Saturday, March 13, 2010

पत्थर पर भी नहीं.

किसी अन्धियरिया रात का सपना होगा
पसीने से नहाए अकबकाये से मुंह पर
खिंचती जायेगी आश्वासन की रेखा कि;
कंधे पर रखा हिमालय उतरेगा कभी

कटोरी भर आटा चेहरे पर पोत कर
दिखाएँगे, लाजवायेंगे सब को कि;
देखो खली पेट अब भर गया है
भूख का अजगर पाँव के रास्ते उतर गया है

किसी राजा की कहानी सुनेंगे
हिरन पर तीर चलाने वाला राजा
काट कर रखेगा दो फांक आम
जंगल के झरने पर लिखेगा अपना नाम

राजा का तो पानी पर लिखा नाम भी
सदियों रहता है, खिंचता है
उड़ता रहता आसमान में
और मेरा?
पत्थर पर भी नहीं.

5 comments:

Mithilesh dubey said...

अत्यन्त सुन्दर रचना लगी ।

Abhishek Ojha said...

बड़ा अन्याय है भाई !

Gyan Dutt Pandey said...

बहुत सुन्दर रचना। सिर झनझना गया है मतलब समझने में।

बाल भवन जबलपुर said...

बाबू बाल किशन जी
बहुत आभार एक बेहतरीन रचना
देखो खली पेट अब भर गया है
भूख का अजगर पाँव के रास्ते उतर गया है

Anonymous said...

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