Sunday, February 24, 2008

जवानी ओ दीवानी तू जिन्दाबाद.

३५-४० के आस-पास की उम्र भी एक खतरनाक पड़ाव हैं. उम्र के इस पड़ाव पर बहुत कुछ अधूरा सा लगता है. ये भी महसूस होता है कि बहुत कुछ पीछे छुटता जा रहा है. दिमाग अपने आप को अभी भी अपने आप को बुजुर्गों की श्रेणी मे मान लेने के लिए तैयार नहीं हैं. जो कि शायद सही भी है. लेकिन शरीर भी युवाओं का साथ देने से कतराने लगता है. ऊपर से अगर स्लिपडिस्क और स्पोंडेलाइसिस जैसी बीमारियों से दोस्ती हो जाय तो क्रियाकलापों मे जो लिमिटेशंश आजाती है वो आपकी मनःस्थिति को भी प्रभावित करती हैं. लेकिन कभी कभी कुछ ऐसे वाकयात हो जाते है जो बहुत सी दुविधा दूर करने मे मददगार साबित होतें है.

आज सुबह की ही बात है फैक्ट्री आते समय जब ऑटो-रिक्शा मे बैठा तो मेरे पहले से ४ लड़के-लड़कियां बैठे थे. उम्र सबकी लगभग १८ से २३ साल. तकरीबन १० मिनट का सफर था उस ऑटो मे हम सबका. उस दरमियान मेरा ध्यान अनायास ही उनकी बात- चित पर चला गया. मैंने जो कुछ सुना, महसूस किया वो कुछ इस प्रकार था.

बात-बात पर जोरदार हँसी जैसे सब कुछ उनके हंसने के लिए ही बना है या हो रहा है. जोर-जोर से बातें कर रहे थे सब जैसे उनके अलावा आस-पास कोई नहीं हो. सब के सब आपस मे ही खोये हुए, अपने चारो तरफ़ फैली दुनिया से बिल्कुल अनजान और बेखबर. मैंने अचानक एक बार उनकी तरफ़ उत्सुकतावश नज़र घुमा कर देखा तो अचानक ऑटो मे मरघट सी शान्ति छा गई. मुझे भी अपराध-बोध होने लगा कि क्यों मैंने इस ढंग से देखा उन्हें. फ़िर १-२ मिनट बाद सब कुछ पूर्ववत् चलने लगा. उनके इस अपार उर्जा के स्रोत के प्रति जो उन्हें इस कदर जीवंत रखती है, मुझे जिज्ञासा होने लगी.

इन १०-१२ मिनटों के दौरान हर विषय पर बातें की उन्होंने क्रिकेट, फिल्में, अपनी पढ़ाई के विषय आदि-आदि. लेकिन वो जोर-जोर से हँसना और ऊँची आवाज के साथ सब कुछ चलता रहा. कोई भी इस प्रकार उन लोगों को देखे तो ये सोच सकता है कि ये बड़े अभद्र बच्चे है. कोई उनकी प्रगतिशीलता पर सवाल खड़े कर सकता था कोई उनको पतनशील बता सकता था.

पर उनकी ये हरकतें मुझे १०-१५ साल पीछे ले गई. अचानक लगने लगा जैसे मैं भी उन चारों मे से ही हूँ. अपने समय की बहुत सी बातें याद आ गई. कैसे सब दोस्त यार मिलकर इसी तरह मस्ती करते थे. बिना मतलब के घंटों रास्तों पर घूमना, बात-बात पर खिलखिलाकर हँसना. स्कूल, कॉलेज के समय की गई बदमाशियां, शरारतें सब आंखो के सामने नाचने लगी.

सहसा ही रहस्य से परदा उठने लगा वही उर्जा मैं अपने आप मे भी महसूस करने लगा. लगा की सारी दुनिया को मुट्ठी मे बंद कर सकता हूँ. हौसला इस कदर बढ़ा हुआ लगता था की उस घड़ी दुनिया मे मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं है. ये उर्जा, ये हौसला प्रकृति का एक नायब तोहफा है युवाओं को, जवानों को और उनकी जवानी को.

मुझे राजेश खन्ना साहब की फ़िल्म का ये गाना याद आने लगा जो उन्होंने जूनियर महमूद के साथ गाया था.

" तेरे ही तो सर पे मुहब्बत का ताज है
जवानी ओ दीवानी तू जिन्दाबाद."

Saturday, February 23, 2008

समाज विकास (अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन) की सूचना के निहितार्थ.

समर्थन के लिए सभी ब्लोगर बंधुओं को धन्यवाद.
मेरी कल की पोस्ट "घूस देकर सब मैनेज करते हैं मारवाड़ी " पर अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन द्वारा जो कुछ कहा गया उसके जवाब मे कुछ कहना चाहूँगा. पहले आप सब उनकी ये टिपण्णी देखें.

समाज विकास said...
सम्मेलन द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ती:

पश्चिम बंगाल के भूमि सुधार मंत्री श्री अब्दूल रज्जाक मौल्ला की कथित टिप्पणी के विषय में अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष श्री सीताराम शर्मा ने मंत्री श्री मौल्ला से मालदह में फोन पर बातचीत कर अपना असंतोष एवं प्रतिवाद ज्ञापित किया। श्री मौल्ला ने उन्हें स्पष्ट किया कि उनकी कथित टिप्पणी को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है। श्री मौल्ला ने अपने वक्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि उन्होंने यह कहा था मारवाड़ी समुदाय मुख्यतः व्यवसाय में है अपने व्यवसाय को अच्छा ‘‘मैनेज’’ करना जानते हैं। श्री मौल्ला ने कहा इस ‘‘मैनेज’’ ‘शब्द को मीडिया द्वारा गलत रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। श्री मौल्ला ने श्री शर्मा से कहा कि वे मारवाड़ी समाज सहित सभी समाज की इज्जत करते हैं एवं जातिगत तथा साम्प्रदायिक आधारित टिप्पणी में विश्वास नहीं करते । उन्होंने कहा कि मेरा अभिप्राय मारवाड़ी समाज की भावना को ठेस पहुँचाना कतई नहीं था।

अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन, मंत्री महोदय के स्पष्टीकरण पर संतोष व्यक्त करते हुए ऐसे संवेदनशील विषय पर मंत्रियों द्वारा टिप्पणी में संयम एवं सावधानी बरतने की अपील करती है। सम्मेलन मारवाड़ी समाज से भी मंत्री महोदय के स्पष्टीकरण एवं ठेस नहीं पहुंचाने के वक्तव्य को सही भावना के साथ लेने की अपील करता है।

-शम्भु चौधरी (सहयोगी संपादक, समाज विकास),
दिनांक : 22.02.2008

सम्मेलन को कोटी-कोटी धन्यवाद.लेकिन एक बात आप सबकी नज़र मे लाना चाहता हूँ कि रज्जाक साहब इस मामले मे सफ़ेद झूठ बोल रहे है. उनके कथित भाषण की सीडी "प्रभात खबर - कोलकत्ता कार्यालय" मे उपलब्ध है. आप अवलोकन कर सकते हैं.
दूसरी बात जब से उनका ये बयान आया है एक-एक वाम पंथी नेता ये कहकर अपना पल्ला झाड़ रहे है कि उनके इस बयान से पार्टी का कोई लेना देना नहीं है. कल तो मुख्यमंत्री माननीय बुद्धदेव जी ने माफ़ी भी मांगी है.

मेरे इस स्पष्टीकरण का मकसद केवल इतना है कि " जब किसी की अस्मिता और अस्तित्व का सवाल हो इतनी उदारता अच्छी नही होती"
बाकी आप लोग सब गुणी और प्रतिष्टित व्यक्ति है. आप ज्यादा समझतें है.

Friday, February 22, 2008

घूस देकर सब मैनेज करते हैं मारवाड़ी

"जारा मारवाड़ी, तारा सब किछु पोयसा दिए मैनेज कोरे निच्चे, ऐरा मैनेज मास्टर. बांगालीरा किछु कोरते पारचे ना.
ओरा कोनो काज कोरते गेले 10 परसेंट मनी रेखे दाय. पोयसा दिए जे कोनो काज कोरिये नाय."
अर्थात
"जो मारवाड़ी हैं, वो सब कुछ पैसे देकर मैनेज कर लेते हैं. ये लोग मैनेज मास्टर हैं. बंगाली लोग कुछ नहीं कर पाते हैं. वो लोग कोई भी काम शुरू करते समय 10 परसेंट मनी रख देते हैं. पैसे देकर कोई भी काम करवा लेते हैं."

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अंतरराष्ट्रीय भाषा दिवस की पूर्व संध्या पर भाषा चेतना समिति के कार्यक्रम मे भाषण देते समय बंगाल के भूमि व भूमि सुधार मंत्री माननीय अब्दुल रज्जाक मोल्ला ने ये वक्तव्य दिया है. इस बयान के प्रकाश मे कई सवाल खड़े होते है. जिनका जवाब अगर माननीय मंत्री महोदय दे तो उनकी इस मारवाड़ी पर अपार कृपा होगी. सिर्फ़ और सिर्फ़ मारवाड़ीयों पर ये इल्जाम लगाने से पहले उन्होंने अपनी या अपनी जात ( यानी कि नेताओं की जात) के गिरेबान में झांक कर देखने कि कोशिश की है कि उनकी बदनीयती और दुष्कर्मों से देश के और खास कर बंगाल के क्या हालात है. सारे देश ने देखा नंदीग्राम मे हर पार्टी के नेताओं की करतूत. मासूम जनता की लाश पर इन्होने घिनौनी राजनीति की. बड़े बड़े उद्योग घरानों को जमीन देने के लिए क्या-क्या किया. टी.वी. पर आए दिन इन नेताओं की काली करतूतों के परदे फाश होते हैं. तहलका से लेकर आज तक सैकड़ों बार दिखाया जा चुका है. पर आप लोगों ने बेशर्मी का ऐसा लबादा ओढ़ रखा कि कोई भी हलचल आपकी चेतना को नही झकझोर सकती.

महोदय, घूस देकर मारवाड़ी ने तो जघन्य अपराध कर ही दिया है. लेकिन क्या आप ये बताने का या सोचने का कष्ट करेंगे कि घूस अगर मारवाड़ी ने दी है तो वो ली किसने? क्या किसी बंगाली या किसी मुसलमान या किसी और नान मारवाड़ी ने? और अगर ऐसा है तो क्या वो सही है? और अगर ग़लत है तो आपके श्री-मुख से इस विषय पर क्यों कोई वचनामृत नहीं उड़ेला गया?

जिस बंगाल की सामाजिक सरंचना और सांस्कृतिक धरोहर पर पूरे देश को नाज है वंहा आप महाराष्ट्र के और दक्षिण के अन्य नेताओं की तरह जातिवादी बयान देकर क्या सिद्ध करने मे लगें है? किस मुंह से आप इन नेताओं की आलोचना करते हैं? अपने आप को सर्वहारा वर्ग का नेता और रहनुमा मानते हैं?

घूस को इस देश की हवा, पानी, रोटी और कपड़ा के बाद पांचवी सबसे बड़ी जरुरत क्या मारवाडियों ने बनाया है? नहीं महोदय ये सब आप नेताओं और आपके दुमछल्लों अफसरों की करतूतें हैं. यंहा बच्चे के जन्म के प्रमाण पत्र लेने की बात हो या किसी के मृत्यु के प्रमाण पत्र की बात हो बगैर घूस के कुछ नहीं होता. यंहा अपना हक़ लेने के लिए घूस देनी पड़ती है. यंहा हर सरकारी विभाग का अफसर घूस लेकर ज्यादातर परिस्थितियों मे वही काम करता है जिस काम के लिए उसे नियुक्त किया गया है और जो काम उसे बगैर घूस के ही करना चाहिए. फ़िर चाहे वो कोई भी विभाग हो सेल्स टैक्स, इन्कम टैक्स, कार्पोरेशन, म्यूनिसिपैलिटी,या कोई भी विभाग.

महोदय क्या ये बताने का आप कष्ट करेंगे कि आपकी इस महत्वपूर्ण जानकारी का स्रोत क्या है कि घूस देकर केवल मारवाड़ी ही काम करवातें है? और दूसरो का हक़ मारकर बैठे हैं.

जिस कुकर्म के लिए पूरे देश के लोग जिम्मेदार है, समाज के हर वर्ग कि भागीदारी है वंहा अपने घिनौने राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए सिर्फ़ एक समुदाय के लोगों पर लांछन लगाने को जो निंदनीय कर्म आपने किया है उसके लिए इस देश की जनता आपको कभी माफ़ नहीं करेगी.

Tuesday, February 19, 2008

मनोहर भइया को बधाई दीजिये, वे भी पतित हो लिए

मनोहर भइया मिल गए. मैंने पूछा क्या हाल-चाल है. उन्होंने मुझे देखा और बड़े जोरों की साँस खीची. मैंने सोचा कोई लोचा हो गया लगता है. कुछ तो बात है जो मनोहर भइया सरीखा मानव भी बोलने की जगह साँसे खींच रहा है. अब बताईये, ऐसे विचार क्यों नहीं आयेंगे. अरे जिस आदमी को लोगों ने 'बोलतू' उपनाम दे रखा है, वो अगर बोलने की जगह साँस खींचे तो ये भाव तो मन में आयेंगे ही.

मैंने उनसे फिर वही सवाल किया; "क्या हाल-चाल है?"

बोले; "बहुत ख़राब. बहुत ख़राब, मतलब बहुते ख़राब."

उनकी बात सुनकर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ. मनोहर भइया का हाल भी ख़राब हो सकता है, इस बात पर विश्वास नहीं हुआ. फिर भी मैंने पूछा; "देखिये, हाल ख़राब है तो कोई बात नहीं. कभी-कभी ऐसा हो जाता है. लेकिन ये तो बताईये कि हुआ क्या है."

बोले; "आज शाम की बात है, हम छत पर खड़े होकर चिल्लाते रह गए कि हम पतित हैं. लेकिन कोई हमारी बात मानने के लिए तैयार नहीं है. अब तुम्ही बताओ, ऐसे में हाल ठीक कैसे रह सकता है."

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. कोई मनोहर भइया की बात पर विश्वास क्यों नहीं कर रहा. ऐसा क्यों हुआ. जब मनोहर भइया चिल्लाए तो आस-पास कितने आदमी थे. जितने होंगे, उनमें से कम से कम दो-चार तो इन्हें पतित मानते. वैसे भी आजतक ऐसा नहीं हुआ कि मनोहर भइया ने अपने बारे में जो कुछ कहा, उनके आस-पास के लोगों ने नहीं माना है. रेकॉर्ड है कि उन्होंने जब-जब जो-जो कहा है, लोगों ने माना है.

मुझे याद है, एक दिन उन्होंने कहा कि वे समाजवादी हैं, लोगों ने माना. एक दिन उन्होंने कहा कि लालू-मुलायम वगैरह समाजवादी नहीं रहे, लोगों ने माना. एक दिन उन्होंने कहा कि लालू, मुलायम वगैरह समाजवाद नहीं ला पायेंगे, वो भी लोगों ने माना. फिर एक दिन उन्होंने कहा कि देश में समाजवाद वही लायेंगे, तो भी लोगों ने माना. और तो और, उन्होंने जब ये फैसला किया कि अब ब्लॉग के जरिये ही समाजवाद लायेंगे तो भी लोगों ने उनकी बात मानी. लेकिन ऐसा क्या हुआ कि लोगों ने उनकी इस बात को मानने से इनकार कर दिया कि वे पतित हैं.

ऐसा सोचते हुए मैंने उनसे पूछा; "लेकिन आप पतित कब हुए? और क्यों हुए?"

बोले; "सब हो रहे थे तो हम भी हो लिए. तीन-चार दिन से देख रहा था, पतित होने की होड़ लगी हुई थी. मैंने सोचा कहीं मैं पीछे न हो जाऊं, इसलिए तुरत-फुरत फैसला करके मैं भी पतित हो लिया."

मैंने पूछा; " लेकिन जब आपने अपने पतित होने की घोषणा की, उस समय कितने लोगों ने आपकी इस घोषणा को सुना?"

बोले; "क्या बाल किशन, किस तरह का सवाल है तुम्हारा. अरे भाई समाजवादी हूँ, जाहिर आस-पास पूरी भीड़ होगी. तुम्हें क्या लगा, आस-पास क्या दो-चार लोग थे? ऐसे विचार दिमाग से निकाल दो. कम से कम तीन-चार सौ लोगों की भीड़ थी. भाई, समाजवादी हूँ, मजाक है क्या?"

मुझे अपनी सोच पर अफसोस हुआ. मुझे लगा था सचमुच में दो-चार लोग ही होंगे. फिर मैंने उनसे कहा; "लेकिन ये बात तो वास्तव में ठीक नहीं हुई. इतने सारे लोगों ने आपको पतित नहीं माना, ये तो खतरे की घंटी है मनोहर भइया. कुछ कीजिये कि लोगों को विश्वास हो कि आप पतित हैं."

वे मेरी बात सुनकर सोचते रहे. फिर अचानक यूरेका यूरेका चिल्लाने लगे. मैंने पूछा; "क्या हुआ? कारण समझ में आया क्या?"

बोले; "धत् तेरी. मैं भी रह गया बेवकूफ ही. अभी मुझे समझ में आ गया कि लोग मुझे पतित क्यों नहीं समझ रहे."

मेरी उत्सुकता बढ़ गई. मैं तुरंत जानना चाहता था कि उनकी समझ में क्या आया. मैंने उनसे कहा; "बताईये, बताईये, ऐसा क्यों हुआ?"

बोले; "मैं कल ही कहीं पढ़ रहा था कि अब पतनशीलता का असली मतलब प्रगतिशीलता है. ठीक है, समझ में आ गया कि लोग मुझे पतनशील क्यों नहीं मान रहे. वे सोच रहे हैं कि पतनशील होकर मेरी गिनती तो प्रगतिशील लोगों में होने लगेगी. मैं भी रहा बौड़म का बौड़म. तुम्ही सोचो, कौन समाजवादी को प्रगतिशील देखना चाहेगा."

मैं उनकी बात सुनकर दंग रह गया. ये सोचते हुए कि लोग कैसे-कैसे दो विपरीत शब्दों के एक ही अर्थ साबित कर देते हैं. मैं उनसे ये कहते हुए चला आया कि; "लोग केवल बोलने से नहीं मानेगे. आप एक काम कीजिये. आप अपने ब्लॉग पर एक हलफनामा पोस्ट कर दीजिये कि आप सचमुच पतित हो गए हैं."

Saturday, February 16, 2008

भगवान शिव की तीसरी आँख और मेरी ब्लागिंग पर ख़तरा

आज स्टार न्यूज़ ने सुबह-सुबह ख़बर दी कि भगवान शिव की तीसरी आंख खुल चुकी है. इस बात पर चिंता भी जताई कि प्रलय आने का चांस है. भगवान शिव की तीसरी आँख खुलने को लेकर जब प्रोग्राम शुरू हुआ तो कमेंट्री के साथ-साथ कुछ भीषण दृश्य एक साथ मिलाकर दिखाए गए. इन दृश्यों में कहीं इमारतें गिर रही थी तो कहीं ज्वालामुखी फूट रहे थे. कहीं भूकंप आ रहा था तो कहीं सूनामी. इन दृश्यों को एक साथ मिक्स करके भयावह टेलीविजन प्रोग्राम तैयार किया गया था.

देखकर हम तो डर गए. सबसे पहला ख़याल जो दिमाग में आया वह ये था कि; 'तब तो ब्लॉग भी नहीं लिख पायेंगे क्योंकि प्रलय आने से ब्लॉग भी प्रलय का शिकार हो जायेगा.' जब प्रोग्राम कुछ मिनट चला तो पता चला कि ये भगवान की आंख नहीं बल्कि अन्तरिक्ष में करोड़ों कोस दूर किसी तारे के पैदा होने से जो तस्वीर उभरी है उसकी बात हो रही है. असल में तस्वीर में जो चित्र उभरा वह आँख के आकार का था और बीच में नेबूला हेलिक्स तारा देखा जा सकता था. स्पेस स्टेशन पर रखे गए कैमरे ने यह तस्वीर उतारी थी. ये भी पता चला कि ऐसा होता ही रहता है, मतलब तारे-सितारे बनते रहते हैं. ये कोई ने बात नहीं है. सुनकर थोड़ी राहत मिली. मन में लाऊडली खुश हो लिए. सबसे ज्यादा खुशी इस बात की थी कि; 'चिंता न करो, ब्लॉग लेखन चलेगा.'
प्रलय नहीं आएगी, जब इस बात से कन्फर्म हो लिए तो फिर बिना डरे हुए पूरा प्रोग्राम देखा. देखकर संतोष हुआ कि; 'चलो बहुत दिनों से कोई हारर फ़िल्म नहीं देखी थी सो आज देख ली. टेलीविजन पर बैकग्राऊंड से आती हुई डरावनी आवाज़ के प्रभाव को कम करने के लिए परदे पर एक न्यूज़ एंकर भी थी जो अपनी मीठी आवाज़ से परदे की पीछे से आ रही डरावनी आवाज़ के असर को कम कर रही थी. इस न्यूज़ एंकर की कृपा से डर कभी-कभी हँसी में कनवर्ट हो जा रहा था. कुल मिलाकर आनंद आया. आज की सुबह मनोरंजन के लिहाज से अच्छी रही.
इसी बात पर एक ताज़ी कविता पढिये. सूचना दी जाती है कि कविता मैंने ही लिखी है. ये किसी इंटरनेशनल कवि की कविता का अनुवाद नहीं है.

बदलते समय की निशानी तो देखो
बदलते समय की कहानी तो देखो
कि करतूत से अपनी कर दे चकित जो
ये इंसा की ताज़ी रवानी तो देखो

जला दे बुझा दे, बुझा कर जला दे
हो दीपक या बत्ती या दारू की भट्टी
मगर क्या करेंगे चला ही गया है
शरम का इन आंखों से पानी तो देखो

वही खुश जो ख़ुद को समझते हैं राजा
कभी न जगेंगे कि देखें किसी को
कि राखों पर हमरी मनाते हैं खुशियाँ
ये कैसी है इनकी शैतानी तो देखो

बस. और तुकबंदी नहीं कर पा रहा हूँ, इसलिए कविता यहीं ख़त्म.

Friday, February 15, 2008

पप्पू यादव जी, ऊंची अदालतों में जाईयेगा तो नारे ऊंचे लोगों से लिखवाईयेगा

जेल का फाटक टूटेगा, पप्पू यादव छूटेगा. ये नारा तो लगा लेकिन जैसे आजतक बाकी के नारे काम नहीं कर सके वैसे ही इस नारे ने भी काम नहीं किया. फाटक नहीं टूटा. टूटे तो यादव जी. सुना कल रो रहे थे. बोले; "जज साहेब, हम आपका फैसला भगवान् का फैसला मानते हैं लेकिन एक बात बताय देते हैं जो आपको भी नहीं मालूम, और ऊ बात इतनी सी है कि हम निर्दोष हूँ."

जज साहब भी यादव जी की नजर में भगवान् बन गए. कम से कम इस फैसले की वजह से. जज साहब ने भी भगवान् का फ़र्ज़ निभाते हुए कह डाला; "हम भी आपकी बात समझते हैं लेकिन सुबूत वगैरह आपके ख़िलाफ़ जाते है. कम से कम मेरी नजरों में तो ऐसा ही है. यही सुबूत लेकर आप ऊंचे कोर्ट में जाईयेगा. हो सकता है वहाँ के भगवान् आपकी बात मान लें."

जायेंगे. ऊचे कोर्ट में भी जायेंगे ही. ऊंची कोर्ट बनी ही इसीलिए है कि यादव जी टाइप लोग वहाँ जा सकें. ऊंची अदालतें हैं तो ऊंचे वकील भी हैं. वही लोग कुछ करेंगे. तब तक यादव जी के पास टाइम है. लेकिन मेरी उनको एक सलाह है. इस बार नारा लिखने के लिए भी ऊंचे लोगों को चुने. ये पार्टी के छुटभैये कार्यकर्त्ता, जी हाँ कार्यकर्ता भी छुटभैये होते हैं, केवल नेता ही नहीं, नारा लिखेंगे तो फाटक का टूटना ज़रा मुश्किल है. सामाजिक न्याय दिलाने वाले नेता हैं तो बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी हैं. उनमें से किसी को पकड़ें, शायद नारा काम कर जाए.

इसी बात पर मेरी एक कविता सुन लीजिये, सॉरी पढ़ लीजिये. इंटरनेशनल कवियों की कवितायें कब तक ठेलूँगा? इस तरह से तो मेरे अन्दर के कवि की लेखनी पर गर्दा जम जायेगा.

कितने अच्छे दिन थे, कसकर जब हुकूमत हाथ में
वे फिरा करते थे लेकर गुंडे चमचे साथ में
घूमा फिर चक्का समय का, हाथ खाली हो गया
जो बना फिरता था नेता अब मवाली हो गया

मिल गई उनको सजा लेकिन कहें; 'निर्दोष हैं'
जिनको कहते लालू यादव, 'आजके ये बोस हैं'
जिनकी करतूतों से डर कर लोग सारे त्रस्त थे
कल उन्हें देखा सभी ने, रोने में वे व्यस्त थे

देखिये कैसा चला चक्कर समय का आज है
मिल गई उनको सजा हाथों में जिनके राज है
पर अदालत का ये निर्णय पूरा माना जायेगा
उच्च न्यायालय भी इनको जब सजा दिलवाएगा

अरे वाह..भइया शिव कुमार जी, देख लीजिये. तुकबंदी हम भी कर सकता हूं.पचीस ग्राम ही सही....:-)

Thursday, February 14, 2008

कुछ उनकी, कुछ हमारी और कुछ क्रांति की...

क्या कहा, बड़े दिन के बाद आया. अरे भइया आया, यही क्या कम है. ओह, सॉरी सॉरी, आप अपने आने की बात कर रहे हैं. मैंने सोचा मेरे आने की. कोई बात नहीं. अब आए हैं तो एक ठू (थू नहीं) टिपण्णी भी दे दीजिये. अरे चिंता नहीं न करें, हम काल आपके ब्लागवा पर जाकर उतार आयेंगे. नहीं नहीं, ऐसा मत सोचिये, भड़ास नहीं, मैं टिपण्णी की बात कर रहा हूँ.

अब देखिये न, टिपण्णी की जरूरत तो आजकल उन्हें भी महसूस हो रही है. क्या? आपको मेरे कहने पर भरोसा नहीं है? इसका मतलब आपने हाल ही में उनकी तमाम पोस्ट नहीं देखी. होता है जी, होता है. ऐसा ही होता है. एक समय आता है जब उनको भी ख़ुद के ऊपर डाऊट हो जाता है और वे भी भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं. लेकिन भीड़ में पहुंचकर चिल्लाते भी हैं कि हे टुच्चों, मुझे अपना हिस्सा समझने की भूल मत करना. देख नहीं रहे, मेरी कमीज का रंग तुम लोगों से पूरी तरह से अलग है. दो-चार बार चिल्लायेंगे. लेकिन ज्यादा चिल्लाने पर भीड़ कमीज फाड़ डालेगी है. बस, थोड़े दिनों का बदलाव अपनी जगह पहुँच जायेगा. एक-दो महीने के बाद फिर से दोहराएंगे.

कन्फ्यूजन से उबरना, मतलब सोच का अंत. इसलिए, कन्फ्यूजन बना रहे, यही मूल है सारी बातों का. ब्लागिंग का भी. विचारधारा का भी. कहते हैं कन्फ्यूसियस के रास्ते पर चलते हैं, नहीं तो जीवन में पर्याप्त मात्रा में कन्फ्यूजन नहीं रहेगा.

इसी बात पर ये कविता पढिये. निकारागुआ के महान कवि स्टीवेन ह्वाईट की कविता है.

किसे कहें क्रांति?
उसे, जो तुम ले आए
या फिर उसे,
जो तुम नहीं ला सके

किसे कहें क्रांति?
उसे, जो तुम्हारी सोच में कैद है
या फिर उसे,
जो तुम्हारी करतूतों में दिखती है

किसे कहें क्रांति?
उसे, जिसको तुम कहते हो
या फिर उसे,
जो हमने समझी है

समय मिले तो सोचना
कर सको, तो फैसला करना और;
क्रांति ले आना
हम उसकी रक्षा करेंगे