Saturday, August 30, 2008

आख़िर एक इंसान हूँ मैं


इथियोपिया के विख्यात कवि ओसोलन मोसावा की कविता.


रेत की नदी में चलते-चलते
दुखने लगे हैं पाँव
दूर है गाँव


कहाँ से लायें ऐसी नज़र
जो दिखाए
एक पेड़
बिना पत्तों वाला ही सही

कहाँ से लायें ऐसे कान
जो सुनाएं
एक गीत
बिना भाव वाला ही सही


कहाँ से लायें एक जुबान
जो करे
एक शिकायत
भले ही उसका जवाब न मिले


कहाँ से लायें ऐसी आंत
जिसे भूख न लगे
जो सिकुड़ी रहे
खाना न मांगे

सोचता हूँ
तो समझ में आता है
ऐसी नज़र, ऐसी आंत, ऐसा कान और ऐसी जुबान
कहीं नहीं मिलेगी
आख़िर एक इंसान हूँ मैं
....................................................................................................................
भावानुवाद: बालकिशन
चित्र : ट्रेवलएडवेंचर.कॉम से साभार

Saturday, August 23, 2008

हिंडोला

श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पुनीत पावन पर्व की पवित्र परम्परा का पालन करते हुए आपके समक्ष मेरे द्वारा सजाया गया हिंडोला (झांकी) प्रस्तुत कर रहा हूँ.

प्रथम पूज्य श्री गणेश की जय

जय बजरंगी जय हनुमान


बम-बम भोले. जय शिव शंकर
सबका मालिक एक है


यशोदा का नन्द लाला सारे जग का दुलारा है

सांवली सूरत है मोहिनी मूरत है.



मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो.

मैया मोरी मैंने ही माखन खायो

गुपचुप आवे है आवे माखन चुरावे है


मुरली बजाके मन हर्षावे है.

नटखट नन्द गोपाल.



गोपियों संग रास रचावे हैं.


राधे-राधे कृष्णा-कृष्णा

कृष्णा-कृष्णा राधे-राधे

आप सभी को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की ढेरों शुभकामनाएं

Monday, August 18, 2008

छुटके से ब्लागर रे....... तेरा दरद ना जाने कोय

ब्लोगर मीट ख़तम होने के बाद पता चलता है कि ब्लोगर मीट हो गयी। मेरी यह बात हाल ही में कोलकाता हुई मीट के सन्दर्भ में है. प्रत्यक्षा जी के साथ मुलाकात करने के बाद शिव ने फ़ोन करके बताया कि इस तरह की ब्लोगर मीट हुई है. उलाहना देने के अलावा और क्या कर सकते थे. एक बात और समझ में आयी कि छोटे ब्लोगर के साथ बड़े ब्लोगर ऐसा ही करते हैं. एक तरफ़ तो कमेन्ट नहीं देते और दूसरी तरफ़ बताते भी नहीं कि ऐसी कोई मीट होने वाली है. अब तो इस बात पर सोचना पड़ रहा है कि शिव को भी फ़ोन करके बताने की कोई ज़रूरत नहीं थी. मीट की रिपोर्ट पढ़ कर ही पता चल जाता. प्रियंकर भाई से तो ज्यादा शिकायत भी नहीं कर सकता. और असल धोखा तो गुरूजी (अजदक जी) ने दिया. अपन को कोई ख़बर ही नही मिली. वरना अपन भी प्रत्यक्षा जी के स्वागत में पलकें बिछा देते और अपनी एक अदद फोटो छपवा लेते.

हर समाज का अपना एक अलिखित ही सही लेकिन नियम ज़रूर होता है। ऐसे में ब्लाग समाज का भी एक नियम हो तो हर ब्लोगर को बड़ी सुविधा होगी. मैं तो कहूँगा कि अगर कोई ब्लोगर अपना शहर छोड़कर दूसरे शहर जाए तो फट से उस शहर के ब्लोगर को सूचित कर दे. ऐसे में ब्लोगर मीट में उस शहर के ब्लोगरों के रहने की संभावना बढ़ जायेगी. मेरा कहना है कि इस पुण्य कार्य के लिए ब्लोगवाणी और चिट्ठाजगत पर एक ब्लोगर यात्रा बोर्ड रहे जिसपर इस तरह की सूचनाएं हर हफ्ते प्रकाशित होती रहें. मैंने देखा है कि कुछ बड़े चिट्ठाकार जब किसी दूसरे शहर जाते हैं तो अपने ब्लॉग पर सूचना देते हैं. ऐसे ही कार्यक्रम अगर फीड अग्रीगेटर की साईट पर उपलब्ध हो जाए तो मुझ जैसे चिट्ठाकार के लिए बड़ी सुविधा हो जायेगी. कारण केवल इतना सा है कि ब्लोगर मीट के फोटो में हमारा चेहरा भी दिखायी देगा.

अगर ऐसा होगा तो हमें भी भविष्य में जेंटलमैन(?) की उपाधि मिल सकती है.

Sunday, August 10, 2008

प्रेमचंद के फटे जूते


आज परसाई जी की पुण्य तिथि है. उनको श्रद्धांजलि देते हुए उनके द्वरा लिखा ये व्यंग्य प्रस्तुत कर रहा हूँ.
आप इसे पढ़े.
परसाई जी और उनकी रचनाओं के बारे में और अधिक जानने के लिए आप यंहा, यंहा और यंहा जरुर पढ़े.
प्रेमचंद के फटे जूते
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प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं. सर पर किसी मोटे कपडे की टोपी, कुरता और धोती पहिने हैं. कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूंछे चहरे को भरा-भरा बतलाती है.
पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं. लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है. तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं.
दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है, जिसमे से अंगुली बाहर निकल आई है.
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है. सोचता हूँ- फोटो खिंचाने की अगर ये पोशाक है, तो पहनने की कैसे होगीं? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होगी - इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है. यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है.
मैं चहरे की तरफ़ देखता हूँ. क्या तुम्हे मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हे इसका जरा भी अहसास नहीं है? जरा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अंगुली ढक सकती है? मगर फ़िर भी तुम्हारे चहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब 'रेडी-प्लीज' कहा होगा, तब परम्परा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएं के तल में कंही पड़ी मुसकान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही 'क्लिक' करके फोटोग्राफर ने 'थैंक यू' कह दिया होगा. विचित्र है ये अधूरी मुसकान. यह मुसकान नहीं है, इसमे उपहास है, व्यंग्य है!
यह कैसा आदमी है, जो ख़ुद तो फटे जूते पहिने फोटो खिंचवा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है.फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहिन लेते या न खिंचाते. फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था! शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम 'अच्छा चल भई' कहकर बैठ गए होगे. मगर यह कितनी बड़ी 'ट्रेजडी' है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो. मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आंखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है.
तुम फोटो का महत्व नहीं समझते. समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते मांग लेते. लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं और मांगे की मोटर से बरात निकालते हैं. फोटो खिंचाने के लिए बीबी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही माँगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते. लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिंचाते है जिससे फोटो में खुशबू आ जाए. गंदे से गंदे आदमी की फोटो भी खुसबू देती है.
टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे! जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है. अब तो अच्छे जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती है. तुम भी जूते और टोपी के अनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे. यह विडम्बना मुझे इतनी तीव्रता से कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ. तुम महान कथाकार, उपन्यास सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में तुम्हारा जूता फटा हुआ है.
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है. यों ऊपर से अच्छा दिखता है. अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है. अंगूठा जमीन से घिसता है और पैनी गिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है.
पूरा तला गिर जायेगा, पूरा पंजा छिल जायेगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी. तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है. मेरी अंगुली ढकी है पर पंजा नीचे घिस रहा है. तुम परदे का महत्व नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहें है.
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहिने हो! मैं ऐसे नहीं पहिन सकता. फोटो तो जिंदगी भर इस तरह नहीं खिंचाऊं, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दें.
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुसकान मेरे हौसले पस्त कर देती है. क्या मतलब है इसका? कौन सी मुसकान है ये?
-- क्या होरी का गोदान हो गया?
-- क्या पूस की रात में सूअर हलकू का खेत चर गए?
-- क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डाक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?
नहीं मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया.
वही मुसकान मालूम होती है.
मैं तुम्हारा जूता फ़िर देखता हूँ. कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिया के तगादे से बचने के लिए मील-दो-मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं, घिस जाता है.
कुम्भनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था. उसे बड़ा पछतावा हुआ. उसने कहा-
'आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरी नाम'
और ऐसे बुलाकर देनेवालों के लिए कहा गया था- 'जिनके देखे दुःख उपजत है, तिनकों करबो परै सलाम!'चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं है. तुम्हारा जूता कैसे फट गया.
मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज को ठीकर मारते रहे हो. कोई चीज जो परत-दर-परत जमाती गई है, उसे शायद तमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया. कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आजमाया.
तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे. टीलों से समझौता भी तो हो जाता है. सभी नदिया पहाड़ थोड़े ही फोड़ती है, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है.
तुम समझौता कर नहीं सके. क्या तुम्हारी भी वही कमजोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही 'नेम-धरम' वाली कमजोरी? 'नेम-धरम' उसकी भी जंजीर थी. मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद 'नेम-धरम' तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी.
तुम्हारी यह पाँव की अंगुली मुझे संकेत करती सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अंगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूँ. तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझाता हूँ और यह व्यंग्य-मुसकान भी समझाता हूँ.
तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो. उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं. तुम कह रहे हो - मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो. तुम चलोगे कैसे?मैं समझता हूँ. मैं तुम्हारे फटे जुते की बात समझाता हूँ, अंगुली का इशारा समझता हूँ, तुम्हारी व्यंग्य-मुसकान समझता हूँ.
-------------------------------------- हरिशंकर परसाई

Friday, August 8, 2008

समीर भाई क्या ये आपके बचपन की तस्वीर है ?

इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा ( ख़बरदार! नक़ल ना कहें) यंहा से मिली है।
मुझे मिला है ताज - साल के सर्वश्रेष्ठ ब्लागेर का, बधाई दीजिये।

आज माफ़ कर दीजिये कमेन्ट नहीं कर पाऊंगा बहुत काम है।

बोलो बोलो टिपण्णी करोगे या नहीं?

आज किस बिषय पर लिखूँ बड़ी चिंता का विषय है ये?

टिपियाने की तैयारियां चल रही है भाइयों.

पसंद दे देना लेकिन इसपर टिप्पणी मत करना.

मैं हूँ आत्ममुग्ध ब्लॉगर. हजामत करके छोडूंगा.

समीर भाई क्या ये आपके बचपन की तस्वीर है?

और अंत में कुछ इसी तरह के विचार बहुत से ब्लोगर्स की तस्वीरें देख कर आते हैं। क्या उन्हें पोस्ट के माध्यम से व्यक्त कर सकता हूँ? आप की राय के बाद ही इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर सकूँगा।
आपकी अमूल्य राय की प्रतीक्षा में-
आपका
बालकिशन.









Tuesday, August 5, 2008

मुझे मत जलाओ!

दो बड़ी दर्दनाक और दुखद घटनाएँ घटी थी इस देश में एक नीलम हत्या काण्ड. नीलम एक घर की बहु थी और उसे उसके ससुराल वालों ने दहेज़ की लिए जला कर मारदिया था. दूसरी रूप कँवर हत्या काण्ड. शायद इसी से कुछ मिलती जुलती. नतीजा सिर्फ़ एक ही - स्त्री को जला दिया गया. उस समय और उसके बाद फर्क तो जरुर आया है स्त्रियों की जिंदगी में. लेकिन फ़िर भी यदा कदा इस प्रकार की घटनाएँ हमारे समाज में घटती ही रहती है. उस दौर में मैंने एक कविता लिखी थी आज वो ही पेश कर रहा हूँ.

मुझे मत जलाओ!

एक दिन कि बात है शान्ति की खोज में भटकता
मैं भूतों डेरे से गुजर रहा था
सहसा मैंने सुनी एक अबला की चित्कार
करुण स्वर में पुकार रही थी वो बारम्बार
मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ!

मैं दौड़ कर पंहुचा उस पार
कुछ समझा कुछ समझ नही पाया
करुण से भी करुण स्वर में
सुनी मैंने करुना की पुकार
मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ!

देखा उधर तो देखता ही रहगया एक बार
एक चिता थी जल रही
दूसरी को वे कर रहे थे जबरदस्ती तैयार
मैंने क्रोध से पूछा
ये तो मर गया पर ये किसलिए तैयार
एक बोला- यह उसकी पत्नी है
इसलिए इसे जलने का अधिकार
और ये जलने को तैयार
कुछ देर बाद ये जल जायेगी
फ़िर अमर....... कहलाएगी.

दूसरा बोला- जी कर भी क्या करेगी
कभी चुडैल, कभी डायन तो
कभी कुलभक्षानी के पहनेगी अलंकार
इसलिए जलना ही इसकी मुक्ति का आधार
और ये जलने को तैयार

तीसरा बोला- जलना तो इसकी किस्मत है
कभी दहेज़ के लिए जलेगी,
कभी सतीत्व की गरिमा पाकर
करेगी इस संसार पर उपकार
इसलिए ये जलने को तैयार.

क्रोध हवा हुआ भय मन में समाया
आत्मा काँप उठी बदन थरथराया
कुछ सोच ना सका, कुछ कह ना सका ,कुछ कर ना सका
एक कीडे की भांति रेंगता घर लौट आया.

अब तो शायद हर रोज सुनता हूँ ये चित्कार, ये पुकार
और सिर्फ़ सोचता भर हूँ कि
कंही कुछ खो सा गया है. कंही कुछ खो सा गया है. कंही कुछ खो सा गया है.

बालकिशन
१९८८

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अंत में गौरव से निवेदन है कि पिछली बातों को भुला दे. मैं भी चेष्टा करूँगा कि किसी की
कविता की पैरोडी करने से पहले हो सकेगा तो उनसे पूछ जरुर लूँ.