Sunday, August 10, 2008

प्रेमचंद के फटे जूते


आज परसाई जी की पुण्य तिथि है. उनको श्रद्धांजलि देते हुए उनके द्वरा लिखा ये व्यंग्य प्रस्तुत कर रहा हूँ.
आप इसे पढ़े.
परसाई जी और उनकी रचनाओं के बारे में और अधिक जानने के लिए आप यंहा, यंहा और यंहा जरुर पढ़े.
प्रेमचंद के फटे जूते
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प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं. सर पर किसी मोटे कपडे की टोपी, कुरता और धोती पहिने हैं. कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूंछे चहरे को भरा-भरा बतलाती है.
पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं. लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है. तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं.
दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है, जिसमे से अंगुली बाहर निकल आई है.
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है. सोचता हूँ- फोटो खिंचाने की अगर ये पोशाक है, तो पहनने की कैसे होगीं? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होगी - इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है. यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है.
मैं चहरे की तरफ़ देखता हूँ. क्या तुम्हे मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हे इसका जरा भी अहसास नहीं है? जरा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अंगुली ढक सकती है? मगर फ़िर भी तुम्हारे चहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब 'रेडी-प्लीज' कहा होगा, तब परम्परा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएं के तल में कंही पड़ी मुसकान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही 'क्लिक' करके फोटोग्राफर ने 'थैंक यू' कह दिया होगा. विचित्र है ये अधूरी मुसकान. यह मुसकान नहीं है, इसमे उपहास है, व्यंग्य है!
यह कैसा आदमी है, जो ख़ुद तो फटे जूते पहिने फोटो खिंचवा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है.फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहिन लेते या न खिंचाते. फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था! शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम 'अच्छा चल भई' कहकर बैठ गए होगे. मगर यह कितनी बड़ी 'ट्रेजडी' है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो. मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आंखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है.
तुम फोटो का महत्व नहीं समझते. समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते मांग लेते. लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं और मांगे की मोटर से बरात निकालते हैं. फोटो खिंचाने के लिए बीबी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही माँगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते. लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिंचाते है जिससे फोटो में खुशबू आ जाए. गंदे से गंदे आदमी की फोटो भी खुसबू देती है.
टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे! जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है. अब तो अच्छे जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती है. तुम भी जूते और टोपी के अनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे. यह विडम्बना मुझे इतनी तीव्रता से कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ. तुम महान कथाकार, उपन्यास सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में तुम्हारा जूता फटा हुआ है.
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है. यों ऊपर से अच्छा दिखता है. अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है. अंगूठा जमीन से घिसता है और पैनी गिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है.
पूरा तला गिर जायेगा, पूरा पंजा छिल जायेगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी. तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है. मेरी अंगुली ढकी है पर पंजा नीचे घिस रहा है. तुम परदे का महत्व नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहें है.
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहिने हो! मैं ऐसे नहीं पहिन सकता. फोटो तो जिंदगी भर इस तरह नहीं खिंचाऊं, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दें.
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुसकान मेरे हौसले पस्त कर देती है. क्या मतलब है इसका? कौन सी मुसकान है ये?
-- क्या होरी का गोदान हो गया?
-- क्या पूस की रात में सूअर हलकू का खेत चर गए?
-- क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डाक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?
नहीं मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया.
वही मुसकान मालूम होती है.
मैं तुम्हारा जूता फ़िर देखता हूँ. कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिया के तगादे से बचने के लिए मील-दो-मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं, घिस जाता है.
कुम्भनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था. उसे बड़ा पछतावा हुआ. उसने कहा-
'आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरी नाम'
और ऐसे बुलाकर देनेवालों के लिए कहा गया था- 'जिनके देखे दुःख उपजत है, तिनकों करबो परै सलाम!'चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं है. तुम्हारा जूता कैसे फट गया.
मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज को ठीकर मारते रहे हो. कोई चीज जो परत-दर-परत जमाती गई है, उसे शायद तमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया. कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आजमाया.
तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे. टीलों से समझौता भी तो हो जाता है. सभी नदिया पहाड़ थोड़े ही फोड़ती है, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है.
तुम समझौता कर नहीं सके. क्या तुम्हारी भी वही कमजोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही 'नेम-धरम' वाली कमजोरी? 'नेम-धरम' उसकी भी जंजीर थी. मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद 'नेम-धरम' तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी.
तुम्हारी यह पाँव की अंगुली मुझे संकेत करती सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अंगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूँ. तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझाता हूँ और यह व्यंग्य-मुसकान भी समझाता हूँ.
तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो. उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं. तुम कह रहे हो - मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो. तुम चलोगे कैसे?मैं समझता हूँ. मैं तुम्हारे फटे जुते की बात समझाता हूँ, अंगुली का इशारा समझता हूँ, तुम्हारी व्यंग्य-मुसकान समझता हूँ.
-------------------------------------- हरिशंकर परसाई

44 comments:

Anwar Qureshi said...

bahut khub bhai saahab ...maza aa gaya ....kya likha h hai aap ne ...dil ko chuta hai aap ka lekh ...dhany waad.....

राजीव रंजन प्रसाद said...

बालकिशन जी,


इस प्रस्तुतिकरण का आभार..परसाई जैसे व्यंगकार युग में एक ही पैदा होते हैं।


***राजीव रंजन प्रसाद

vipinkizindagi said...

bahut achchi post...

36solutions said...
This comment has been removed by the author.
36solutions said...

भाई आभार परसाई जी की यादें ताजा करने के लिये,
हम तो परसाई जी से देशबंधु, नेपियर टाउन, सिगरेट पीते चित्र और बेधते शव्‍दों से परिचित हैं सब याद आ गये ।

बहुत बहुत धन्‍यवाद ।

ताऊ रामपुरिया said...

क्या बनिया के तगादे से बचने के लिए मील-दो-
का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं, घिस जाता है.

परसाई जी को नमन और आपको प्रस्तुतीकरण के लिए धन्यवाद !

अमिताभ मीत said...

बहुत आभार.

Asha Joglekar said...

bahut achcha Premchandji ki yaden taja ho gayin. bahut achcha wyang prastut karane ke liye dhnyawad.

Anonymous said...

:) :)

Anonymous said...

क्या होरी का गोदान हो गया??

हा हा हा

मजेदार

परसाई जी को नमन !!!

Anil Pusadkar said...

aabhaar aapka,Parsai jee ko shradhasuman

राज भाटिय़ा said...

सब से पहले तो मे परसाई जी की पुण्य तिथि पर उनको श्रद्धांजलि अर्पित कतरा हू,
ओर फ़िर उन की सुन्दर रचना पर धन्यवाद देता हु, बहुत ही सुन्दर रचना, व्यंग्य व्यंग्य मे ही हमारी तुम्हारी मजबुरिया कह दी,मन को छु गई यह रचना,
आप का भी धन्यवाद, इस रचना को हम तक पहुचाने के लिये

Udan Tashtari said...

छा गये महाराज!! परसाई जी की रचनाऐं जितनी बार भी पढ़ो, हमेशा ताजी रहती हैं. पुनः पढ़, न जाने कितनी बार, आनन्द से भर उठा हूँ.

जिओ, भाई, जिओ!!!!!

Nitish Raj said...

परसाई जी की रचना को एक बार फिर नमन। परसाई जी के दोनों वॉल्यूम पढ़े हैं लेकिन बहुत पहले शायद ८ साल होगए। यादें ताजा कराने के लिए
धन्यवाद। बहुत बहुत धन्यवाद।

दिनेशराय द्विवेदी said...

परसाई हिन्दी व्यंग्य में अद्वितीय हैं और रहेंगे।

कुश said...

वाह जी वाह.. इस पोस्ट के लिए तो बहुत ही बहुत आभार

यूनुस said...

नई दुनिया ने परसाई की उस फटे जूतों वाली तस्‍वीर के साथ ये व्‍यंग्‍य छापा था । ये परसाई की अदभुत रचना है ।

seema gupta said...

" wow, its nice to read about "Lt Sh Parssee jee" and his poetry. to be very honest read first time about him and liked it"

Regards

Shiv said...

परसाई जी की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि. पढ़कर एकबार फिर से अच्छा लगा.
प्रस्तुति के लिए तुम्हें धयवाद.

Arun Arora said...

बाकी सब ठीक है लेकिन एक बात पर हम कन्फ़्यूजियाय रहे है , कही परसाई जी साहित्यकार तो नही थे :)

Anonymous said...

So good......

नीरज गोस्वामी said...

बाल किशन जी
किसकी जय जय कार करूँ आपकी या परसाई जी की? वैसे पुराने दोहे के हिसाब से तो आप की ही होनी चाहिए क्यूँ की "गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पाय...बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो मिलाय" आप के ब्लॉग पर उनका लिखा पढ़ने को जो मिला है. अब परसाई जी के बारे में क्या कहूँ...कितना कुछ तो कहा जा चुका है...सिवाय इसके की आप ऐसे सद्कर्म समय समय पर करते रहा करें.
नीरज

पारुल "पुखराज" said...

...aur bhi padhvaiye..intzaar rahegaa..aabhaar

admin said...

व्यंग्य के मामले में परसाई जी का जवाब नहीं। उन्होंने प्रेमचंद की समकालीन स्थितियों पर सटीक स्वयंग्य किया है।

शोभा said...

बालकिशन जी
मैने यह व्यंग्य पढ़ा और पढ़ाया भी है। उनकी शैली सबसे अलग और प्रभावी है। इस महान व्यंग्यकार को नमन। आपने इनको जन-जन तक पजुँचाने का प्रयास किया आभार।

समय चक्र said...

परसाई जी की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि.महान व्यंग्यकार को नमन.

डॉ .अनुराग said...

परसाई जी ....रविन्द्र नाथ त्यागी ,श्री लाल शुक्ल ....अपने आप में व्यंग्य के स्तम्भ है...सारी बात कह जाते है ओर कुछ बातो को सोचने पर भी मजबूर कर देते है.....इस रचना को यहाँ बांटने के लिए शुक्रिया....

योगेन्द्र मौदगिल said...

Bhai Wah..
kya baat hai...
aapko sadhuwad....
Parsai ji ko naman.....

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मियाँ गालिब, उनकी, पुरानी हो रही अचकन से कई गुना बडे ही नजर आते हैँ अगर हम उन्हेँ मन के नयनोँ से देखना चाहेँ तब!
जैसे श्री प्रेमचँद जी,
फटे जूते की अवहेलना पे अर्ध सत्य सी मुस्कान लिये नजर आते हैँ !
उनका ये शब्द चित्र उकेरनेवाले
परसाई जी,
व्यँग्य लिखते हुए नेहाश्रु सी कथा कह जाते हैँ !
...और आपने इन बिम्बोँको ,
हिन्दी ब्लोग विश्व पे हमेशा के लिये प्रतिष्ठित कर दिया !
- अब "धन्य्वाद"
बहुत छोटा शब्द लग रहा है ..
फिर भी ,
श्रध्धा सुमन ही समझेँ .
लिखते रहेँ....
- लावण्या

Sanjeet Tripathi said...

शुक्रिया साहेब इसे यहां उपलब्ध करवाने के लिए

Smart Indian said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति है, धन्यवाद!

रंजू भाटिया said...

पढ़ा है कई बार आज इस को पढ़ कर याद आया अच्छा लिखा है आपने बहुत बहुत शुक्रिया

Ila's world, in and out said...

परसाईंजी को जितनी बार भी पढा जाये,कम ही लगता है.बालकिशनजी इस प्रस्तुतिकरण के लिये आभार.स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें स्वीकार करें.

L.Goswami said...

बालकिशनजी इस पोस्ट के लिए बहुत धन्यवाद।

Anwar Qureshi said...

आप को आज़ादी की शुभकामनाएं ...

सुनीता शानू said...

वाह क्या बात है, बहुत अच्छा लगा व्यंग्य पढ़कर। कुछ व्यंग्य चाहे जितनी बार पढ़ो चेहरे पर हँसी दे जाते हैं...:)
आपको व आपके पूरे परिवार को स्वतंत्रता दिवस की शुभ-कामनाएं...
जय-हिन्द!

Doobe ji said...

balkishan ji parsai ji mere guru hain aur meine apne guru ko rang parsai ke nam se shradhanjali di hai PLEASE see my blog rang parsai parsai ji ka lekh blog mein dene ke liye apko koti koti dhanyawad

Girish Kumar Billore said...

GURU PRSAI KE PRATI AAPAKE SHRADDHAA SE ABHIBHOOT HOON

padma rai said...

परसाई जी की रचनाओं के बारे में क्या कहना ! उनको श्रद्धांजली देने का इससे बढिया तरीका हो ही नहीं सकता.

पद्मा राय

वर्षा said...

कहानी पहले भी पढ़ी थी, दोबारा पढ़कर और अच्छी लगी

Abhishek Ojha said...

Parsai ki is rachna ke liye dhanyavaad.

विजय कुमार शर्म said...

भाई आपको शतशत नमन जो आपके माध्यम से यह व्यंग पढ़ने को मिला आपने धन्य कर दिया

Dr. Amar Jyoti said...

परसाई और प्रेमचन्द- दोनों की याद ताज़ा करने के
लिये हार्दिक आभार।

सतीश चन्द मद्धेशिया said...

बालकिशन जी परसाई जी की रचना ब्लाग पर पोस्ट करने के लिए धन्यवाद । अभी 31 जुलाई को प्रेमचंद की जयन्ती थी ।एक सज्जन से इस रचना के बारे मे सुना , पढ़ने की इच्छा यहाँ आकर पूर्ण हुई ।