Wednesday, October 31, 2007

राम बाबू की पीडा और अनिल श्रीनिवास का सच

मौका ऐ वारदात--- पूर्व मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल
मुख्य पात्र ----- राम बाबू और अनिल श्रीनिवास.
---------------------------------------------------------
सच्ची घटना है. सिर्फ़ दो दिन पुरानी. कल सारा दिन बंगला समाचार चैनलों पर छाई रही. राम बाबू छ: साल से सज़ा काट रहा एक मुजरिम और अनिल श्रीनिवास पूर्व मेदिनीपुर का पुलिस सुपर. दोनों मे भाई-भाई का रिश्ता है. (अगर कर चोर-चोर मौसेरे भाई तो चोर-पुलिस शायद फुफेरे भाई.) और दोनों गाँव भाई भी है क्योंकि दोनों ही हैदराबाद से है. परसों राम बाबू ने डी.आई.जी. को चिठ्ठी लिखकर शिकायत की कि श्रीनिवास ग़लत ढंग से उनकी धर्मपत्नी के सम्पर्क मे है और उनकी धर्मपत्नी भी उनका कहा नही सुन रही है तो कृपा करके मेरी पत्नी (पर पुरूष के सम्पर्क के कारण धर्म तो रह नही गया) मुझे वापस दिलाई जाय. ये तो हुई राम बाबू की पीड़ा. उधर श्रीनिवासजी ने तो बंगाल ही नही वरन सम्पूर्ण भारत की पुलिस को एक मार्ग दर्शन दिया अपराधियों से निपटने के लिए की अगर अपराध करोगे तो तुम्हे जेल में बंद करके आगे हम कुछ भी कर सकते है. इससे अपराधियों मे एक भय की सृष्टि होगी और अपराध की संख्या का ग्राफ ज्ञान भइया के ब्लॉग ग्राफ की विपरीत दिशा मे भागेगा.
आने वाले समय में यह कदम अपराध शास्त्र मे एक क्रांति का सूत्रपात करेगा. लेकिन हम तो बलिहारी है बंगाल सरकार के जो ऐसे नायाब पुलिस सुपर को पदक प्रदान करने के बजाय कभी ट्रान्सफर करने का या कभी सज़ा देने का सोच रही है.
और तो और इस बात का अनुकरण करके समाज,देश और राजनिती के क्षेत्रों में भी उलेखनीय सुधार की संभावना है. मेरा सभी ब्लॉगर भाइयों से निवेदन है की इस पर विचार किया जाय.

Tuesday, October 30, 2007

दर्द की खेती

बचपन में,
स्कूल में,
स्कूल की किताबों में,
भूगोल में,
इतिहासों में,
मैंने ये पढ़ा था
मुझे ये पढाया गया था कि
भारत गांवों में बसता है और
यह एक कृषि प्रधान देश है,
यंहा के लोगों का मुख्य पेशा खेती करना है.
अब चूंकि मैं बचपन से ही
शहरों मे रहता आया था,
इसलिए उस वक्त इस तथ्य
को समझ नहीं पाया था.
अब लगता है कि
मास्साब ने मुझे ठीक ही पढाया था,
यंहा गाँव ही नही शहरों के लोग भी खेती करतें है,
यंहा हर इंसान किसी दूसरे के लिए दर्द बोता है.
और बोने वाले कि उदारता देखिये वो अपने लिए कुछ नही रखता,
पूरा दर्द उसी के लिए छोड़ देता है, जिसके लिए वो बोता है.
दर्द की खेती हर तरफ़ लहलहा रही है
पूरी दुनिया इस दर्द से लहुलूहान हुई जा रही है.

एक पत्र- जनाब शाहरुख खान के नाम

जनाब शाहरुख़ खान को
बाल किशन का आदाब,

मैं बालकिशन, ब्लोगरों कि दुनिया का एक छोटा सा ब्लॉगर यंहा कुशल पूर्वक हूँ और आपकी कुशलता कि कामना सदैव भगवान से चाहता हूँ। जनाब कुछ दिनों पहले आपका एक विज्ञापन टी वी पर देखा उसमे आप दर्शकों को संतुष्ट न होने कि लिए निवेदन करते हैं (अब हमारें लिए तो ये निवेदन नहीं हुक्म हैं जनाब )। आप फरमाते हैं कि जनता हर हाल में संतुष्ट हैं जो कि होनी नही चाहिऐ। पर जनाब बुरा ना माने तो अर्ज़ करूं कि आप की दृष्टि में कुछ ना कुछ दोष तो ज़रूर हैं जो हम जनता की इतनी सब असंतुष्टियाँ आप को नज़र नहीं आती।

हम संतुष्ट नही हैं बढ़ते भ्रष्टाचार से,
हम संतुष्ट नही हैं महंगाई की मार से,
हम संतुष्ट नहीं हैं आस्ट्रेलिया से हार के,
हम संतुष्ट नही हैं गरीबों और अमीरों के बीच बढ़ते असंतुलन से
ना ही हम संतुष्ट हैं शेयर बाज़ार के व्यापार से,
हम संतुष्ट नहीं है नेताओं के व्यभिचार से,
और भी बहुत से मुद्दे है (मोदी,तहलका,हिन्दी का विकास, लोकतंत्र की रक्षा आदि-आदि)
हम संतुष्ट नहीं है जिनके विचार से.

तो हे सुपरस्टार महोदय आप हम पर संतुष्ट होने का ग़लत इल्जाम लगाकर अपनी दुकान क्यों चमकाना चाहतें है.
आपकी दुकान तो वैसे ही धडल्ले से चल रही है. आपने भी तो एक पुराने (शायद नए भी) सुपरस्टार के नक्शेकदम पर चलते हुए अपनी दुकान चमकाई है. और अगर हम ही असंतुष्ट (आपकी फिल्मों से )हो जाएं तो आपका क्या होगा, हम अगर असंतुष्ट हो जाएं तो इस देश का क्या होगा. इसलिए जनाब से निवेदन है की सलाह देने में जरा सावधानी बरतें.
कहासुनी माफ़ किजिएगा और पत्र का जवाब शीघ्र देने की कृपा करें.
आपका संतुष्ट-असंतुष्ट
बाल किशन

Monday, October 29, 2007

सचिन सुन रहे हो कि नहीं

क्रिकेट बदल गया है।क्रिकेट वाले भी बदल गए हैं.खिलाडी बनने के तरीके बदल गए हैं.सचिन तेंदुलकर ने अनायास ही इतनी मेहनत की.क्रिकेट खेलने के लिए स्कूल बदला.इम्तिहान तक नहीं दिए.कितना पढे हैं, किसी को नहीं मालूम.रमाकांत अचरेकर से सीखने के लिए भाई को अपना पुराना स्कूल छोड़ना पडा.दिन-रात मेहनत करनी पड़ी.कितनी प्रैक्टिस और कितना समय देना पडा तब जाकर बड़े खिलाड़ी बन सके.आगे चलकर कोच से झगडा तक किया.

लेकिन अब समय बदल चुका है।आज किसी को बड़ा क्रिकेटर बनने के लिए इतना बलिदान देने की जरूरत नहीं.अब तो केवल आशीर्वाद चाहिए.कोई जरूरी नहीं कि आशीर्वाद किसी क्रिकेट के कोच का हो.बहुत पछता रहे होंगे सचिन तेंदुलकर कि काश उनके पिताजी नेता होते तो इतनी मेहनत से पीछा छूटता.पिताजी एक रैली करवाते.रेल गाडियाँ बुक करते.लाखों लोगों को के सामने स्टेज पर सचिन को लाते और इन लोगों को बताते कि "मैं नेता हूँ तो क्या हुआ.मेरा बेटा नेता नहीं बनेगा.वो तो केवल क्रिकेट खेलेगा." सचिन स्टेज पर सबके सामने माईक पर आते और हाथ ऊंचा करके दोनों हाथ जोड़ लेते.एक साथ लाखों लोगों का आशीर्वाद मिलता और वे क्रिकेटर बन जाते.

कल लालू जी ने आने वाली पीढ़ी के संभावित क्रिकेट खिलाडियों को अच्छी सीख दे दी है। अब ये इन संभावित खिलाडियों के पिताओं पर निर्भर करता है कि वे नेता बन पाते हैं कि नहीं.भविष्य में कोई लड़का क्रिकेटर बनना चाहता है तो ये उसका कर्तव्य है कि वो पहले अपने पिता को नेता बनने के लिए उकसाये.पिता एक बार नेता बन गया तो फिर उसे लाखों लोगों की रैली करने की जिद करे.रैली में आए लोग ख़ुद ही इस लडके को इतना आशीर्वाद दे देंगे कि उसका क्रिकेटर बनना तय समझिए.

सचिन सुन रहे हो कि नहीं.अर्जुन को अगर क्रिकेटर बनाना है तो पहले नेता बनो.

Saturday, October 20, 2007

विश्वास

हम सब के जीवन में एक समय, एक दौर ऐसा भी आता हैं जब जीवन तमाम मुश्किलों, परेशानियों से घिरा रहता हैं। मित्र , संबंधी विश्वासघात करतें हैं। ऐसे ही गर्दिश के समय लिखी एक रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ।

विश्वास

हुआ आगमन जब प्रकाश का मनु के जीवन में,

प्रिय-प्रिय कहकर लिपट गई परछाई उसके चरणन में,

बन गया संबंध शाश्वत मात्र एक क्षण में,

किया स्वागतम उस मित्र का मनु ने हृदय आंगन में,

बाँध गयी डोरी विश्वास की जीवन के कण कण में,




परिवर्तनशील इस संसार में उलट गई जब समय की धारा,

अपनों के ही हाथों मनु आज एक बार फिर हारा,

घिर गया अन्धकार चंहु ओर से ,




मदद के लिए करता गुहार मनु जान चुका अब ये सच्चाई,

कौन देगा साथ तुम्हारा, इस घोर अन्धकार में,

जब छोड़ चुकी हैं साथ तुम्हारा,

स्वयम तुम्हारी ही परछाई।

Friday, October 19, 2007

शेयर बाजार के बारे में इतना क्यों रोना

हम आम लोग भी अजीब-अजीब बातों से परेशान रहते हैं। जिन बातों में हम अपनी रूचि नहीं रखते, समय आने से उन बातों में भी टांग अडाने से नहीं चूकते. अमिताभ बच्चन का किसान का स्टेटस हो या फिर देश की राजनीति, सलमान खान का हिरन प्यार हो, ये उनका किसी फिल्मी हसीना के लिए प्यार, हम सब बातों के बारे में बोलते हुए सुने और लिखते हुए पढे जाते हैं. वोट देने नहीं जायेंगे लेकिन देश की बिगड़ती राजनीति और राजनीति में बढ़ती हुई गुंडागर्दी के बारे बातें करेंगे. अगर ब्लॉग लिखते हैं तो उनके बारे में लिखेंगे भी.

अब देश के शेयर बाजार के बारे में लिख रहे हैं. एक तरफ़ तो ये रोना रोते हैं कि शेयर बाजार से आम आदमी को कुछ फायदा नहीं होता, ये सब तो बड़े लोगों के लिए हैं. लेकिन जब बाजार गिरता है, तो उसके बारे में लिखने से नहीं चूकते कि आम आदमी का पैसा बाजार में डूब गया. अरे भइया, जब आम आदमी शेयर बाजार में पैसा लगाता ही नहीं, तो फिर डूबने का सवाल कहाँ है. बाजार में गिरावट शुरू हुई नहीं कि डंडा लेकर पिल पड़े नेताओं के पीछे, सेबी के पीछे. क्यों तकलीफ होती है इतनी. ये क्या हमारा आम आदमी के लिए प्यार बोलता है? मुझे नहीं लगता.

शेयर बाजार के चलने का अपना तरीका हैं.और बाजार अपने हिसाब से चलेगा.पूरी दुनिया में ऐसा होता हैं, केवल भारत में नहीं.तो क्यों हम इसके बारे में रोना रोयें.हमें चीजों के बढ़ते दामों पर सरकार से जवाब माँगना चाहिए.हमें न्याय व्यवस्था पर सरकार से जवाब माँगना चाहिए.हमें बाक़ी के क्षेत्रों में सुधार पर सरकार से जवाब मांगना चाहिए.लेकिन हम हैं कि शेयर बाजार के गिरने पर दुखी हैं.हमारे अपने हित के बारे में हम नहीं सोचेंगे तो और कौन सोचेगा.एक बार सोचें और इसपर चिंता करते हुए बोलें और लिखें तो शायद ज्यादा अच्छा होगा.

Wednesday, October 10, 2007

आधा बाबू

पढ़ कर कि बड़ा अटपटा सा लग रह होगा ये नाम, पर ये सच है. हम सब की जिंदगी में एक आध आधा बाबू ऐसे होते है जो हमारी जिंदगी को पूरा करने पर तुले रहते हैं। इनकी कुछ विशेषतायें होती हैं। जैसे ये आप को कभी किसी काम के लिए मना नहीं करेंगे पर क्या मजाल जो कभी आप का काम कर दें। एक तो इनका प्रभामंडल इतना विकासित होता है दूजा इनकी बातो में इतना अत्मविस्वास और सलीका होता है कि आप जानते-बूझते भी, कि ये झूठ बोल रहे हैं, प्रतिवाद नहीं कर सकतें। जैसा कि एक मशहूर शायर साहब ने कहा है:-

वो झूठ भी बोल रहा था बडे सलीके से ,
मैं एतबार ना करता तो और क्या करता।

इनके साथ आप को बहुत संभल कर डील करनी पड़ती है क्योंकि ये एक दोधारी तलवार की तरह कार्य करतें है , जरा सी चूक और आपके काम का काम तमाम। (नोट:- आप कितना भी संभल ले परिणाम वही-काम तमाम )

इनकी एक और विशेषता ये है कि आप कभी भी गुस्से में इनको कुछ भी कहें ये बुरा नहीं मानते हैं। मेरा ये मानना है कि हम सब के पास अपना अपना कम से कम एक-एक आधा बाबू होता है। मेरे पास भी एक है समय आने पर आप लोगों से परिचय जरूर करवाएँगे ।

और अंत में " लगे रहो मुन्ना भाई"।

नोट:- व्यक्तिगत टिपण्णी को आमंत्रित करती इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा ज्ञानजी की " गुन्डी" से मिली।

Tuesday, October 2, 2007

जमाने का गर्द और इंसानियत का दर्द

नेता बनने की कोशिश की, नहीं बन सका. जब तक स्कूल में था, तब तक छात्र-राजनीति स्कूल में वर्जित थी. कालेज में पहुंचा तो वहाँ 'छात्र नेताओं' को देखकर होश फाख्ता हो गए. सभी छात्र-नेता कम से कम चालीस साल की उम्र के थे. तो नेता बनने का सारा चांस खो दिया. अभिनेता बनने की कवायद जैन विद्यालय में किए गए नाटकों से आगे नहीं पहुँच सकी. दिन गुजरते गए. एक दिन ख़ुद को ऎसी जगह पाया जहाँ नेता और अभिनेता बनने का विचार मन से जाता रहा. रोज सबेरे मजदूर नेताओं की हाय-हाय सुनने को मिलती थी. बाद में पता चला कि आम आदमी बन कर जीना पडेगा. वैसे कुछ बुरा नहीं है, बुरी बात केवल इतनी सी है कि आम आदमी बनकर जीने में बड़ी मसक्कत की जरूरत है. बकौल निदा फाज़ली साहब;

मन बैरागी, तन अनुरागी कदम-कदम दुशवारी है
जीवन जीना सहल न समझो, बहुत बड़ी फनकारी है

समझ गए। रोज, नित नई फनकारी दिखाने का मौका देती है जिंदगी. जहाँ तक हो सकता है, दिखाते हैं. कभी-कभी सरेंडर करने की जरूरत महसूस होती है तो वो भी कर देते हैं.

पिछले सात महीनो से हिन्दी ब्लॉग पढ़ने की आदत सी हो गयी है। एक-दो को तो अच्छे ब्लॉगर बनने की सलाह भी दे चुका हूँ. कुछ लोगों ने सलाह के लिए क्रेडिट भी दिया. आज किसी ने फिर से कहा तो मैंने सोचा कि एक ब्लॉग बना ही लूँ. और फिर आम आदमी को चाहिए भी क्या. रोटी, कपडा, मकान और एक ब्लॉग. पहले के तीन तो थे, चौथे की कमी थी, वो भी आज हो गया.

बात जमने-जमाने की नहीं है. बात है तो केवल इतनी सी कि जमाने का गर्द और इंसानियत का दर्द, इन दो चीजों की बात जब तक मन में आयेगी, ब्लागरी भी चलती रहेगी.