Tuesday, February 2, 2010

ब्लॉगर का धाँसू हो बसंत

लगता है हिंदी ब्लागिंग जयराम 'आरोही' जी को भा गई है. इसीलिए तो उन्होंने इसी विषय पर एक और कविता लिख डाली. मैंने तो सुझाव दिया कि परमानेंट ब्लागिंग में ही आ जाइए. मेरी बात सुनकर बोले; "पहले पूरी तरह से स्योर हो जाएँ कि कोई मुकदमा नहीं दायर करेगा तब ही ब्लागिंग में आऊंगा."

खैर, आप कविता बांचिये.

भाई-चारा से चारा निकाल
फिर उसमें थोड़ी मिर्च डाल
अब खाकर थोड़ा मुंह बिचका
औ कर ले भाई से भिड़ंत
ब्लॉगर का धाँसू हो बसंत

कह ले चाहे परिवार इसे
चाहे कह रिश्तेदार इसे
जब बात लगे कोई भी बुरी
गाली-फक्कड़ दे दे तुरंत
ब्लॉगर का धाँसू हो बसंत

बेनामी का भी आप्शन था
तब इतना नहीं करप्शन था
मन की बातें लिख देता था
अब बड़े हुए हैं विष के दन्त
ब्लॉगर का धाँसू हो बसंत

विष-दन्त लिए घूमा करता
बस अपनों को चूमा करता
औरों को बस उल्टा-सीधा
दे-देकर अक्षर पर हलंत
ब्लॉगर का धाँसू हो बसंत

संगठन बना करता है वार
करता सम्मलेन बार-बार
अब आज बना है ऑक्टोपस
सूडें फैलाकर दिक्-दिगंत
ब्लॉगर का धाँसू हो बसंत

कितनी चर्चाएँ करता है
कितने पर्चे तू भरता है
चिरकुटई की भी कुछ हद है
न दिक्खे इसका कोई अंत
ब्लॉगर का धाँसू हो बसंत

इक मिनट लगेगा ठहर जरा
कुछ कम कर ले ये जहर जरा
ये ज़हर अगर बढ़ जाएगा
कर देगा ये तेरा ही अंत
ब्लॉगर का धाँसू हो बसंत

ये कोर्ट केस ये मार-धाड़
हो दिल्ली या हो मारवाड़
है नहीं मगर दिखता तो है
कल को न दिक्खेगा तू संत
ब्लॉगर का धाँसू हो बसंत