Thursday, July 31, 2008

खोज

पूरा जुलाई कविता करते हुए ही बीत गया. आपलोगों ने जिस प्यार और अपनेपन से हौसलाफजाई की उसकेलिए जितने भी धन्यवाद दूँ कम है. इसी प्यार और अपनेपन के कारण ही एक और कविता पेश कर रहा हूँ.
आशा ही नहीं पूर्ण विश्वाश है कि इस कविता को भी आपसबका वो ही प्यार मिलेगा.

बालकिशन की डायरी भाग - २
खोज

समय की शिला पर अंकित चिन्हों को नज़रंदाज कर
आगे बढ़ते चले जाते है हम.
कुछ दूर जाने पर वे धुंधले होते है
और अंत में कंही जाकर खो जाते है.
अज्ञानता में हम यही कहते नज़र आते है
कि इनकी जरुरत नहीं थी हमें
इनका मिटना ही बेहतर है
इसलिए ये मिट गए हैं.
पर हम ये नहीं समझ पातें है कि
ये मिट नहीं गए है, सिर्फ़ खोये भर है.
हम इन्हे फ़िर खोज लेंगे, फ़िर बना लेंगे.
लेकिन,
कौन खोजेगा उन्हें?
क्या तुम खोजोगे?
या फ़िर तुम खोजोगे?
नहीं कोई नहीं खोज सकता अकेले उन्हें
तुम सबको हम सबके साथ मिलकर खोजना होगा
उन्ही चिन्हों को, हमारे अपने चिन्हों को,
हमारे अपनों के चिन्हों को,
हमारे आदर्शों को.

बालकिशन
१३-११-१९८८

Wednesday, July 30, 2008

बालकिशन की डायरी भाग-१ सन १९८८

आज यूँही एक काफ़ी पुरानी डायरी पढ़ते हुए इन दो कविताओं पर नज़र टिक गई और फ़िर कई बार पढ़ डाला.
अहसास ये हुआ कि ये कवितायें आज भी कितनी प्रासंगिक है. आप भी पढ़ें.

(१)

ये क्या हो रहा है अपने वतन में
हिंसा का बाज़ार गर्म है
जाने किसका भय छाया है जन में
सच पर झूठ का परदा डालते हैं
आज हर कोई माहिर है इस फन में
ये क्या हो रहा है अपने वतन में

भाईचारे को हमने भुला दिया
इर्ष्या ने आज घर किया हमारे मन में
रौंद डाला इंसानियत को हमने
घाव किए मानवता के तन में
ये क्या हो रहा है अपने वतन में

सूरज की रौशनी काली पड़ गई
घिर गया भारत अंधड़ और तूफानों में
छेड़ डाला सीना इसका हमने
फर्क मिलाता नहीं राक्षस और इंसानों में
ये क्या हो रहा है अपने वतन में

बालकिशन
०१-०७-१९८८

(२)

जिंदगी में क्या है हमारी है आज
जिंदगी कंहा है हमारी आज.
कंही दहेज़ का दानव
कंही आतंकवाद का तांडव
जिंदगी हमारी आज कितनी सिमटी हुई है.
स्वार्थ हिंसा और झूठ में लिपटी हुई है.

कंही पर है बेरोजगारी
कंही पर गरीबी और भुखमरी.
जिंदगी में अब तो एक आग है हर तरफ़ हमारी
हर पहलु से इसके लपटें उठती हुई है
कंहा गाँधी कंहा शास्त्री
के आदर्श खो गए है आज.
भ्रष्टाचार और अन्धविश्वाश के काँटों से घायल
जिंदगी बेबस,बेदम और लाचार हो सिकुडी हुई है आज.

कंहा गया वो भाईचारा
कंहा गया ईमान हमारा
जिसकी कल्पना भी न उन्होंने की थी
उसी मोड़ पर खड़ी है जिंदगी हमारी आज.
क्या करे हम क्या ना करें
कंहा जाएँ हम कंहा ना जाएँ
आवो मिलकर पुननिर्माण करे उसका हम
हमारे ही हाथों जो बिगड़ी हुई है आज.

बालकिशन
२५-०३-१९८८

Monday, July 28, 2008

या फिर यहाँ केवल तुम्हारा शरीर रहता है?

वे बता रहे थे कि तुम्हें नौकरी नहीं मिली
इसलिए तुम आतंकवादी बन गए
लेकिन एक बात मेरी भी सुनो
उन्हें भी तो नौकरी नहीं मिली थी
जिन्हें तुमने मार डाला

तुम नहीं देख सके?
कि उन्हें भी नौकरी नहीं मिली थी
इसीलिए तो वे फल का ठेला लगाये खड़े थे
पचास रूपये कमाते और अपने बच्चों का पेट भरते
उनका पचास रुपया कमाना तुम्हें बर्दाश्त नहीं हुआ?

चलो, माना कि तुम्हारे पास काम नहीं है
लेकिन जरा यह भी तो सोचो कि;
इस मुल्क में न जाने कितनों के पास काम नहीं है
तो क्या सबके सब तुम्हारे जैसे आतंकवादी बन जाएँ?
नहीं, एक बार सोचना मेरी इस बात पर
और हाँ, कोई जवाब सूझे तो ज़रूर बताना

बम फोड़कर नौकरी तलाश रहे हो क्या?
तुम्हारे बम फोड़ने से जितने का नुकशान होता है
उस पूंजी से शायद हजारों को नौकरी मिलती
सुन रहे हो?
या फिर यह कहने की तैयारी कर रहे हो कि;
गाजा, कश्मीर और चेचेन्या में तुम्हें सताया जा रहा था
इसलिए तुमने बम फोड़ डाले

मैं कैसे मान लूँ कि;
तुम्हें वहां सताया गया
तुम तो यहाँ रहते हो, भारत में
या फिर यहाँ केवल तुम्हारा शरीर रहता है?

Friday, July 25, 2008

एक आहट रोज आए

आहट की आवाज़ सुनी
जैसे कह कह रहा हो;
मैं आ गया हूँ
आ गया हूँ तुम्हें डराने
तुम्हें एहसास दिलाने कि;
तुम अकेले नहीं हो
अकेले नहीं हो तुम
मैं भी तो हूँ
बस, आया था यही बताने

हाँ, आहट ही तो है
एक आहट सुख की
और एक आहट दुःख की
एक उसके उसके आने की
और एक उसके जाने की
एक उसे पाने की
एक सब लुट जाने की

आहटों की राह ताके
आहटों में मन है झांके
आहटों के साथ जीना
औ उन्ही के साथ मरना
आहटों का साथ हैं
आहटों का हाथ है

क्या पता क्या ले के आए
क्या पता क्या ले के जाए
फिर भी आँखें खोजती हैं
एक आहट जो सताए
साथ लाये ज़िंदगी या
साथ लेकर मौत आए
किंतु दिल बोला है करता
एक आहट रोज आए


बाल किशन
२५-०७-२००८
प्रातः ९:३१

Thursday, July 24, 2008

लगता है जैसे उम्र बढ़ती जा रही है

कल सबेरे
एक कविता लिख दी थी मैंने
तुम्हारी लिपस्टिक से
उसे लिखकर
दीवार पर चिपका दिया था
धूल से सनी दीवार ने
कागज़ को गन्दा कर दिया
लेकिन
मुझे चिंता उस कागज़ की नहीं
मुझे चिंता थी उन शब्दों की
जो
मैंने तुम्हारी लिपस्टिक से लिक्खे थे
मुझे चिंता थी
लिपस्टिक के उस रंग की
जो आसमानी नीला था
शाम को कागज़ पर हाथ फेरा
कागज़ गीला था
शायद तुम्हारे आंसुओं की बूँदें
कागज़ को गीला कर गई
और मेरी भावना
पीली पड़ने लगी
आंसुओं से धुली रात
गीली पड़ने लगी

क्या करूं?
और क्या है करने के लिए?
दोपहर तक जीता हूँ
मुई शाम आ जाती है
लगता है जैसे कह रही हो;
'चलो, तैयार हो जाओ
मरने के लिए'

दिल है
इसलिए यादें भी हैं
और इन्ही यादों ने
मौत का सामान
इकठ्ठा कर रक्खा है
बस रोज जीता हूँ
कविता लिखता हूँ
तुम्हारी लिपस्टिक से
लेकिन ये दीवार है कि;
हटती ही नहीं
लगता है जैसे उम्र बढ़ती जा रही है
जरा भी घटती नहीं

बाल किशन
२४-०८-२००८
प्रातः: ९:२१

Wednesday, July 23, 2008

अंतरात्मा की आवाज़

मैंने कहा;
"एक रोटी और नहीं खा सकूंगा"
वे बोलीं; "अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनो
और खा लो"
मैंने कहा "खाना तो पेट की आवाज़ पर निर्भर है"
वे बोलीं; "लेकिन वहां तो सब अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर खा रहे हैं
मैंने कहा; "उनकी अंतरात्मा पेट में बसती होगी
वे बोलीं; "काश कि तुम्हारी भी वहीँ बसती"

क्या करें
पेट तो बड़ा हो गया है
लेकिन वो तो उम्र का तकाजा है
हमारी इतनी कूबत कहाँ कि;
अंतरात्मा को वहां बसा दूँ
भगवान ने बड़ा जुलुम किया
हमारी भी अंतरात्मा ट्रांसफरेबल बनाते
ताकि हमें भी उसकी आवाज़ आती
और हम एक नहीं बल्कि दो रोटी ज्यादा खा पाते


बाल किशन
२३-०८-२००७
प्रातः ९:१९

Tuesday, July 22, 2008

तुम ऐसा लिखना जो सबकी समझ में आए

-तुम ऐसा लिखना जो सबकी समझ में आए.
-लेकिन मैं लिख नहीं सकता.
-तुम बोल तो सकते हो न?
-मैं बोलने की कोशिश की थी. लेकिन आवाज़ पेट से निकली.
-मुन्नू कह रहा था कि सबकुछ पापी पेट की वजह से है.
-पापी तो आंतें होती हैं. पेट तो बिल्कुल सीधा होता है.
-वो देखो तुम्हारे कुरते की कंधे पर नेवला चढ़ गया है.
-तुम चिंता मत करो. वो आस्तीन के सांपो को काट खायेगा.
-कहाँ जा रहे हो?
-चाकलेट खरीदने.
-चाकलेट मीठा होता है?
-नहीं, अब मिठास जाती रही.
-मूवी देखते-देखते सो गए?
-मैं सोते हुए जाग रहा हूँ.
-मूवी में समंदर है न.
-समंदर सूख चुका है. कल ग्लोबल वार्मिंग से एक धमाका हुआ था. इसलिए सूख गया.
-और मछलियाँ कहाँ गईं?
-मैंने उन्हें उड़ते हुए देखा.
-कमीज पहनी थी, मछलियों ने?
-कुरता पहन रखा था. लेकिन कुरते में बटन नहीं था.
-और टिटहरी कहाँ गई?
-टिटहरी उसी सूखे समंदर में समा गई.
-आज पालक की सब्जी खाई थी मैंने.
-तुम्हारी आवाज़ में हरियाली दिख रही है.
-लेकिन इस हरियाली में भी अमरुद पककर पीला हो गया है.
-अमरूद तो हरा ही अच्छा होता है न.
-अब तो आम हरे होते हैं.
-मैंने अपने किताब में एक आम छिपाकर रखा था. डब्लू खा गया.
-खाने की बातें अब आम हो गई हैं.
-हाँ, सच कहा तुमने. कल ही अखबार में देखा था.
-गावस्कर की स्ट्रेट ड्राइव देखी तुमने?
-कल तो उन्हें मैंने बीयर पीते देखा था.
-स्ट्रेट ड्राइव की खुशी मना रहे थे.
-और पापा?
-वे चूल्हे पर बैठे हाथ ताप रहे थे.
-चूल्हा बुझ गया होगा.
-हाथ बुझ गया. पाँव में उन्होंने एक अंगूठी पहन रखी थी.
-एक अंगूठी मेरी नाक में पहना दो न.
-तुम्हारी नाक बिल्कुल तोते के जैसी है.
-और तोता काला पड़ गया.
-काला तो घोड़ा था. बिक गया.
-हाँ, कल मैंने अखबार में पढा.
-अब तो अखबार भी बिकने लग गए.
-खरीदने का अरमान चाहिए. सब बिकता है.
-वो विज्ञापन देखा?
-हाँ, उसमें उस लड़की को देखा जो रो रही थी.
-वो तो लड़की की आँखें रो रही थीं.
-हाँ, रोते हुए लड़की प्यारी लग रही थी.
-मुझे वो पसंद है.
-और मैं?
-तुम तो बेहद पसंद हो.
-और मेरी चूडियाँ जो मैंने कान में पहन रखी हैं?
-चूडियाँ पसंद नहीं. मुझे बिंदी पसंद है.
-जो मैंने अपने गले पर लगा रखी है?
-नहीं जो तुमने अपने कानों में दाल रखी है.
-कालेज जाते हुए मैंने रास्ते पर घास देखी.
-हाँ मैंने भी देखी. तुमने उस घास में तिलचट्टे को देखा?
-हाँ, देखा. तिलचट्टा उछलकर मेरी जेब में बैठा.
-लेकिन तुम वो लिखना जो सबकी समझ में आए.
-लेकिन मुझे लिखना नहीं आता.
-बोलना तो आता है न.
-हाँ, लेकिन मेरी आवाज़ गले में अटक गई है.


- बालकिशन
२२.०७.२००८
प्रातः ९:३०

Saturday, July 12, 2008

अनामिका जी की कविता - चुटपुटिया बटन

मेरा भाई मुझे समझाकर कहता था - "जानती है पूनम -
तारे हैं चुटपुटिया बटन
रात के अंगरखे में टंके हुए!"
मेरी तरफ़ 'प्रेस' बटन को
चुटपुटिया बटन कहा जाता था,
क्योंकि 'चुट' से केवल एक बार 'पुट' बजकर
एक-दूसरे में समां जाते थे वे.

वे तभी तक होते थे काम के
जब तक उनका साथी
चारों खूंटों से बराबर
उनके बिल्कुल सामने रहे टंका हुआ!

ऊँच-नीच के दर्शन में उनका कोई विश्वास नहीं था!
बराबरी के वे कायल थे!
फँसते थे, न फँसाते थे - चुपचाप सट जाते थे.

मेरी तरफ़ प्रेस-बटन को चुटपुटिया बटन कहा जाता था,
लेकिन मेरी तरफ़ के लोग ख़ुद भी थे
चुटपुटिया बटन
'चुट' से 'पुट' बजकर सट जाने वाले.

इस शहर में लेकिन 'चुटपुटिया' नज़र ही नहीं आते-
सतपुतिया झिगुनी की तरह यहाँ एक सिरे से गायब हैं
चुटपुटिया जन और बटन

ब्लाऊज में भी दर्जी देते हैं टांक यहाँ वहां हुक ही हुक,
हर हुक के आगे विराजमान होता है फंदा
फंदे में फँसे हुए आपस में कितना सटेंगे-
कितना भी कीजिये जतन
'चुट' से 'पुट' नहीं बजेंगे

अनामिका जी के काव्य-संग्रह दूब-धान से साभार