दो बड़ी दर्दनाक और दुखद घटनाएँ घटी थी इस देश में एक नीलम हत्या काण्ड. नीलम एक घर की बहु थी और उसे उसके ससुराल वालों ने दहेज़ की लिए जला कर मारदिया था. दूसरी रूप कँवर हत्या काण्ड. शायद इसी से कुछ मिलती जुलती. नतीजा सिर्फ़ एक ही - स्त्री को जला दिया गया. उस समय और उसके बाद फर्क तो जरुर आया है स्त्रियों की जिंदगी में. लेकिन फ़िर भी यदा कदा इस प्रकार की घटनाएँ हमारे समाज में घटती ही रहती है. उस दौर में मैंने एक कविता लिखी थी आज वो ही पेश कर रहा हूँ.
मुझे मत जलाओ!
एक दिन कि बात है शान्ति की खोज में भटकता
मैं भूतों डेरे से गुजर रहा था
सहसा मैंने सुनी एक अबला की चित्कार
करुण स्वर में पुकार रही थी वो बारम्बार
मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ!
मैं दौड़ कर पंहुचा उस पार
कुछ समझा कुछ समझ नही पाया
करुण से भी करुण स्वर में
सुनी मैंने करुना की पुकार
मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ!
देखा उधर तो देखता ही रहगया एक बार
एक चिता थी जल रही
दूसरी को वे कर रहे थे जबरदस्ती तैयार
मैंने क्रोध से पूछा
ये तो मर गया पर ये किसलिए तैयार
एक बोला- यह उसकी पत्नी है
इसलिए इसे जलने का अधिकार
और ये जलने को तैयार
कुछ देर बाद ये जल जायेगी
फ़िर अमर....... कहलाएगी.
दूसरा बोला- जी कर भी क्या करेगी
कभी चुडैल, कभी डायन तो
कभी कुलभक्षानी के पहनेगी अलंकार
इसलिए जलना ही इसकी मुक्ति का आधार
और ये जलने को तैयार
तीसरा बोला- जलना तो इसकी किस्मत है
कभी दहेज़ के लिए जलेगी,
कभी सतीत्व की गरिमा पाकर
करेगी इस संसार पर उपकार
इसलिए ये जलने को तैयार.
क्रोध हवा हुआ भय मन में समाया
आत्मा काँप उठी बदन थरथराया
कुछ सोच ना सका, कुछ कह ना सका ,कुछ कर ना सका
एक कीडे की भांति रेंगता घर लौट आया.
अब तो शायद हर रोज सुनता हूँ ये चित्कार, ये पुकार
और सिर्फ़ सोचता भर हूँ कि
कंही कुछ खो सा गया है. कंही कुछ खो सा गया है. कंही कुछ खो सा गया है.
बालकिशन
१९८८
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अंत में गौरव से निवेदन है कि पिछली बातों को भुला दे. मैं भी चेष्टा करूँगा कि किसी की
कविता की पैरोडी करने से पहले हो सकेगा तो उनसे पूछ जरुर लूँ.
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26 comments:
कविता में गहरी बातें समा ली है आपने.. लेखन अद्भुत है.. मगर शायद किसी को अखर जाए खाल रखिएगा,
और रही गौरव से निवेदन की बात तो ये बहुत ही सराहनीय प्रयास है.. एक ही परिवार में इस तरह की बाते हो जाती है परंतु सही समय पर सुधार ली जाए तो बढ़िया है.. मैं आशा करता हू की गौरव भी सभी गीले शिकवे भूल कर आएँगे..
और रही बात पैरोडी की तो हम आपको चेताए देते है की अगर हमने आपकी पैरोडी की तो पूछने वाले नही है बस फट से ठोक देंगे.. :)
दहेज़ की आग अभी भी सुलग जाती है और बलि ले ही लेती है ..सती काण्ड मैं भी नही भूल पायी आज तक ..समाज में अभी भी स्त्री को जब यूँ मनहूस मान लिया जाता है तो दिल दुखता है और अफ़सोस तब होता है जब यह बात कोई अनपढ़ या पिछडे इलाके का परिवार नही सभ्य कहे जाना वाला परिवार पढ़ा लिखा परिवार करता है ,दहेज़ के लिए जलाता है बहू को या बेटा न होने पर दोषी ठहराता है ...एक दर्द महसूस किया है मैंने भी जो आपने इस रचना में लिखा है ..
bahut gahari baat kah gaye balkishan ji..
shandar kavita..
छू गयी यह रचना।
यही भारतीय नारी (तथाकथित) की नियति है.आपकी लेखनी को सलाम
आपने बिल्कुल हकीकत सामने रख दी !
गहरे में आपके शब्दों की चोट सुनाई
देती है ! धन्यवाद !
आपने बिल्कुल हकीकत सामने रख दी !
गहरे में आपके शब्दों की चोट सुनाई
देती है ! धन्यवाद !
बाल किशन जी आप की कलम ने बहुत से सवाल रख दिये... कब मिलेगा इन सब बातो से हमारे समाज को छुटकारा एक तरफ़ नारी को लालच मे जअलाया जाता हे, तो दुसरी ओर सती ?? देखा जाये तो यह भी तो लालच मे ही उसे मजबुर कर रहे हे जलने पर, कब हम सभ्य बनेगे(अग्रेजी बोलने बाले या फ़ेशन वाले नही)कब जागेगा हमारे दिलो मे दर्द दुसरो केलिये??
आप का निवेदन गोरव से बहुत अच्छा हे, जब सब ने यहां ही रहना हे तो प्यार से रहे, गोरव भी आप का निवेदन जरुर स्बीकार करे गा,धन्यवाद
बहुत सही सवाल उठाये हैं भाई. १९८८ में इतने संवेदनशील थे तुम. तुमतो यार कविता ही लिखा करो. पैरोडियाने से अच्छा है कविता लिखना.
कविता के माध्यम से आपने इस मध्ययुगीन बर्बर कुप्रथा की हकीकत को उजागर किया है। इस मार्मिक रचना के लिए कोटिश: धन्यवाद।
कहीं कुछ खो सा गया है.
-एक बेहद सजग कविता-झकझोरती हुई. बहुत उम्दा, बधाई.
बिल्कुल हकीकत.धन्यवाद
बहुत सुन्दर रूप में हर घटना को साकार किया है। मर्म को छू लिया इस कविता ने। बधाई स्वीकारें।
“साहित्य समाज का दर्पण है” आपकी कविता इस उक्ति को शब्दशः चरितार्थ करती है। काश हमारा समाज ऐसा न होता...
यथार्थ कविता के लिए बधाई।
bhayanak satya
बच रही थी पढ़ने से,
बच रही थी कुछ कहने से,
अन्त में हाथ चला ही गया माउस पर,
माउस चला ही गया आपके ब्लॉग पर।
नारियों के,
भारतीय नारियों के जलने पर
क्यों अफसोस है
वे तो सदा से ज्वलनशील रही हैं
उसमें न हमारा कोई दोष है,
नहीं तो कोई
उसके जीवित जलने की कल्पना
भी कैसे करता?
शेष कविता कभी मेरे ब्लॉग पर पढ़ियेगा।
घुघूती बासूती
आपने जीवन के एक कटु सत्य को उदघाटित किया है। यह हमारे समाज में सर्वत्र देखने को मिलता है। हम उसे देखते हैं और चुप रह जाते हैं। या तो हमारे भीतर का साहस मर गया है, या हम इतने स्वार्थी हो गये हैं कि सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थ से मतलब रखते हैं।
jab jab kuch aisa hota hai
manavata dum todhti hai
bahut dukh hota hai
log chup kyu rahe jaate hain samjh nahi paati
aap sae sampark karna chahtee hun please email id bhej dae rachnasingh@hotmail.com par
अब तो शायद हर रोज सुनता हूँ ये चित्कार, ये पुकार
और सिर्फ़ सोचता भर हूँ कि
कंही कुछ खो सा गया है. कंही कुछ खो सा गया है. कंही कुछ खो सा गया है.
"very comandable poetry kitnee krunajanak........"
अब तो शायद हर रोज सुनता हूँ ये चित्कार, ये पुकार
और सिर्फ़ सोचता भर हूँ कि
कंही कुछ खो सा गया है. कंही कुछ खो सा गया है. कंही कुछ खो सा गया है.
sach khoya to bahut kuch hai.or sach to ye hai ki log dikhawa karte hai par badala kuch v nahi hai
यथार्थ का अच्छा चित्रण है.
samaj ke muh par karara tamaacha hai,88 se 2008 tak ke safar me sirf chitkaar badhi hai aur khamosh rah jaane waale hum jaise kuch keede bhi.dil ko chhu liya aapne badhai
आपकी कविता का एक एक शब्द सच में लिपटा हुआ है.आपकी कलम हमेशा सच को सराहनीय ढंग से प्रस्तुत करती है.बधाई स्वीकारें.
100% WRONG LIKHA HAI AAPNE .... YEH SATYA NAHI HAI .... BALKI HAR LADAYI KA KARAN HI NARI HAI THO USSE KHATAM KAR DENA CHAHIYE
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