोह लिया, जैसे मेरे दिल की ही बात हो:

बढती उम्र और बढ़ता पेट, दोनों बहुत दुःख देते हैं. इतने बड़े दुःख के साथ जीने के लिए इंसान के पास लिखने का साधन हो तो याद करके लिख सकता है कि चार साल पहले उम्र कितनी कम थी और पेट कितना कम. ये ब्लॉग उन्ही यादगार पलों के लिए है.


--वाह वाह!!! आप तो छा गये, समझो.

अनूप शुक्ल said...

आपकी पीड़ायें जायज हैं। एक शायर ने कहा है-
मैं सच बोलूंगी हार जाउंगी,
वो झूठ बोलेगा लाजबाब कर देगा।

Gyan Dutt Pandey said...

हमारे एक इंस्पेक्टर ऑफ वर्क्स थे। एक मोटा रजिस्टर रखते थे जिसमें आप कोई काम कहें तो पूरी गम्भीरता से नोट करते थे।
कभी-कभी जेब में रखी छोटी डायरी में कुछ लिखते थे - बहुत कम बार।
कहना नहीं होगा कि रजिस्टर का कोई काम नहीं होता था। काम के लिये जेब की तुड़ी-मुड़ी डायरी ही थी!

नीरज गोस्वामी said...

बालकिशन जी
बढ़ी उम्र और बढ़े पेट वाले अधेड़ इंसान यदि नेतागिरी नहीं कर पाते तो ब्लॉग गिरी करने लगते हैं. इन दोनों कार्यो में ही ये त्रासदी आड़े नहीं आती बल्कि अच्छे से खप जाती है. इस बिरादरी में आप का स्वागत है. मन का हाजमा ठीक रहे इसके लिए ज़रूरी है की भुनभुनाने की अपेक्षा कुछ भी लिखा जाए, हम जैसे पढने वालों की कमी थोड़ी है दुनिया में.

नीरज

अनिल रघुराज said...

आप न आते तो हमें पता भी नहीं चलता कि आप इतना अच्छा लिखते हैं, दिल से लिखते हैं। मैं आपकी ईमानदार अभिव्यक्ति का कायल हो गया। अब तो आना-जाना, मिलना-जुलना लगा रहेगा। लगे रहो बालकिशन भाई...